14. बाणी की महिमा
श्री गुरु हरिराय जी के दरबार में कुछ जिज्ञासुओं ने एक दिन निवेदन किया। हे
गुरुदेव ! हम गुरु बाणी पढ़ते हैं किन्तु कहीं-कहीं अर्थबोध में कठिनाई आती है। ऐसे
में बिना अर्थ के पाठ कोई सार्थक जीवन नहीं दे सकता है ? उत्तर में गुरूदेव ने कहा–
प्रश्न बहुत महत्वपुर्ण है इसका उत्तर हम युक्ति से देंगे, जिससे आपके मन का सँशय
निवृत हो सके। आप जी ने सभी जिज्ञासुओं को नगर की सैर करने के लिए अपने साथ चलने के
लिए कहा। नगर की गलियों में से होते हुए सभी नगर के बाहर एक उद्यान में पहुँच गये
तभी गुरूदेव जी ने एक सिक्ख को संकेत किया और कहा– देखो वह दूर धूप में कुछ चमक रहा
है उसे यहाँ ले आओ। सिक्ख तुरन्त गया और वह वस्तु जो चमक रही थी उठा लाया। वास्तव
में वह एक मक्खन की मटकी का टूकड़ा था। जिसमें कभी कोई गृहणी घी इत्यादि रखती थी।
गुरूदेव जी ने अब उन जिज्ञासुओं पर प्रश्न किया कि यह मटकी का टुकडा क्यों चमक रहा
था। उनमें से एक ने उत्तर दिया, इसमें कभी घी रखा जाता था, अभी भी इस घी की चिकनाहट
ने धूप में उस प्रकाश को परवर्तित कर प्रतिबिम्बत किया हैं। इस पर गुरूदेव जी ने
निर्णय दिया जैसे यह मटकी का टूकड़ा कभी घी के सम्पर्क में आया था परन्तु उसने अभी
भी चिकनाहट नहीं त्यागी। ठीक इसी प्रकार जो हृदय गुरूबाणी के सम्पर्क में आ जाता
हैं उसका प्रभाव चिर स्थाई बना रहता है भले ही अर्थ-बौध उस व्यक्ति को उस समय न भी
मालुम हो।