6. भाई जीवन जी
श्री गुरू रामदास जी के दरबार की बाबा आदम जी ने बहुत सेवा की। उनकी सेवा से
सन्तुष्ट होकर गुरूदेव जी ने उनकी इच्छा अनुसार आशीष दी कि आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण
हों। अतः वृद्ववस्था में उनके घर पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम उन्होंने गुरू की
आज्ञा अनुसार भगतू रखा। जब भगतू जी युवावस्था में आये तो वह गुरू अर्जुनदेव जी के
अनन्य सिक्खों में गिने जाने लगे। भाई भगतू जी ने श्री गुरू हरि गोबिन्द तथा श्री
हरि राय जी के समय में भी उसी प्रकार गुरू घर की सेवा जारी रखी। अब वह वृद्वावस्था
में पहुँच गये थे। किन्तु उनके दो पुत्र जीवन जी व गौरा जी अपने पिता जी की भान्ति
गुरू चरणों में समर्पित रहते थे। श्री गुरू हरिराय जी अपने भतीजे के विवाह पर
करतारपुर नगर गये हुए थे तो वहाँ एक ब्राह्मण के पुत्र की अक्स्मात् मृत्यु हो गई।
उसके माता पिता बहुत विलाप करने लगे। उनके विलाप को देखकर किसी व्यक्ति ने उनको बहका
दिया कि आपका पुत्र जीवित हो सकता है, यदि आप उसके शव को श्री गुरू हरिराय जी के
पास ले जाएं। इस ईष्यालु व्यक्ति का लक्ष्य गुरू जी के प्रताप को ठेस पहुँचाने का
था। वह चाहता था कि किसी प्रकार गुरू हरिराय जी असफल हों और फिर लोग उनकी खिल्ली
उड़ाएँ। जब यह शव गुरूदरबार लाया गया तो गुरूदेव जी ने कहा: कि "मृत्यु"
अथवा "जीवन", प्रभु के आदेश में बन्धे होते हैं, इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। यदि
कोई व्यक्ति इसे जीवित देखना चाहता है तो उसे अपने प्राणों की आहुति देनी होगी। गुरू
केवल प्राणों के बदले प्राण बदलवा सकता है। यह सुनकर सब शान्त हो गये। ईष्यालु
तत्त्व तो गुरूदेव जी को नीचा दिखाना चाहते थे किन्तु गुरू के सिक्ख यह कैसे सहन कर
सकते थे ? जब यह बात भाई जीवन जी ने सुनी। तो उन्होंने शरणागत की लाज रखने के लिए
गुरूदेव जी से कहा: कि मैं, उस लड़के के लिए अपने प्राण बलिदान करने को तैयार हूँ।
गुरूदेव जी ने कहा: कि भाई, आपकी जैसी इच्छा है, करें। इस पर भाई जीवन जी ने
एकान्तवास में जाकर मन एकाग्र करके आत्मज्ञान से शरीर त्याग गये, जिससे वह मृत
ब्राह्मण बालक जीवित हो गया। इस त्याग की गुरू जी ने बहुत प्रशँसा की और कहा: "भाई
जीवन जी" गुरू घर का मान रखने के लिए आत्म बलिदान दे गये हैं। वह इतिहास में अमर
रहेंगे।