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8. समृद्वि के लिए गुरू चरणों में प्रार्थना 

श्री गुरू हरिराय जी के दरबार में स्थानीय सिक्ख प्रार्थना करने लगा, हे गुरूदेव मैं आपका सिक्ख हूँ, हमारे घर में कई पीढ़ियों से सिक्खी चली आ रही है। मैंने कुछ वर्ष पहले कीरतपुर में एक छोटी सी दुकान खोली थी, जो कि आपकी दया से बहुत सफल रही थी, किन्तु अब मै पिछले वर्ष से घाटे में जा रहा हूँ, कृप्या कोई उपाय बतायें, जिससे मेरे व्यापार में पुनः बरकत पड़ने लग जाए। उसका यह निवेदन सुनकर गुरूदेव जी मुस्करा दिये और बोले– मेरे प्यारे सिक्ख तुम्हें याद है, जब तुम इस नगर में आये थे तो तुम्हारे पास रहने को एक झोंपड़ी थी जो कि हमारे दरबार के निकट थी। अब तुमने एक पक्का मकान नगर के बाहर बना लिया है। उन दिनों तुम्हारी पत्नी अथवा बच्चे जब भी दर्शनों को आते थे तो अपने घर से कुछ न कुछ रसद लेकर दर्शन भेंट रूप में गुरू के लँगर में डालते रहते थे, अतः इस प्रकार तुम्हारे घर से तुम्हारी आय का दसवाँ भाग गुरू कोष में पहुँचता रहता था। जिससे तुम्हारे व्यवसाय में बरकत पड़ती रहती थी। किन्तु अब तुम्हारा घर दूर होने के कारण वह दर्शन भेंट रूप में रसद आनी बन्द हो गई है, जिस कारण तुम्हारे व्यवसाय में बरकत समाप्त हो गई है। यदि तुम चाहते हो कि फिर से तुम्हारी आर्थिक दशा में सुधार हो तो तुम्हें अपनी आय का दसवाँ हिस्सा गुरू के लँगर अथवा कोष में डालना ही चाहिए। ऐसा करने पर तुम्हारी उन्नति के सभी मार्ग खुल जाएँगे। सिक्ख ने गुरूदेव जी द्वारा बताई गई युक्ति को समझा और उस पर सदैव आचरण करने लगा, जिससे उसके व्यवसाय में दिन दोगुनी रात चौगुनी उन्नति होने लगी।  

नोट: हर "सिक्ख" को "गुरूद्वारें" में अपनी आय का "10 वां हिस्सा" दसवंत के रूप में देना चाहिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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