5. बिहार ‘गया’ का सँन्यासी भगवान गिरि
महन्त भगवान गिरि, गया क्षेत्र के मुख्य आश्रम का सँचालक था। यह विष्णु भक्त एक बार
अपने मत का प्रचार करने अथवा तीर्थ यात्रा करने, देश घूमने को निकले। इनके साथ इनके
बहुत से शिष्य भी थे। रास्ते में इन्होंने कई स्थानों पर गुरू नानक देव जी और उनके
उत्तराधिकारियों की उपमा सुनी। इस पर उनके मन में विचार आया, क्यों न एक बार उनके
दर्शन ही कर लिये जायें। यदि वह वास्तव में पूर्ण पुरूष, प्रभु में अभेद हैं तो हमें
उनसे आत्मज्ञान मिल सकता है और हमारी जन्म जन्म की भटकन समाप्त हो सकती है। यह
जिज्ञासा लेकर भक्त गिरि जी कीरतपुर के लिए चल पड़े। जब उन्हें मालूम हुआ कि इस समय
गुरू नानक की गद्दी पर एक किशोर अवस्था का बालक विराजमान है, जिसका नाम हरिराय जी
है तो उनके मन में एक अभिलाषा ने जन्म लिया तथा वह विचारने लगे यदि यह युवक कलावान
है तो मुझे मेरे इष्ट के रूप में दर्शन देकर कृतार्थ करें। आखिर आप कीरतपुर गुरू
दरबार में अपने शिषयों के साथ मन में एक सँकल्प लेकर पहुँच ही गये। आप जैसे ही
गुरूदेव के सम्मुख हुए, आपको आसन पर अपनी कल्पना के अनुरूप गुरूदेव चतुर्भुज रूप
धारण किये विष्णु दिखाई दिये। यह दिव्य आभा देखकर आप नतमस्तक होकर बार बार प्रणाम
करने लगे। तभी आप ध्यानग्रस्त हो गये। जब आपका घ्यान भँग हुआ तो आपने श्री गुरू
हरिराय जी को उनके वास्तविक स्वरूप में देखा। उस समय आपने उनके चरण पकड़ लिये और कहा–
मैं भटक रहा हूँ, मुझे शाश्वत ज्ञान देकर कृतार्थ करें। गुरूदेव ने उन्हें साँत्वना दी और कहा– आपकी अवश्य ही मनोकामना
पूर्ण होगी किन्तु आप तो सँन्यासी हैं। अतः आप हमारे वैरागी सम्प्रदाय बाबा
श्रीचन्द जी की गद्दी पर विराजमान श्री मेहरचन्द जी के पास जायें। वह आपको गुरू
दीक्षा देंगे। आज्ञा मानकर भक्त भगवान गिरि जी श्री मेहरचन्द जी के पास जा पहुँचे।
उन्हें प्रणाम करके आपने मन की तृष्णा और गुरू आज्ञा बताई। महन्त मेहरचन्द जी ने
उनके आने का प्रयोजन समझा और अपने यहाँ के सेवा कार्यों में उनको व्यस्त कर दिया
किन्तु जल्दी ही भगवान गिरि जी ने महन्त मेहरचन्द जी को अपने विषय में बताना शुरू
किया कि गया नगर में उनका एक बहुत बड़ा आश्रम है जिसके वह महन्त हैं और इस सम्प्रदाय
के 360 के लगभग अन्य शाखायें हैं जो देशभर में फैली हुई हैं। इस प्रकार हमारे हजारों
की गिनती में शिष्य हैं। मेहरचन्द जी उनके मुख से स्वयँ की बड़ाई सुनकर हंस पड़े और
कहने लगे, भक्त भगवान गिरि जी ! अभी आपके हृदय से अभिमान की बू है कि मैं एक साधू
मण्डली का मुखिया हूँ। यह मोह जाल और अहँभाव ने आपको भटकने के लिए विवश किया है, नहीं
तो आप ठीक स्थान पर पहुँच ही गये थे। मैं भी सोच रहा था कि क्या कारण हो सकता है कि
आप समुद्र से प्यासे रह कर कुएँ के पास आ गये हैं ? यदि आप शाश्वत ज्ञान चाहते हैं
तो मन से बड़पन का बोझा उतार फैंके और विनम्र होकर फिर से श्री गुरू हरिरायजी के चरणों
में लौट जाएं क्योंकि वही पूर्ण गुरू हैं। भक्त भगवान गिरि को एक झटका लगा उसने अनुभव किया कि उसमें
सूक्ष्म अहँभाव तो है और इसी प्रकार सूक्ष्म माया की पकड़ भी है, जो छूटती ही नहीं।
वह मेहरचन्द जी के सुझाव पर पुनः गुरूदेव के समक्ष उपस्थित हुआ। अब वह सच्चे हृदय
से शिष्य बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने सँन्यासी होने का आडम्बर उतार फैंका जो
कि गुरू शिष्य में बाधक बन रहा था। यही बात उसने अपने सभी मित्रों से कही कि यदि वह
गुरूदेव से दीक्षा लेकर नवजीवन चाहते हैं तो वे भी सच्चे मन से सँन्यासी होने का
बोझा उतार दें और मेरे साथ गुरू चरणों में समर्पित होने चलें। इस बार भक्त भगवान
गिरि ने गुरू चरण पकड़ लिये और रूदन करने लगे कि हमें स्वीकार कर लो। इस प्रकार
उन्होंने अपने नेत्रों के जल से गुरू चरण धो डाले। गुरूदेव ने उनकी सच्ची भावना
देखकर उन्हें गले लगा लिया और गुरू दीक्षा में नाम दान दिया जिससे उन्हें दिव्य
ज्योति से साक्षात्कार में देरी नहीं लगी और वह आत्म रँग में रँगे गये। इस प्रकार
गुरू चरणों में कुछ दिन व्यतीत करने पर उन्होंने घर लौटने की आज्ञा मिल गई। किन्तु
गुरूदेव जी ने उन्हें कहा कि आप अब अपने क्षेत्र में समाज सेवा में लग जायें और गुरू
नानक साहिब के सिद्धान्तों का प्रचार करें।