17. दारा शिकोह और सत्ता परिवर्तन
सन् 1658 ईस्वी का समय था, उन दिनों सम्राट शाहजहाँ बहुत सख्त बीमार रहने लगा। वह
वृधावस्था में थे। इस कारण देश का शासन सँचालन करने में वह असमर्थ हो गये थे।
सम्राट के चार पुत्र थे। उनके नाम क्रमशः दाराशिकोह, शुजाह मुहम्मद, औरँगजेब और
मुरादबख्श। सम्राट ने सभी को अलग अलग प्रान्तो के राज्यपाल नियुक्त कर दिया था
परन्तु इन सभी के हृदय में पूरे देश का सम्राट बनने की इच्छा थी। दारा शिकोह सम्राट
का बड़ा और योग्य पुत्र था, इसलिए वह चाहता था कि उनके बाद दिल्ली का तख्त शाहजादे
दारा शिकोह को ही मिले। परन्तु ऐसा होना सरल नहीं था क्योंकि सत्ता प्राप्ति की होड़
में औरँगजेब सबसे आगे था। औरँगजेब सम्राट बनने के लिए कुछ भी कर सकता है। यह बात
सम्राट शाहजहाँ को अच्छी तरह मालूम थी। अतः उसने दारा शिकोह को अपने निकट रखा और
अपनी बीमारी का समाचार छिपाने के लिए भरसक प्रयास किये, किन्तु उसकी बेटी रोशनआरा
सभी प्रकार की सूचनाएं औरँगजेब को दक्षिण भारत में भेज रही थी। पिता की बीमारी की
सूचना पाते ही कपटी प्रवृत्ति के स्वामी औरँगजेब ने सन्देश भेजकर अपने छोटे भाई
मुरादबख्श को अपने साथ गाँठ लिया। उसे कहा कि मैं शासन करने का मोह नहीं रखता। मैं
हज़ करने मक्के चला जाऊँगा। बस मुझे एक ही चिन्ता है कि कहीं दारा शिकोह जैसे काफिर
बादशाह न बन जाये। यदि वह बादशाह बन गया तो इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा। मुरादबख्श
औरँगजेब के झाँसे में आ गया उसने औरँगजेब का साथ दिया, दोनों की सँयुक्त सेना ने
दारा शिकोह को पराजित कर दिया, वह आगरा से दिल्ली भागा किन्तु यहाँ पर भी औरँगजेब
की कपटी चालों के कारण वह टिक नहीं सका।
औरँगजेब ने बीमारी की हालत में पिता शाहजहाँ को गिरफतार कर लिया
और आगरे के किले में कैदी के रूप में नजरबंद कर दिया। दिल्ली की विजय का जश्न मनाया
गया। इस जश्न में प्रीती भोज के समय मक्कार औरँगजेब ने शुजाह मुहम्मद को विष देकर
मार डाला तथा मुरादबख्श को पकड़कर उसके किसी पिछले अपराध पर मृत्यु दण्ड दे दिया। अब
सिर्फ रह गया था केवल दारा शिकोह। दारा शिकोह छल की नीति नहीं जानता था। अतः बल होते
हुए भी पराजित होकर दिल्ली से लाहौर में शरण प्राप्त करने की आशा से भागा। औरँगजेब
उसका पीछा करने लगा क्योंकि वह उसे ठिकाने लगाना चाहता था। इस उथलपुथल से देश में
अराजकता फैल गई थी। शासन व्यवस्था बिगड़ चुकी थी। श्री गुरू हरिराय जी इन बदलती
परिस्थितियों में सतर्क थे, परन्तु वह तटस्थ रहना ही उचित समझते थे। औरँगजेब ने दारा
शिकोह को काफिर घोषित कर दिया और वह उसकी टोह लेता हुआ उसका पीछा करने लगा। दिल्ली
की पराजय के पश्चात् दारा शिकोह एकदम निराश्रित हो गया था। इस हालात में उसे गुरू
हरिराय जी की याद आ गई। वह असहाय व्यवस्था में गुरूदेव जी के दर्शनों के लिए श्री
कीरतपुर साहिब जी पहुँचा। किन्तु उन दिनों श्री गुरू हरिराय साहिब जी अपने मुख्यालय
कीरतपुर में नहीं थे। वह योजना अनुसार प्रचार दौरे पर श्री गोइँदवाल साहिब व श्री
खडूर साहिब इत्यादि स्थानों पर विचरण कर रहे थे, जैसे ही उसे मालूम हुआ कि गुरूदेव
गोइँदवाल में हैं तो दारा शिकोह उसी समय लगभग पाँच सौ सैनिकों के साथ गुरूदेव जी से
मिलने चल पड़ा। श्री गुरू हरिराय जी उससे बड़े प्रेम से मिले। सहानुभूति प्रकट की।
सँघर्ष करने की प्रेरणा दी। दारा शिकोह का क्षीण आत्मबल गुरूदेव
का स्नेह पाकर पुनः जीवित हो उठा। किन्तु वह त्यागी प्रवृति का स्वामी अब सम्राट
बनने की इच्छा नहीं रखता था। वह गुरूदेव के चरणों में प्रार्थना करने लगा, मुझे तो
अटल साम्राज्य चाहिए। मैं इन क्षणभँगुर ऐश्वर्य से मुक्ति पाना चाहता हूँ। गुरूदेव
ने उसे साँत्वना दी और कहा कि यदि तुम चाहो तो हम तुम्हें तुम्हारा खोया हुआ राज्य
वापिस दिलवा सकते हैं किन्तु दारा गुरूदेव के सान्निध्य में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति
कर चुका था, उसे वैराग्य हो गया। वह कहने लगा कि मुझे तो अचल राज्य ही चाहिए।
गुरूदेव उसकी मनोकामना देखकर अति प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे आशीष दी और कहा कि ऐसा
ही होगा। तभी उसे सूचना मिली कि औरँगजेब उसका पीछा करता हुआ ब्यासा नदी के तट पर
पहुँचने ही वाला है। दारा शिकोह ने गुरूदेव से विदा ली और एक विनती की कि उसके भाई
को एक दिन के लिए ब्यासा नदी के तट पर ही रोके रखें। इस अन्तराल में वह लाहौर पहुँच
सके। गुरूदेव ने उसे पूर्ण आश्वासन दिया, ऐसा ही होगा। श्री गुरू हरिराय जी ने अपने
सैनिकों को नदी के उस पार करने के लिए पतन की सभी नौकाएँ अपने कब्जे में ले ली। जब
औरँगजेब का सैन्य बल वहाँ पहुँचा तो उन्हें पार होने के लिए एक दिन की प्रतीक्षा
करनी पड़ी क्योंकि नौकाएँ खाली नहीं थी। इतने समय में दाराशिकोह अपनी मँजिल लाहौर
पहुँचने में सफल हो गया किन्तु अब उसके हृदय में सत्ता प्राप्ति की इच्छा समाप्त हो
चुकी थी, इसलिए उसने औरँगजेब का रणक्षेत्र में सामना करने का विचार त्याग दिया और
सँन्यासी रूप धारण करके किसी अज्ञात स्थान पर चला गया। किन्तु औरँगजेब के गुप्तचर
विभाग ने उसे खोज निकाला और उसे बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया। अब दारा शिकोह के
हृदय में कोई मलाल नहीं था क्योंकि श्री गुरू हरिराय जी के शाश्वत ज्ञान ने उसके
विवेक को जागृत कर दिया था, जिससे वह अभय हो चुका था, अब उसके समक्ष मृत्यु केवल
चोला बदलने के समान थी।