13. गुरुबाणी का आदर
एक बार दूर प्रदेश से संगत काफिले के रुप में श्री गुरु हरिराय जी के दर्शनों के
लिए कीरतपुर पहुँची। उस समय गुरुदेव मध्यान्तर के भोजन उपरान्त अपने शयन कक्ष में
पलँग पर विश्राम कर रहे थे। संगत में दर्शनों की तीव्र इच्छा थी। वे शब्द गायन करते
हुए गुरुदेव के कक्ष के समक्ष पहुँच गये। शब्द की मधुर ध्वनि सुनते ही गुरुदेव
तीव्र गति से सगँत का स्वागत करने की अभिलाषा से उठे जिस कारण उन्हें असावधानी के
कारण पलँग के पाये से टक्कराने से चोट लग गई और रक्त बहना प्रारम्भ हो गया। संगत
में से मुख्य सज्जनों ने आपसे प्रश्न किया यह बाणी आपकी ही है फिर आपने इतनी शीघ्रता
क्यों की जिससे आपको चोट लग गई। गुरुदेव जी ने बहुत सहज में उत्तर दिया: बाणी ही
वास्तविक गुरु है यह शरीर तो एक माध्यम है जिस द्वारा बाणी की उत्पत्ति हुई है। जैसा
कि आप जानते ही हैं शरीर तो नशवर है जबकि बाणी अमर-अभिनाशी है अतः हमें बाणी का आदर
हर समय, हर पल करना चाहिए।