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4. भक्त परमानँद जी की बाणी की विरोधता और स्पष्टीकरण

गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः

तै नर किआ पुरानु सुनि कीना ॥
अनपावनी भगति नही उपजी भूखै दानु न दीना ॥१॥ रहाउ ॥
कामु न बिसरिओ क्रोधु न बिसरिओ लोभु न छूटिओ देवा ॥
पर निंदा मुख ते नही छूटी निफल भई सभ सेवा ॥१॥
बाट पारि घरु मूसि बिरानो पेटु भरै अप्राधी ॥
जिहि परलोक जाइ अपकीरति सोई अबिदिआ साधी ॥२॥
हिंसा तउ मन ते नही छूटी जीअ दइआ नही पाली ॥
परमानंद साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ॥३॥१॥६॥ अंग 1253

अर्थः (हे मनुष्य ! पुराणों (इतिहास) की कथा सुनकर तूने क्या किया ? यह कथा कहानियाँ सुनना नाशवान भक्ति है। अमर और सच्ची भक्ति तो तुझ में आई ही नहीं। केवल बातें करता रहा पर कभी किसी भूखे को कमाई में से दान नहीं दिया। लिंग वासना, क्रोध, लोभ और पराई निंदा तो छोड़ी ही नहीं, यही दीर्घ रोग हैं। हे पुरूष ! तूँ चोर रहा, ताले तोड़े, घरों में घुसकर वस्तुएँ चुराईं, इन कार्यों ने परलोक में तेरी निंदा और निरादरी करवाई। यह सभी कर्म तुम्हारे मूर्खों वाले थे। शिकार खेलना नहीं छोड़ा, जीवन हत्या करता रहा। कभी पक्षियों पर भी दया नहीं की। परमानंद जी कहते हैं कि यदि तूने सतसंगत में जाकर हरि जस नहीं सुना तो बता तेरा कल्याण कैसे होगा ?)

नोटः भक्त बाणी के विरोधी ने परमानंद जी और उनके इस शब्द के बारे में ऐसे लिखा हैः परमानंद जी कनैजी, कुबज ब्राहम्णों में से थे। आप स्वामी बल्भचार्य के चेले बने। इन्होंने वैष्णव मत को अच्छी तरक्की दी। आप अच्छे कवि भी थे। इन्होंने कृष्ण उपमा की काफी कविताएँ रची हैं। एक शबद राग सारंग में इनका मौजूद है, जो वैष्णव मत के बिल्कुल अनुकुल है, लेकिन गुरमति वैष्णव मत का जोरदार खंडन करती है, इसलिए यह शबद गुरमति के अनुकुल नहीं है। भक्त जी फरमाते हैः

हिंसा तउ मन ते नहीं छूटी जीअ दइआ नही पाली ।।
परमानन्द साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ।।

यह मर्यादा वैष्णव और जैन मत वालों की है, गुरमति इस सिद्धाँत का खण्डन करती है। सिक्ख धर्म जीव हिंसा या अहिंसा का प्रचारक नहीं है, गुरू का मत राज जोग है, खड़कधारी होना सिक्ख का धर्म है। जीव अहिंसा वैष्णवों, जैनियों और बोधियों के धार्मिक नेम हैं।

साधसंगत की अब इसका सही स्पष्टीकरण भी देख लेः
भक्त बाणी के विरोधी ने केवल शबद का उतना ही हिस्सा लिया है, जिससे पाठक को भुलेखा हो सके। यहाँ पर विरोध करते समय विरोधी बहुत बड़ी गल्ती कर गया है। क्या सिर्फ एक ही तुक लेनी थी ? क्या दूसरी तुक उनकी मदद नहीं करती। उन्होंने लफ्ज़ ''हिंसा'' और ''जीव दया'' का अर्थ करने में बहुत जल्दबाजी की है। सारे शबद को जरा ध्यानपूर्वक पढ़ें। भक्त परमानंद जी कहते हैं कि जो परमात्मा और परमात्मा के पैदा किए हुए जीवों के साथ प्यार नहीं बना तो धर्म पुस्तक पढ़ने का कोई लाभ नहीं। सारे शबद में इसी प्रकार समझाया गया है और यह गुरमति के अनुकुल है और गुरू साहिबानों के आशे के अनुसार ही है।

यहाँ पर लफ्ज़ ''हिंसा'' का अर्थ हैः ''नित दया'' और ''जीव दया'' का अर्थ हैः ''खलकत से प्यार'' (खलकत यानि सारे जीव)। यह लफ्ज़ तो श्री गुरू नानक देव साहिब जी और श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने भी बाणी में प्रयोग किए हैः

(1) हंसु हेतु लोभु क्रोधु, चारे नदीआ अगि ।। पवहि दझहि नानका, तरीऐ करमी लगि ।।2।।20।।....महला 1, माझ की वार (हंसु = हिंसा, निरदयता)
(2) मनि संतोख सरब जीअ दइआ ।। इन बिधि बरत संपूरन भइआ ।।11।। महला 5, थिति गउड़ी (जीअ दइआ = खलकत से यानि जीवों से प्यार)।

निष्कर्षः
अतः भक्त बाणी के विरोधी द्वारा की गई छिंटाकशी का कोई अर्थ नहीं निकलता, वो तो केवल साधसंगत जी के भटकाने और भूलेखे में डालने के लिए अपनी किताब में विरोध कर रहे हैं, किन्तु साधसंगत जी आप समझदार हैं और आपने भक्त परमानंद जी की ऊपर दी गई बाणी और उसके अर्थ और साथ में भक्त बाणी के विरोधी ने जो विरोध किया, उसका सही और सटीक स्पष्टीकरण भी देख लिया है। यह बाणी गुरमति के अनुकुल है और गुरमति का ही प्रचार करती है और गुरू साहिबानों के आशे से भी मिलती है।
वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतह।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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