20. श्री गुरू हरिराय साहिब जी का
ज्योति-ज्योत समाना
श्री गुरू हरिराय की आयु केवल 31 वर्ष आठ माह की ही थी तो उन्होंने अनुभव किया कि
उनकी श्वासों की पूँजी समाप्त होने वाली है। अतः उन्होंने श्री गुरू नानक देव साहिब
जी की गद्दी के अगले उत्तराधिकारी की घोषणा मन बना लिया। यूँ तो उनका बड़ा पुत्र
योग्य था और उसका अधिकार भी बनता था किन्तु उसकी भूल ने उसे गुरू गद्दी के लायक नहीं
रहने दिया। उनकी दृष्टि श्री हरिकृष्ण जी पर टिकी हुई थी। भले ही वह अभी अल्पायु के
बालक दृष्टिगोचर होते थे किन्तु सात्विक ज्ञान की दृष्टि से वह पूर्ण थे, उनकी
अलौकिक आभा इस बात का सबूत थी। ऐसा जान पड़ता था कि ईश्वर ने उन्हें किसी विशेष
उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही श्री गुरू हरिराय साहिब जी के घर जन्म देकर भेजा है।
श्री गुरू हरिराय साहिब जी ने दृढ़ता से निर्णय लिया और घोषणा की कि श्री हरिकृष्ण
जी सिक्खों के अष्टम गुरू होंगे। इस घोषणा से उनके अनुयायियों को बहुत प्रसन्नता
हुई। सिर्फ एक ही ऐसा व्यक्ति था जिसे गुरू जी का निश्चय पसन्द नहीं आया, वह था
रामराय, किन्तु वह जानता था कि गुरू गद्दी कोई धरोहर वस्तु नहीं जिस पर कोई वारिस
हक का दावा कर सके। इस प्रकार श्री गुरू हरिराय जी ने अपने छोटे पुत्र जिनकी आयु उस
समय 5 वर्ष के लगभग थी, को विधिवत गुरू गद्दी पर प्रतिष्ठित कर दिया। गुरूदेव,
हरिकृष्ण जी को गद्दी सौंपने के पश्चात् संवत 1718 को 7 कार्तिक रविवार तदानुसार 20
अक्तूबर 1661 को उनकी ज्योति परमज्योति में जा समाई।