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6. भक्त त्रिलोचन जी की बाणी की विरोधता और स्पष्टीकरण

गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः

धनासरी बाणी भगतां की त्रिलोचन ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी ॥ दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ॥१॥ रहाउ ॥
संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ॥
कुल जन मधे मिल्यो सारग पान रे ॥
करम करि कलंकु मफीटसि री ॥१॥
बिस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआरथी पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा ॥
करम करि अरुण पिंगुला री ॥२॥
अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ॥
करम करि कपालु मफीटसि री ॥३॥
अमृत ससीअ धेन लछिमी कलपतर सिखरि सुनागर नदी चे नाथं ॥
करम करि खारु मफीटसि री ॥४॥
दाधीले लंका गड़ु उपाड़ीले रावण बणु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ॥
करम करि कछउटी मफीटसि री ॥५॥
पूरबलो क्रित करमु न मिटै री घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं ॥
बदति त्रिलोचन राम जी ॥६॥१॥ अंग 695

अर्थः (भक्त त्रिलोचन जी कहते हैं कि हे स्त्री ! परमात्मा को दोषी मत ठहराओ। दोष अपने कर्मों का है। जैसे हम कर्म करते हैं, बस वैसा ही फल पाते हैं। चन्द्रमाँ शिव के माथे में है, प्रतिदिन गँगा में स्नान करता है। उसी चन्द्रमाँ की कुल में श्री कृष्ण जी हुए हैं। पर चन्द्रमाँ ने इँद्र की सहायता की जो कामुक होकर गौतक की अर्द्धांगिनी से पाप कर बैठा, जिस कारण उसे गौतम ने श्राप दे दिया। आज भी चन्द्रमाँ पर दाग है। सूर्य की ओर देखो। वह सारे जगत को रौशनी देता है। दीये के समान है। अरूण उसका रथवान है। अरूण का भाई गरूड़, गरूड़ को पक्षियों का राजा माना जाता है। अरूण ने बींडे का पाँव तोड़कर लोहे की छड़ी पर मोड़ा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि अरूण पिंगला हो गया। शिव जी जी ओर देखो, वह अनेकों पापों को हरते हैं, लेकिन स्वयं तीर्थ स्थानों पर भटकते रहते हैं। सरस्वती पर ब्रहमा मुग्ध हो गए। शिव जी ने यह पाप जानकर ब्रहमा का सिर काट दिया, जिस कारण शिव जी पर ब्रहमा के वध का आरोप लगा। ब्रहमा का सिर उनकी हथेली पर चिपक गया। हाथ से उसे उतारने के लिए शिव को कपाल मोचन तीर्थ पर जाना पड़ा। हे भाग्यवान ! सागर को देखो। कितना बड़ा चौड़ा व गहरा है, इसी सागर में से अमृत, चन्द्रमाँ, कमला, लक्ष्मी, कल्पवृक्ष, धन्वन्तरि वैद्य आदि निकले। सब सागर से मिलते हैं पर देख लो कर्मों का फल खरा है। वह घटना इस प्रकार हैः कहते हैं कि अगस्त मुनि ने ब्रहम भोज किया। सागर को आमँत्रित किया परन्तु सागर अहँकार में आकर ब्रहम भोज पर न गया। क्रोधित होकर अगस्त मुनि ने सागर को पी लिया और फिर पेशाब द्वारा निकाला तो वह खारा हो गया। ओर सुनो ! हनुमान जी की बहुत चर्चा है। उन्होंने लँका को जलाया, रावण का राज्य उजाड़ा व सँजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों को बचाया। यह सब कुछ करने के बाद भी उन्हें जो मिला यह सब कर्मों का फल है। इसलिए इस झगड़ें में न पड़ो, केवल राम नाम का सुमिरन करो। सुमिरन करने से ही मनुष्य का कल्याण होगा।

नोटः भक्त त्रिलोचन जी जाति के ब्राहम्ण थे। ब्राहम्ण अपने आगूओं या पूर्वजों के द्वारा चलाई गई परपाटी के अनुसार अवतार पूजा को ही श्रेष्ठ भक्ति मान रहे थे और दान पुण्य, तीर्थ स्नान आदि कामों को ही पापों की निवृति और स्वर्ग आदि सुखों की प्राप्ति का साधन समझते थे। पर इस शबद के द्वारा भक्त जी ने इन दोंनों कामों का खण्डन किया है। जिन देवताओं और अवतारों की पूजा प्रचलित है, उनका जिक्र शबद के चारों बंदों में करके कहते हैः

  • 1. आप विष्णु की (कृष्ण मूर्ति की) पूजा करते हो और गँगा में स्नान करने को पुण्य का काम समझते हो। पर आप यह भी बताते हो (हिन्दूओं में प्रचलित) कि अपनी स्त्री अहिल्या के संबंध में गौतम ने चन्द्रमाँ को दाग लगा दिया था, यह दाग चन्द्रमाँ के माथे पर उसके कुकर्म का कलँक है। नित गँगा का स्नान और विष्णु जी का कृष्ण रूप धारकर चन्द्रमाँ के कुल में जन्म लेने से भी चन्द्रमाँ के उस कलँक को आज तक दूर नहीं कर सका। अब बताओ कि गँगा के स्नान से और कृष्ण मूर्ति की पूजा करके आपके पाप के कुर्कम किस प्रकार से धूल जाएँगे ?

  • 2. आप गरूड़ को पँछियों का राजा मानते हो और दशहरे वाले दिन उसका दर्शन करने के लिए दौड़ते-भागते फिरते हो, सूर्य को देवता मानकर सँग्रांद को उसकी पूजा करते हो। देखो, आप पिंगुले (अपँग) अरूण को सूर्य का रथवाही मानते हो और गरूड़ का रिश्तेदार समझते हो। अगर गरूड़ अपने रिश्तेदार का और सूर्य अपने रथवाही का पिंगुलापन (अपँगपन) दूर नहीं कर सका, तो यह दोनों आपका क्या सवाँरेंगे ?

  • 3. आप एक टटीहरी के बच्चों की कहानी सुनाकर बताते हो कि टिटहरी के बच्चों को बहा ले जाने के अपराध में समुद्र आज तक खारा चला आ रहा है। पर साथ ही आप यह भी बताते हो समुन्दर में से चौहद (14) रत्न निकले थे, जिसमें से कामधेनु और कल्प वृक्ष भी था और समुन्दर में आप विष्णु जी का निवास भी बताते हो। पर अगर विष्णु जी कामधेनु और कल्प वृक्ष आज तक समुन्दर के अपराध का असर नहीं मिटा सके, समुन्दर का खारापन दूर नहीं कर सके तो आप इसी विष्णु जी की पूजा से किस लाभ की आशा रखते हो ? तुम पुण्य दान के आसरे स्वर्ग में पहुँचकर इसी कामधेनु और कल्पवृक्ष से मन की मूरादें कैसे पूरी करवा लोगे ?

  • 4. आप श्री रामचन्द्र जी की मूर्ति की पूजा करते हो और फिर आप ही कहते हो, जो कि हिन्दू मत में प्रचलित है कि हनुमान जी को इनकी अटूट सेवा करने के बाद भी एक छोटी सी कच्छ ही मिली। क्या तुम श्री रामचँद्र जी को हनुमान से अधिक प्रसन्न कर लोगे ?

  • 5. जिस शिव को बली देव समझकर मन्दिरों में टिकाए शिव की पूजा करते हो, और उसी के बारे में जो कि हिन्दू मत मे प्रचलित है, कहते हो कि जब ब्रहमा अपनी ही लड़की पर मोहित हो गया, तो शिव जी ने उसका एक सिर काट दिया, तो यह कटा हुआ सिर शिव जी के हाथ से जुड़ गया। शिव जी कई तीर्थों पर भटकते फिरे, किन्तु वो कटा हुआ सिर शिव जी के हाथ से उतरता ही नहीं था। अब बताओ, जो शिव आप ही इतने आतुर होकर दुखी हुए, आपका क्या सँवार लेंगे ?

भक्त त्रिलोचन जी अपनी पत्नी को समझाते हुए, अपनी अर्न्तआत्मा, जिन्द को सम्बोधित करके कहते हैं कि एक परमात्मा की भक्ति ही पिछले कूकर्मों के सँस्कार मिटाने में समर्थ है।

भक्त बाणी के विरोधी के इस बाणी पर ऐतराजः
भक्त बाणी का विरोधी इस बाणी के बारे में ऐसे लिखते है कि इस शबद में पुराणिक बातों को लिखकर कर्मों को प्रबल माना है, परन्तु शिव जी की जटाओं में गँगा का आना और चन्द्रमाँ का माथे पर होना और गरूड़ के ऊपर विष्णु जी की सवारी होना आदि बताया गया है। यह सभी ख्याल सृष्टि के नियम के बिल्कुल उलट हैं। और यह झगड़ा भक्त जी और उनकी स्त्री का है जो नाराइण की निंदा करती है। भक्त बाणी के विरोधी के ऐतराजः

ऐतराज नम्बर (1) यह झगड़ा भक्त जी और उनकी स्त्री का है और जब परमात्मा उनके यहाँ पर रसोईया बनकर आ जाते हैं और फिर स्त्री द्वारा उनकी पड़ोसन से निन्दा करने पर चले जाते हैं तो उनकी स्त्री नाराइण की निंदा करती है और तब भक्त जी इस बाणी का उच्चारण करते हैं।
ऐतराज नम्बर (2) शबद में दिए गए ख्याल सृष्टि के नियम के विरूद्ध हैं।
ऐतराज नम्बर (3) भक्त त्रिलोचन जी ने कर्मों को प्रबल माना है।

साधसंगत जी अब सही स्पष्टीकरण भी देखेः

ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः परमात्मा के घर में रसोईया बनकर आने वाली कहानी मनघंडत है, जो कि इस शबद से पहले दी गई है और इसका इस शबद के साथ कोई मेल ही नहीं है। शबद में इस मनघंड़त कहानी का कोई जिक्र भी नहीं है। लोगों ने यह कहानी बना ली है। यह कहानी मानी नहीं जा सकती। बस ! इस कहानी को ना मानें।

ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः इस बाणी के अर्थ के नीचें दिए गए नोट को ध्यान से देखें। धार्मिक आगू और मूखी ब्राहम्णों द्वारा चलाई हुई पुराणिक कहानियों का हवाला देकर भक्त जी जो कि आप भी ब्राहम्ण थे। इन कहानियों को मानने वालों को समझा रहे हैं कि अवतार पूजा, मूर्ति पूजा और गँगा के स्नान आदि पिछले किए कर्मों के सँस्कार नहीं मिटा सकते। अगर पिछले बँधनों से मूक्ति चाहते हो तो एक परमात्मा का नाम जपो। यह विचार गुरमति से मिलता है। पूरानी कहानियाँ मानने वालों को उनकी कहानियों का हवाला देकर समझाना कोई बूरी बात नहीं है। गुरू साहिबान जी ने भी सैकड़ों स्थानों पर ऐसे हवाले दिए हैं। मिसाल के तौर पर देखो, रामकली जी वार महला 3, पउड़ी नम्बर 14, अंग नम्बर 953 सलोकु महला 1 कोः

सहंसह दान देहि इंद्र रोआइआ ।।
परस रामु रोवै घरि आइआ ।।

यहाँ पर कई पुराणिक कहानियाँ दी गई हैं। इन कहानियों को मानने वालों को इन्हीं कहानियों के द्वारा समझाया गया है कि किसी प्रकार गौतम ऋषि ने हजार भगों का दण्ड देकर, श्राप देकर इन्द्र का रूला दिया था, क्योंकि इन्द्र ने ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ धोखे से सँग किया था। इसी प्रकार परशुराम के पिता जमदगनी को सहस्त्रबाहू ने मार दिया था तो बदले की आग में परशुराम ने क्षत्रिय कुल का नाश करना शुरू कर दिया था, परन्तु जब श्री रामचँद्र जी ने अपने शस्त्र उठाए तो इनका बल खींच लिया था तो परशुराम रामचँद्र जी द्वारा अपना बल गवाँ देने पर घर आकर रोया था यानि इज्जत गँवाई थी। इस बाणी के द्वारा गुरू जी कहते हैं कि जो परमात्मा का नाम जपता है वो जिन्दगी की बाजी जीत कर जाता है और नाम के बिना अनेक किए गए काम जिन्दगी की बाजी नहीं जितवा सकते।
जो तरीका गुरू साहिब जी ने प्रयोग किया वो ही तरीका भक्त त्रिलोचन जी ने भी प्रयोग किया है।

ऐतराज नम्बर (3) का स्पष्टीकरणः
अब बाकी रहा इस बात का ऐतराज कि भक्त जी ने इस बाणी में कर्मों को प्रबल माना है तो विरोधी भाई साहिब जी हम आपको बता दें कि इस बारे में एक नहीं सैकड़ों प्रमाण गुरबाणी में मिलते हैं कि किए गए कर्मों के सँस्कार मिटाने के लिए केवल एक ही इलाज है, जरिया है और वह हैः परमात्मा का नाम सिमरन करना उसका नाम जपना। मिसाल के तौर पर देखोः
(1) नानक पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहारू ।।2।।17।। सलोक महला 1, सूही की वार मः 3
(2) नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ ।। पउड़ी 17, सारंग की वार
(3) पइऐ किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ।।1।।4।। सलोक मः 3, वडहंस की वार
(4) पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंनि।।1।।12।। सलोक मः 3 बिलावल की वार

निष्कर्षः
1. भक्त त्रिलोचन जी की बाणी गुरमति के अनुकुल है।
2. गुरू साहिबान जी के आशे पर खरी उतरती है।
3. मनघंड़त कहानी के कारण हम सच्चाई को झूठला नहीं सकते।
4. भक्त त्रिलोचन जी ब्राहम्णों द्वारा बनाए गए भ्रमजालों की पोल पटटी खोल रहे हैं
5. इनकी आवाज को कमजोर करने के लिए उनके जीवन के साथ व्यर्थ और विरोधी कहानियाँ गड़ी जा सकती हैं।

अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
सर्प जोनि वलि वलि अउतरै ॥१॥
अरी बाई गोबिद नामु मति बीसरै ॥ रहाउ ॥
अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ॥२॥
अंति कालि जो लड़िके सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ॥३॥
अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥४॥
अंति कालि नाराइणु सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
बदति तिलोचनु ते नर मुकता पीत्मबरु वा के रिदै बसै ॥५॥२॥ अंग 526

अर्थः हे बहिन ! मेरे लिए अरदास कर कि मूझे कभी भी परमात्मा का नाम ना भूले और अंत समय में भी वो परमात्मा ही चेते यानि याद आए। जो मनुष्य मरते समय धन पदार्थ को याद करता है और इसी सोच में मर जाता है, वो बार-बार साँप की जूनी में जाता है।।1।। जो मनुष्य मरते समय अपनी स्त्री को या किसी स्त्री को ही याद करता है और इसी याद में वह प्राण त्याग देता है, तो वह बार-बार वेश्वा का जन्म लेता है।।2।। जो मनुष्य अंत समय में अपने पुत्रों की याद रखता है और पुत्रों को याद करते-करते ही मर जाता है, तो वह बार-बार सूअर की जूनी में जन्मता है।।3। जो मनुष्य आखिरी समय में अपने घर महल को याद रखता है और इसी याद में प्राण त्याग देता है तो वह बार-बार प्रेत बनता है।।4।। त्रिलोचन जी कहते हैं, जो मनुष्य अंत समय में परमात्मा को याद करता है और इस याद में टिका हुआ ही चोला त्यागता है यानि शरीर त्यागता है तो वो मनुष्य धन, स्त्री, पुत्र और घर आदि के मोह से आजाद हो जाता है और परमात्मा उसके दिल में आ बसता है।।5।।2।।

साधसंगत जी भक्त बाणी के विरोधी सज्जन ऊपर दिए दी गई बाणी के बारे में ऐतराज करते हैः
ऐतराज नम्बर (1) यहाँ पर पुरातन मत के लेखों के अनुसार कर्मों पर विचार है। ("अंतर मलि निरमलु नहीं कीना" वाला शबद)
ऐतराज नम्बर (2) भक्त त्रिलोचन जी कैसे कह रहे हैं कि इस तरह करने वाला इस जूनी में जाएगा। ("अंति कालि जो लछमी सिमरै" वाला शबद)

स्पष्टीकरणः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः साधसंगत जी आप "अंतर मलि निरमलु नहीं कीना वाला शबद" ध्यान से पढ़कर देखों उसमें कर्मों के बारे में कोई जिक्र नहीं है। सारे ही शबद में भेष का खंडन किया गया है और परमात्मा के साथ जान पहचान करने पर जोर दिया गया है और यह गुरमति और गुरू साहिबान जी के आशे से मिलता है और गुरमति के अनुरूप ही है।

ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः
भक्त बाणी के विरोधी के अनुसार भक्त जी यह कैसे कह रहे हैं कि इस प्रकार से करने वाला इस तरह की जूनी में जाएगा। तो साधसंगत जी हम आपको बता दें कि यह बात तो बहुत ही सीधी साधी है। शायद भक्त बाणी के विरोधी ने यह ध्यान नहीं दिया कि भक्त त्रिलोचन जी आप ब्राहम्ण जाति के थे और इस शबद के जरिए हिन्दू जाति के लोगों को शिक्षा दे रहे हैं, क्योंकि हिन्दू धर्म के पुराणों और शास्त्रों वाले ख्याल ही कुदरती तौर पर प्रचलित थे। जूनियों में पड़ने के बारे में जो ख्याल आम हिन्दू जनता में चले हुए थे, उन्हीं का हवाला देकर भक्त त्रिलोचन जी समझा रहे हैं कि सारी उम्र धन, स्त्री, पुत्र और महल आदि के धंधों में ही इतना मग्न ना रहो कि मरते समय भी ध्यान इन्हीं में टिका रहे। ग्रहस्थ जीवन की जिम्मेदारियाँ इस तरीके के साथ निभाओ कि किरत कमाई करते हुए भी "अरी बाई, गोबिन्द नामु मति बीसरै" ताकि अंत समय में मन धन, स्त्री, पुत्र और महल माड़ियाँ आदि में भटकने के स्थान पर प्रभू चरणों में जुड़े। इसलिए भक्त त्रिलोचन जी ने अपनी तरफ से कोई सोच नही रखी, बल्कि हिन्दू जनता में प्रचलित और चल रहे आम ख्यालों को उन्हीं के सामने रखकर उनको सही जीवन का रास्ता बता रहे है। लगता है कि भक्त बाणी के विरोधी ने जल्दबाजी में इस प्रकार का ऐतराज किया है। यह बात तो ठीक उसी प्रकार से है, जैसे मुस्लामानों को समझाने के लिए सतिगुरू श्री गुरू नानक देव जी ने नीचे लिखे सलोक के द्वारा उनमें प्रचलित ख्यालों का हवाला देकर परमात्मा के लेखों की बहियों का जिक्र किया है।
"नानक आखै रे मना, सुणीयै सिख सही।। लेखा रबु मंगेसीआ, बैठा कढि वही" ।।2।।13 सलोक महला 1, रामकली की वार महला 3 

निष्कर्षः
1. भक्त त्रिलोचन जी की बाणी गुरमति के अनुकुल है।
2. गुरू साहिबान जी के आशे पर खरी उतरती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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