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10. भक्त पीपा जी की बाणी की विरोधता और स्पष्टीकरण

गुरू रूप साधसंगत जी यहाँ पर भक्त जी की बाणी और उसके अर्थ दिए गए हैं। इसके बाद भक्त बाणी के विरोधी द्वारा प्रकट किए गए ऐतराज और उनका सही स्पष्टीकरण देकर विरोधी का मुँहतोड़ जबाब दिया गया हैः

कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ।।
काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजहु पाती ।।
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ।। रहाउ ।।
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ।।
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरू होइ लखावै ।। अंग 695

अर्थ: (यह तन प्रभु हरि है। इसी को उसका घर और साधुओं की सम्पदा समझो। जो भी पूजा की सामाग्री, धूप, दीप, भेटा, प्रसाद, फूल आदि हैं वह सब शरीर के पास हैं। इनसे पूजा कैसे हो सकती है। जिस चीज को देशों में खोजते फिरते हैं, वह इस तन के अंदर ही है। जो कुछ दृष्टमान ब्रहमाण्ड में है वह शरीर के भीतर है। यदि कोई खोजे तो मिल जाता है। पीपा जी की प्रार्थना है कि परमात्मा जी इस जगत का मूल है। स्वयँ ही गुरू बनकर अपनी सच्चाई आप हमें बताता है। हे जिज्ञासु जनों ! हरि भक्ति में लीन हो जाओ। कलयुग में जीवन कल्याण का केवल यही एक सच्चा साधन है। अन्य सभी पाखंडों का त्याग करो।)

महत्वपूर्ण नोटः साधसंगत जी भक्त बाणी का विरोधी इस बाणी के बारे में ऐतराज प्रकट करता है, जो कि कुछ इस प्रकार से हैः
ऐतराज नम्बर (1) इस शबद में वेदांत मत का प्रचार है, भक्त पीपा जी काया में परमात्मा मानते हैं। यह ?मैं? ब्रहम हूँ का सिद्धान्त है।
ऐतराज नम्बर (2) इस शबद में प्रेम भक्ति बिल्कुल नहीं है।

साधसंगत जी आइऐ अब इन ऐतराजों का सही स्पष्टीकरण भी देख लें।
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः
ऐतराज करने वाले विरोधी ने यहाँ पर वेदान्त मत बताया है। पर बाणी में तो भक्त जी ने अपने परमात्मा के बारे में तीन बातें साफ रूप में कही हैं। (जो ब्रहमंडे सोई पिंडे) पहलीः परमात्मा शरीर में बसता है। दूसरीः शरीर के साथ-साथ पूरी सृष्टि में बसता है। और (परम ततु) तीसरीः परम ततु यानि सारी सृष्टि की रचना का मूल कारण है, वह ब्रहमाण्ड में केवल बसता ही नहीं है, ब्रहमाण्ड को बनाने वाला भी है। साधसंगत जी लगता है कि भक्त बाणी का विरोधी कुछ ज्यादा ही जल्दी में है और उसने पूरे शबद को सही तरीके से ना तो पढ़ा है और ना ही इसे विचारा है। अतः साधसंगत जी यहाँ पर स्पष्ट होता है कि परमात्मा कण-कण में व्याप्त होने के साथ-साथ हमारे घट में, हमारे शरीर में भी होता है और उसे केवल जप के यानि सिमरन करके ही पाया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि यदि परमात्मा हमारे शरीर में ही होता है ? तो फिर उसका नाम जपने की क्या आवश्यकता है ? तो इसका सीधा और साफ उत्तर यही है कि जिस प्रकार किसी दर्पण (आईना, शीशे) पर धूल जमी हो तो आप उसमें अपना चेहरा साफ तरीके से नहीं देख सकते। आपको उस दर्पण या आईने को साफ करना होगा। ठीक इसी प्रकार से हमारे मन में कई जन्मों की मैल जमा है यानि कई जन्मों के पाप आदि हैं और इन पापों, कर्मों और मैल को धोने के लिए परमात्मा के नाम रूपी जल से धोना होता है, तभी मन साफ और निरमल होता है। और जब मन नाम जपकर साफ हो जाता है तो फिर उस सर्वशक्तिमान परमात्मा से मिलन हो जाता है।

ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः भक्त बाणी के विरोधी ने कहा है कि इस बाणी में प्रेम भक्ति का प्रकटाव बिल्कुल नहीं है। साधसंगत जी लगता है कि भक्त बाणी के विरोधी ने यह बात अपनी किताब में लिखने में जल्दबाजी कर दी है। जबकि साधसंगत जी आप ही शबद को देखें इसमें रहाउ वाली तुक में शबद का मुख्य भाव ही यह कहा है कि मन्दिर में जाकर मूर्ति पूजा करने के स्थान पर अपने शरीर के अन्दर राम की दुहाई मचा दो। इतनी तीव्र याद में जुड़ो कि किसी अन्य पूजा का विचार भी ना उठे, अन्दर राम नाम की लिव बन जाए। साधसंगत जी अब आप ही बताएं कि यहाँ पर प्रेम भक्ति नहीं तो ओर क्या है ? अतः भक्त बाणी के विरोधी का यह ऐतराज भी गल्त है।

निष्कर्ष या नतीजाः
1. भक्त पीपा जी की बाणी प्रेम भक्ति के परिपूर्ण है।
2. भक्त पीपा जी की बाणी गुरमति के अनुसार ही है।
3. भक्त पीपा जी की बाणी गुरू साहिबानों के आशे से मिलती है।
वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतह।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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