5. भक्त जैदेव जी की बाणी की विरोधता
और स्पष्टीकरण
गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद
भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी
का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः
गूजरी स्री जैदेव जीउ का पदा घरु
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
परमादि पुरखमनोपिमं सति आदि भाव रतं ॥
परमदभुतं परक्रिति परं जदिचिंति सरब गतं ॥१॥
केवल राम नाम मनोरमं ॥ बदि अमृत तत मइअं ॥
न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं ॥१॥ रहाउ ॥
इछसि जमादि पराभयं जसु स्वसति सुक्रित क्रितं ॥
भव भूत भाव समब्यिअं परमं प्रसंनमिदं ॥२॥
लोभादि द्रिसटि पर ग्रिहं जदिबिधि आचरणं ॥
तजि सकल दुहक्रित दुरमती भजु चक्रधर सरणं ॥३॥
हरि भगत निज निहकेवला रिद करमणा बचसा ॥
जोगेन किं जगेन किं दानेन किं तपसा ॥४॥
गोबिंद गोबिंदेति जपि नर सकल सिधि पदं ॥
जैदेव आइउ तस सफुटं भव भूत सरब गतं ॥५॥१॥ अंग 526
अर्थः (हे भाई केवल परमात्मा का सुन्दर नाम सिमर, जो अमृत भरपूर
है, जो असलियत रूप है और जिसके सिमरन से जन्म-मरन, बुढ़ापा, चिंता, फिक्र और मौत का
डर आदि दुख नहीं होते ।।रहाउ। वो परमात्मा सबसे ऊँची हस्ती है, सबका मूल है, सबमें
व्यापक है, उस जैसा ओर कोई नहीं, उसमें सारे गुण मौजूद हैं। वो प्रभू बहुत असमरज
है, माया से परे है, उसका मुकंमल स्वरूप सोच मंडल में नहीं आ सकता और वह हर स्थान
पर मौजूद है।।1।। हे भाई ! अगर तूँ यमदूतों आदि को जीतना चाहता है, अगर तूँ शोभा और
सुख चाहता है तो लोभ आदि विकार छोड़ दे। पराऐ घर में झाँकना छोड़ दे और उस प्रभू की
शरण में जा, जो सभी प्रकार के विकारों का नाश करने में समर्थ है, वो सबसे ऊँची हस्ती
है और हमेशा प्रसन्न ही रहता है।2, 3।। परमात्मा के प्यारे भक्त मन, वचन और क्रम से
पवित्र होते हैं। भाव, भक्तों का मन पवित्र, बोल पवित्र और कार्य भी पवित्र होते
हैं, उनका योग आदि से क्या वास्ता ? उनको यज्ञ से क्या प्रयोजन ? उनको दान और तप से
क्या ? भाव, भक्त जानते हैं कि योग साधन, यज्ञ, दान और तप करने से काई आत्मिक लाभ
नहीं हो सकता, प्रभू की भक्ति ही असली करणी है।।4।। हे भाई गोबिन्द का भजन कर,
गोबिन्द को जप, वो ही सारी सिद्धियों का खजाना है। जैदेव भी ओर सभी आसरे छोड़कर उसी
परमात्मा की शरण में आया है, वो अब भी, पिछले समय भी और आगे भी हर स्थान पर मौजूद
है।।5।।1।)
नोटः भक्त बाणी के विरोधी इस शबद के बारे में लिखते हैं
कि इस शबद के अन्दर विष्णु की भक्ति का उपदेश है। साधसंगत जी लगता है कि विरोधी ने
यह अंदाजा ?चक्रधर? लफ्ज से लगाया है। पर आप बाकी के लफ्ज पढ़कर देखो। रहाउ, वाली
तुक में भक्त जी कहते हैं ?केवल राम नाम मनोरमं। बदि अमृत तत मइअं। और रहाउ की तुकों
में दिए गए ख्याल की ही व्याख्या सारे शबद में हुआ करती है। इसी राम नाम के लिए
भक्त जैदेव जी शबद के बाकी बंदों में लिखे लफ्ज प्रयोग करते हैः परमादि पुरख,
मनोपिम, परम अदभुत, परक्रिति पर, चक्रधर, हरि, गोबिन्द, सरब गत। इससे साफ होता है
कि भक्त जी सर्वव्यापक परमात्मा की भक्ति का उपदेश कर रहे हैं। साधसंगत जी आप इस
शबद के साथ श्री गुरू अरजन देव जी का शबद मिलाकर पढ़ोगे तो आप पाऐंगे कि यह रचना किसी
एक की है और एक जैसी ही हैः
गूजरी महला ५ घरु ४
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥
भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥
हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥
चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ ॥
काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥
जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥
जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥
छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥
सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥
दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥
मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥
रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥
धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥
खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥
जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥
जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥
देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥
अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥
२॥५७॥ अंग 508
भक्त जैदेउ जी का दुसरा शबदः
रागु मारू बाणी जैदेउ जीउ की
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
चंद सत भेदिआ नाद सत पूरिआ सूर सत खोड़सा दतु कीआ ॥
अबल बलु तोड़िआ अचल चलु थपिआ अघड़ु घड़िआ तहा अपिउ पीआ ॥१॥
मन आदि गुण आदि वखाणिआ ॥
तेरी दुबिधा द्रिसटि समानिआ ॥१॥ रहाउ ॥
अरधि कउ अरधिआ सरधि कउ सरधिआ सलल कउ सललि समानि आइआ ॥
बदति जैदेउ जैदेव कउ रमिआ ब्रह्मु निरबाणु लिव लीणु पाइआ ॥२॥१॥
अंग 1106
अर्थः (हे मन ! जगत के मूल प्रभू की सिफत सालाह करने से तेरा
मूर्खों वाला स्वभाव दूर हो गया है।।1।। रहाउ।। परमात्मा की सिफत सलाह यानि परमात्मा
की तारीफ के शब्दों में प्राणायाम के सारे उद्यम आ गए हैं। परमात्मा का नाम जपने से
उसकी सिफत सलाह करने से अन्य किसी प्रकार के कार्य या प्राणायाम की आवश्यकता रह ही
नहीं जाती। इस सिफत सलाक के सदके, जो मन विकारों और दुविधा में पड़ गया था उसका भी
बल टूट गया है और वह विकारों और दुविधाओं से बाहर आ गया है। अमोड़ मन का चंचल स्वभाव
रूक गया है, यह अल्हड़ मन अब सुन्दर घाड़त वाला हो गया है। यहाँ पहुँचकर इसने नाम
अमृत पी लिया है।।1।। जैदेव जी कहते हैं कि अगर अराधना योग्य प्रभू की अराधना करें,
अगर श्रद्धा योग्य प्रभू में सिदक रखें, विश्वास रखें तो उसके साथ एक रूप हो जाते
हैं, जैसे पानी के साथ पानी। जैदेव जी कहते हैं कि प्रभू का सिमरन करने से वासना
रहित प्रभू मिल जाता है।।2।।)
नोटः भक्त बाणी का विरोधी भक्त जैदेव जी की बाणी के बारे में
ऐसे लिखता हैः
भक्त बाणी का आशा गुरबाणी के आशे के उलट है। इस शबद में हठ योग का वर्णन है,
जबकि गुरमति हठ योग का खंडन करती है। इसमें प्रणायाम के बारे में बताया गया है।
स्पष्टीकरणः लगता है कि भक्त बाणी के विरोधी ने इस शबद
को ध्यान के साथ पढ़ा ही नहीं है। साधसंगत जी आप इस शबद के अर्थ तो देख ही चुके हैं।
अब पदअर्थ भी देख लें।
चंद सत भेदिआ
चंद = चन्द्रमा नाड़ी, बाईं नास की नाड़ी
सत = प्राण
भेदिआ = चढ़ा लिए (प्राण चढ़ा लिए)
सूर = दाईं सुर
नाद = सुखमना (प्राणायाम करते समय प्राण टिकाना या अटकाना)
पूरिआ = प्राण बाहर निकालना
साधसंगत जी अर्थ यह बनेगा कि परमात्मा की बरकत से ही बाईं सुर
में प्राण चढ़ भी गए हैं, सुखमना में अटकाए भी गए हैं और दाईं सुर के रास्ते सोलहा
(16) बार ओम कहकर उतर भी आए हैं। भाव प्राणायाम का सारा उद्यम केवल परमात्मा की
सिफत सलाह में ही आ जाता है। हमें प्राणायाम जैसे व्यर्थ कार्य करने की जरूरत ही नहीं
हैं।
नतीजाः अतः स्पष्ट होता है कि भक्त जैदेव जी की बाणी में केवल
और केवल परमात्मा की भक्ति का ही वर्णन है, इसलिए यह गुरमति के अनुकुल है और गुरू
साहिबानों के आशे के अनुसार ही है।