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12. भाई फेरू जी 

कीरतपुर में जो खेत गुरुघर के अधिकार क्षेत्र में थे। उनमें फसल पकने पर खेतिहर मजदूर कटान कर रहे थे मजदूरों के भोजन की व्यवस्था श्री भगतू जी कर रहे थे वह लँगर से तैयार भोजन लेकर खेतों में पहुँच जाते और मजदूरों को सन्तुष्ट कर देते। एक दिन भोजन के समय एक फेरीवाला घी बेचता हुआ वहाँ से गुजरा, उसने घी खरीदो की हाँक लगाई उस समय मजदूर भोजन करने के लिए बैठने ही वाले थे एक मजदूर ने भाई भगतू जी से आग्रह किया यदि भोजन के साथ थोड़ा-थोड़ा घी भी मिल जाए तो हम आपके सदैव अभारी रहेंगे। इस पर भाई भगतू जी ने फेरी वाले को आवाज लगाई और कहा प्रत्येक मजदूर की दाल में पल्ली-पल्ली घी डाल दो हम कल घी के दाम यही दे देंगे। आज्ञा का पालन करते हुए फेरी वाले ने वैसा ही किया और घर चला गया उसने घी की कुप्पी कीली पर टाँग दी। जब वह अगले दिन फिर से घी बेचने के लिए चलने लगा तो उसने कुप्पी को जाँचा कि कितना घी बिका है किन्तु उसने पाया कुप्पी तो पूरी भरी पड़ी है उसमें घी की कमी तो हुई ही नहीं वह आश्चर्य में पड़ गया किन्तु प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता तो थी नहीं अतः उसने अनुभव किया यह बरकत गुरुघर की ही है उसने इस बरकत को पुनः देखना चाहा वह दिन में फिर से मध्यान्तर के समय वहीं पहुँच गया जहाँ मजदूर भोजन करने की तैयारी कर रह थे उसने आज बिना माँगे सभी मजदूरों को घी बाँटा और पैसे नही लिये। भाई भगतू जी द्वारा बल देने पर कि वह अपना दाम ले जाए किन्तु फेरी वाला कहने लगा कि आज की सेवा मैं अपनी तरफ से कर रहा हूँ इसलिए दाम नहीं लूँगा। घर जाकर उसने प्रतिदिन की भाँति आज भी घी की कुप्पी टाँग दी और अगले दिन जाँचा तो फिर पाया घी तो वैसा का वैसा ही है कुछ भी कम नही हुआ। इस बार वह गम्भीर होकर इस बरकत का कारण सोचने लगा अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि सतगुरु के नाम पर की गई सेवा के कारण बरकत पड़ जाती है।

उसने अपने मन को समझाया कि जिस सतगुरु के सिक्खों की सेवा करने पर इतनी बरकत पड़ती है क्या ही अच्छा हो कि मैं अपने आपको उनके समक्ष समर्पित कर दूँ और फिर निष्काम और निस्वार्थ सेवा करुँ। उसने इस विचार को व्यवहारिक रूप दे दिया। उसने फेरी का धँधा त्यागकर लँगर में दिन-रात सेवा प्रारम्भ कर दी। उसे कोई नाम से तो जानता नहीं था इसलिए फेरी वाले के नाम से प्रसिद्व हो गया। गुरुदेव उसे भाई फेरु कहकर सम्बोधित करते थे। एक दिन गुरुदेव भाई फेरु जी से बहुत प्रसन्न हो उठे, उसकी सच्ची लगन देखकर उन्होंने उसे अपना मसँद मिशनरी बनाकर उसके पैतृक ग्राम भेज दिया और कहा कि वह अपने क्षेत्र में गुरमति का प्रचार-प्रसार करे। इस फेरी वाले का वास्तविक नाम संगतिया संगतराम था यह युवक गाँव अँबमाडी तहसील चूनियाँ, जिला लाहौर का निवासी था। गुरुदेव जी की कृपा दृष्टि होने पर वह अपने क्षेत्र में एक प्रचारक के रुप में कार्यरत रहने लगे। जाते समय गुरुदेव जी ने उन्हें आशीष दी थी कि खजाना हमारा हाथ तुम्हारा रहेगा। जाओ दिल खोलकर लँगर चलाओ। भाई संगतिया, फेरु जी गुरु आदेश का पालन करते हुए अपने पैतृक ग्राम में गुरु के नाम का दिन-रात लंगर चलाने लगे। एक दिन कुछ अभ्यागत देर से आये लँगर बाँटते समय सेवादार ने उन्हें रात की रोटियाँ बाँट दी तभी इत्फाक से रसोईघर से ताजे परोंठे आ गये और वह भी बाँट दिये गये। इस प्रकार विभाजन में भिन्नता आ गई संगत में किसी को ताजे परोठे और किसी को बासी रोटी मिली । इस पर एक अभ्यागत ने भाई फेरु जी से कह ही दिया भाई जी आपने तो गुरु का लँगर काँना कर दिया है। भाई जी ने तुरन्त भूल को स्वीकार किया और कहा मुझे क्षमा करें। मैं भले ही काँना हो जाऊँ पर आइन्दा लँगर काँना नहीं होने दूँगा। भगत का वचन सत्य सिद्ध हुआ, वह स्वयँ काने हो गये और वह बहुत सावधानी से लँगर चलाने लगे जब यह बात गुरु देव जी श्री हरिराय जी को मालूम हुई तो वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भाई संगतियाँ, फेरू जी को वरदान दिया और कहा तेरे नाम के भी सदैव लँगर चलते रहेंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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