18. औरँगजेब के कट्टरवाद का विरोध
औरँगजेब ने दिल्ली के चाँदनी चौक पर सार्वजनिक रूप में दारा शिकोह की हत्या कर दी
और उसका सिर एक थाली में ढककर ईद मुबारिक वाले दिन पिता शाहजहाँ को भेजा। अब
औरँगजेब निश्चिंत था। तख्त के शेष दावेदार समाप्त हो चुके थे। विद्रोह कुचल दिया गया
था। औरँगजेब के बारे में प्रसिद्ध है कि वह कट्टर मुसलमान था। अपने धर्म के प्रति
आस्था रखना निश्चय ही अच्छी बात है, कट्टर होना भी कुछ हद तक जायज माना जा सकता है,
परन्तु अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति घृणा करना, शत्रुता की भावना रखना निश्चय ही
अक्षम्य कार्य है और फिर शासक होकर धार्मिक पक्षपात करना तो अत्यन्त अनुचित है।
सम्राट औरँगजेब ने यही अपराध किया। देश के सर्वोत्तम पद पर आसीन होने के कारण उसे
जहां सबके प्रति एक ही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था, वहीं उसने हिन्दू जनता को दूसरी
श्रेणी का नागरिक बना डाला। उसने अपने दरबार में बड़े बड़े ओहदों पर तैनात हिन्दू
अधिकारियों को हटा दिया और उनके स्थान पर मुसलमानों की नियुक्तियाँ कर दीं। इतना ही
नहीं, हिन्दुओं पर कई नये कठोर कानून लागू कर दिये। औरँगजेब ने अनेक हिन्दुओं को
बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया, इन्कार करने पर उन्हें बन्दीगृह
में डाल दिया जाता अथवा मृत्युदण्ड दिया जाता। मथुरा, काशी आदि हिन्दुओं के धार्मिक
नगरों में औरँगजेब के सैनिकों ने कई मन्दिर धवस्त कर दिये और नवनिर्माण रूकवा दिया।
ऐसा जान पड़ता था कि इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों के अनुयायियों को औरँगजेब जड़ से
मिटा देना चाहता है। इसी समय औरँगजेब की कुदृष्टि सिक्ख धर्म पर भी पड़ी। श्री गुरू
हरिराय जी के समय सिक्ख सिद्धान्त भारत की चारों दिशाओं में विकास की गति पर थे।
श्री गुरू नानक देव साहिब जी के उपदेशों और उनकी बाणियों की धूम मची हुई थी।
जनसाधारण बड़ी सँख्या में सिक्ख आचरण की रीतियाँ अपना रहे थे। ईष्यालु लोग इन बातों
से पहले ही खफा थे, अब तो औरँगजेब का शासनकाल था। अतः उनकी बन आई थी। सिक्ख गुरूजनों
और सिक्ख आन्दोलन की बढ़ती लोकप्रियता से चिढ़े हुए लोग औरँगजेब के पास पहुँचे और खूब
नमक मिर्च मिलाकर सिक्ख धर्म तथा गुरू हरिराय जी के विरूद्व जहर उगल दिया। इसके
अतिरिक्त उन्होंने बताया कि तुम्हारा भाई दारा शिकोह गुरू हरिराय जी से मिला था
उन्होंने उसे दिल्ली का तख्त दिलवाने का आश्वासन दिया था और उन्होंने उसे लाहौर
भागने का पूरा अवसर प्रदान किया। शायद इसी कारण ब्यासा नदी की सभी नौकाओं पर उनका
नियन्त्रण था। औरँगजेब बहुत जालिम प्रवृति का मनुष्य था जैसे ही उसे गुरू हरिराय का
आचरण अपने प्रति सन्देहास्पद लगा। उसने गुरूदेव को बगावत के आरोप में गिरफतार करने
का मन बना लिया। इससे पहले की वह गुरूदेव को सेना भेजकर गिरफतार करे।
उसने एक पत्र गुरूदेव को उनकी खिल्ली उड़ाने के विचार से लिखा:
आपने मेरे भाई को दिल्ली का तख्त दिलवाने का वायदा किया था, जबकि मैंने उसे
मृत्युदण्ड दे दिया है। अतः आप झूठे गुरू हुए, जो अपना वायदा पूरा नहीं कर सके। इस
पत्र के उत्तर में श्री हरिराय जी ने लिखा: हमने तो दारा शिकोह को कहा था कि हम तुझे
सत्ता वापिस दिलवा देते हैं किन्तु वह अचल राज्य सिँहासन चाहता था। अतः हमने उसकी
इच्छा अनुसार वही उसे दे दिया है। यदि तुम्हें हमारी बात पर भरोसा न होतो रात को
सोते समय तुम दारा शिकोह का ध्यान धरकर सोना, तो वह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो जाएगा।
पत्र मिलने पर औरंगजेब ने ऐसा ही किया। स्वप्न में औरंगजेब ने देखा कि एक अद्भुत
सजावट वाला दरबार सजा हुआ है, जिसमें बहुत से ओहदेदार शाही पोशाक में दारा शिकोह का
स्वागत कर रहे हैं। फिर उसने अपनी ओर देखा तो उसके हाथ में झाड़ू है, जिससे सजे हुए
दरबार के बाहर सफाई कर रहा है, इतने में एक सँतरी आता है और उसे लात मारकर कहता है
कि यह तेरी सफाई का समय है, देखता नहीं कि महाराजा दारा शिकोह का दरबार सज चुका है।
लात पड़ने की पीड़ा ने औरँगजेब की निद्रा भँग कर दी और उसको बहुत कष्ट हो रहा था। बाकी
की रात औरँगजेब ने बहुत बेचैनी से काटी।
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1. सुबह होते ही उसने एक "विशाल सैन्य बल" "श्री गुरू
हरिराय जी" को गिरफतार करने के लिए जालिम खान के नेतृत्त्व मे भेजा। जालिम खान
अभी रास्ते में ही था कि हैजे का रोग फैल गया, बहुत से जवान हैजे की भेंट चढ़ गये।
जालिम खान भी हैजे से न बच सका और रास्ते में ही मारा गया। इस प्रकार यह अभियान
विफल हो गया और सेना वापिस लौट गई।
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2. कुछ दिन के पश्चात् औरँगजेब ने कँधार के वरिष्ठ सैनिक
अधिकारी दूँदे के नेतृत्त्व में सेना भेजी, किन्तु मार्ग में ही सैनिक टुकड़ियों
में वेतन के विभाजन को लेकर आपस में ठन गई, इस तूँ-तूँ मैं-मैं में जरनैल दूँदे
मारा गया। सेना फिर बिना नेतृत्त्व के वापिस लौट गई।
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3. तीसरी बार औरँगजेब ने बहुत "सख्त तैयारी के पश्चात्"
सहारनपुर के नाहर खान को कीरतपुर इत्यादि गुरू की नगरी ध्वस्त करने का आदेश
देकर भेजा। जब यह सेना यमुना नदी पार करने के लिए शिविर लगा कर बैठी थी तो तभी
बाढ़ आ गई, जिस कारण अधिकाँश सैनिक बह गये। जो शेष बचे थे, वे जान गये कि यह सब
गुरू के कोप के कारण ही हो रहा है, अतः वे जान बचाकर भाग खड़े हुए।
तीनों आक्रमणों की विफलता के पश्चात् औरँगजेब ने कूटनीति का
सहारा लिया। उसने गुरूदेव जी को एक पत्र लिखा कि जिसकी ईबारत थी बहुत मीठी, किन्तु
छलपूर्ण थी। उसने गुरूदेव को लिखा कि हमारे पूर्वजों के सम्बन्ध बहुत मधुर रहे हैं,
मैं चाहता हूँ कि अभी जो गलतफहमी पैदा हो गई है, उनका निवारण करने के लिए हम आपस
में विचारविमर्श से समाधान कर लें। अतः आप हमें दर्शन देकर कृतार्थ करें, जिससे
विचार गोष्टि हो सके। यह पत्र लेकर शाही अधिकारी कीरतपुर पहुँचे। श्री गुरू हरिराय
जी ने उनकी सभी बातें शान्तचित्त होकर सुनी। बादशाह का व्यक्तिगत निवेदन भी गौर से
सुना। फिर फरमाया, ऐसे बादशाह के पास जाने का कोई लाभ नहीं, जो केवल छलकपट की
राजनीति ही करता है। उसने अपने पिता व भाइयों को भी नहीं बख्शा, उन्हें भी छलकपट से
खा गया है। अतः हम औरँगजेब से मिलने नहीं जायेंगे। गुरूदेव का ऐसा दो टूक उत्तर
सुनकर शाही अधिकारी सकते में आ गये। वे बोले– ठीक है, आप नहीं चल सकते तो अपने किसी
प्रतिनिधि को भेज दीजिए।