4. युवराज दारा शिकोह का कीरतपुर आगमन
श्री गुरू हरिराय जी ने कीरतपुर नगर में एक विशाल आर्युवैदिक औषधालय खोल रखा था,
जिसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी। गुरूदेव जी जहाँ आध्यात्मिक उन्नति के लिए
ज्ञान प्रदान करते थे वहीं शारीरिक रोगों से भी छुटकारा प्राप्त करने के लिए
जनसाधारण को औषधियाँ वितरण करते थे। आपने उस समय के विख्यात वैद्य अपने पास रखे हुए
थे जो कि विशेष प्रकार की औषधियों का निर्माण करते थे जो असाधय रोगों के काम आती
थीं। सम्राट शाहजहाँ के चार पुत्र थे। वह अपने बड़े पुत्र दारा शिकोह को बहुत चाहता
था, क्योंकि वह हर दृष्टि से योग्य था किन्तु औरँगजेब इस चाहत को पसन्द नहीं करता
था। वह कपटी था। अतः उसने दारा शिकोह को भोजन में एक विशेष प्रकार का विष दे दिया।
जिससे दारा शिकोह के पेट में हर समय पीड़ा रहने लगी। राजकीय वैद्यों ने बहुत उपचार
किया किन्तु रोग जड़ से नहीं गया। वैद्यों के विचार से उस रोग की विशेष प्रकार की
औषधि कीरतपुर श्री गुरू हरिराय जी के औषधालय में ही उपलब्ध थी। सम्राट शाहजहान
दुविधा में पड़ गया। वह विचारने लगा कि मैं सम्राट हूँ, फकीरों के यहाँ से कोई वस्तु
माँगते हुए मुझे लाज आती है। इसके अतिरिक्त पिछले लम्बे समय से दोनों पक्षों के
सम्बन्ध में बहुत कड़वाहट रही थी क्योंकि शाही सेना ने उनके दादा श्री हरिगोबिन्द जी
पर चार आक्रमण किये थे। इस पर वहाँ उपस्थित पीर हसन अली और शेख अबूगँगोही ने कहा–
वह तो गुरू नानक का घर है वहाँ से माँगने में शर्म कैसी ? फिर वह पीर लोग हैं, किसी के लिए भी हृदय में मैल नहीं रखते।
सम्राट ने पीर हसन का कहा मानकर गुरू हरिराय जी को एक विनम्र पत्र लिखा और माँग की,
कि आप जी मेरे दूतों को अमुक दवा देने की कृपा करें। गुरूदेव को जब शाही दूत के आने
का प्रयोजन का पता चला तो उन्होंने उनका हार्दिक स्वागत किया। वे गुरू घर की शान
देखकर बहुत प्रभावित हुए। गुरू के लँगर का वैभव देखकर तो वे सन्तुष्ट हो गये।
गुरूदेव जी ने अपने वैद्यों को बुलाकर विशेष औषधियाँ देने के आदेश दिये। दूत वापस
लौट गये। जब युवराज दारा शिकोह ने उन औषधियों का सेवन किया तो वह कुछ ही दिनों में
स्वस्थ हो गया। इस घटना का दाराशिकोह के हृदय पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। वह
पीर-फकीरों का बहुत आदर करता था। उसने एक विशेष कार्यक्रम बनाकर गुरूदेव से मिलने
का निश्चय किया। सम्राट शाहजहाँ ने उसे पँजाब का राज्यपाल नियुक्त कर दिया था,
इसलिए दिल्ली से लाहौर जाते समय वह गुरूदेव का धन्यवाद करने बहुत से उपहार लेकर श्री
कीरतपुर साहिब जी पहुँचा। गुरूदेव जी ने युवराज का भव्य स्वागत किया और उससे बहुत
से विषयों पर आध्यात्मिक विचारविमर्श हुआ। दाराशिकोह बहुत उदारवादी व्यक्तित्त्व का
स्वामी था, अतः उसे गुरूदेव के उपदेश बहुत अच्छे लगे।