3. भक्त सैन जी की बाणी की विरोधता और
स्पष्टीकरण
गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद
भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी
का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः
धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥
वारने जाउ कमला पती ॥१॥
मंगला हरि मंगला ॥
नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ ॥
ऊतमु दीअरा निर्मल बाती ॥
तुहीं निरंजनु कमला पाती ॥२॥
रामा भगति रामानंदु जानै ॥
पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥
मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥
सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥ अंग 695
अर्थः (हे माया के मालिक प्रभु ! मैं आपके सदके जाता हूँ। तेरे
पर वारी जाना बलिहारी जाना और सदके जाना ही दीये में घी या तेल डालकर तेरी आरती करने
के बराबर है। हे हरी ! हे राजन ! हे राम ! तेरी मेहर से मेरे अन्दर सदा तेरे नाम का
सिमरन और आनंद मंगल हो रहा है। हे कमलापती ! तूँ निरंजन ही मेरे लिए आरती करने के
लिए सुन्दर अच्छा दीवा और साफ सुथरी वट है। जो मनुष्य सरब व्यापक परम आनंद रूप प्रभु
के गुण गाता है, वह प्रभु की भक्ति की बरकत से उसके मिलाप का आनंद प्राप्त करता है।
सैन जी कहते हैं कि हे मेरे मन ! उस परम आनंद परमात्मा का सिमरन कर, जो सुन्दर
स्वरूप वाला है, जो सँसार के डरों से पार लँघाने वाला है और जो सारी सृष्टि की सार
लेने वाला है।)
अति महत्वपूर्ण नोटः इस शब्द को गुरमति के उलट समझने का
भुलेखा डालकर कुछ विरोधी सज्जन जी ने इस बारे ऐसे लिखा हैः "उक्त बाणी द्वारा भक्त
जी ने अपने गुरू गोसाईं रामानंद जी के आगे आरती उतारी है क्योंकि मदन मूरति विष्णु
जी हैं और भक्त जी पक्के वैष्णव थे। परन्तु गुरमति अन्दर "गगन मै थालु" वाले शब्द
में भक्त जी वाली आरती का खण्डन है। दीवे सजाकर आरती करने वाले महा अज्ञानी बताए गए
हैं। साथ में यह भी हुक्म है कि "किसन बिसन कबहूं न धिआऊ"। इस प्रकार से यह साबित
हुआ कि भक्त सैन की बाणी गुरू आशे के पूरी तरह विरूद्ध है"। इस बाणी को गुरमति के
विरूद्ध बताने वाले विरोधी सज्जन ने भक्त जी के बारे में तीन बातें बताई हैः
ऐतराज नम्बर (1): इस शब्द के जरिए भक्त सैन जी ने अपने
गुरू रामानंद जी की आरती उतारी है।
ऐतराज नम्बर (2): भक्त सैन जी पक्के वैष्णव थे।
ऐतराज नम्बर (3): दीये सजाकर आरती करने वाला महा अज्ञानी है।
सही स्पष्टीकरणः परन्तु "अचरज" वाली और "हैरानी" वाली
बात यह है कि इस शब्द (बाणी) में इन तीनों लक्ष्णों में से एक भी नहीं मिलता।
साधसंगत जी आईऐ इसे विचार करके देखते हैः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः जिसकी वह उसतति कर रहे
हैं, उसके लिए भक्त सैन जी ने यह लफ्ज़ प्रयोग किए हैः 'कमलापती', 'हरि', 'राजा राम',
'निरंजन', 'पूरन', 'परमानंद', 'मदन मूरति', 'भै तारि', और 'गोबिंद'। इन लफ्ज़ों में
सैन जी के गुरू यानि रामानंद जी का कोई जिक्र नहीं है। ऐसे लगता की शक करने वाले
सज्जन शब्द के तीसरे बंद में प्रयोग किए गए लफ्ज़ "रामानंद" के कारण गलती खा गए हैं।
यह तुक हैः "राम भगति रामानंदु जानै ।। पूरन परमानंदु बखानै" ।।3।। और इसका अर्थ
हैः जो मनुष्य सर्वव्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभु के गुण गाता है, वो प्रभु की भक्ति
की बरकत से उस राम के मिलाप का आनंद प्राप्त करता है। यहाँ पर रामानंद = (राम +
आनंद) = परमात्मा के मेल का आनंद।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः लफ्ज़ "मदन मूरति" के
प्रयोग करने पर विरोधी सज्जन उन्हें वैष्णव समझने की गल्ती कर रहे हैं। लफ्ज़ "मदन"
का अर्थ हैः खुशी और हुलारा पैदा करने वाला।
ऐतराज नम्बर (3) का स्पष्टीकरणः शब्द के बंद नम्बर 1 और
2 से भक्त सैन जी को दीये सजाकर आरती करने वाला समझा गया है, पर वो तो कहते हैं कि
हे कमलापती ! हे माया के मालिक प्रभु ! मैं आपके सदके जाता हूँ। तेरे पर वारी जाना
बलिहारी जाना और सदके जाना ही दीये में घी या तेल डालकर तेरी आरती करने के बराबर
है। मेरे लिए तो परमात्मा पर सदके जाना और उसकी तारीफ करना ही दीवा है, तेल है और
आरती है।
निष्कर्षः अतः इस शब्द (बाणी) से यह साबित नहीं होता कि
भक्त सैन जी की रचना गुरू आशे के विरूद्ध है। इसलिए यह रचना गुरू आशे के अनुसार ही
है। किन्तु हमें यह समझ नहीं आता कि जब गुरबाणी की एडिटिंग स्वयं गुरू साहिब जी ने
की थी, तो क्या ऐसे विरोधी अपना दिमाग किसी को किराए पर दे आए हैं, जो बिना बाणी को
समझे, अपनी मनमुखी बुद्धि चला रहे हैं, बेवकूफ कहीं के।