2. भाई मतीदास जी
भाई मतीदास जी, भाई हीरानंद के सुपुत्र, भाई दवारका दास के पोते और शहीद भाई पराग
दास (परागा) के पड़पोते थे। आप गाँव करिआला (जिला, जिहलम, पाकिस्तान) के वासी थे। आप
बिछर-ब्राहम्ण परिवार से संबंध रखते थे। आपका परिवार गुरू रामदास साहिब जी के समय
से ही सिक्खी के साथ जुड़ा हुआ था। आपके पड़दादा भाई परागा जी, श्री गुरू हरगोबिन्द
साहिब जी के समय में सिक्ख फौज के पाँच प्रॅमुख जरनैलों में से एक थे। भाई परागा जी
ने रूहीला के युद्ध में शहीदी प्राप्त की थी। भाई परागदास जी के दोनों पड़पोते, भाई
मतीदास और भाई सतीदास जी का श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के साथ बहुत ही प्यार था।
वह दोनों अक्सर गुरू साहिब जी के साथ ही रहते थे। भाई मतीदास जी सिक्ख धर्म के एक
प्रसिद्ध विद्वान भी थे और कई बार गुरूबाणी की कथा भी किया करते थे। भाई दयाला जी
के बाद भाई मतीदास जी दूसरे ऐसे शख्स थे, जिन्हें गुरू साहिब जी की संगत करने का
मान मिला हुआ था। 1665 में जब श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी आसाम, बँगाल और बिहार
में धार्मिक यात्रा पर गए तो उनके साथ भाई मतीदास जी भी थे। इसी प्रकार जुलाई 1675
में जब गुरू साहिब जी गिरफ्तार करके (गुरू साहिब जी ने स्वयं ही गिरफ्तारी दी थी)
नवंबर में दिल्ली लाए गए तो उनके साथ भाई मतीदास जी भी अन्य सिक्खों के साथ शामिल
थे। इनके साथ श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी को शहीद करने का फतवा जारी किया गया था।
नवंबर 1675, चाँदनी चौक, दिल्लीः
भाई मती दास को योजना अनुसार चाँदनी चौक के ठीक बीचो-बीच हथकड़ियों बेड़ियों तथा
जँजीरों से जकड़कर लाया गया। जहाँ पर आजकल फव्वारा हैं। प्रशासन की क्रूरता वाले
दृश्यों को देखने के लिए लोगों की भीड़ एकत्रित हो चुकी थी। भाई मती दास का चेहरा
दिव्य आभा से दमक रहा था। भाई साहिब जी शाँतचित और अडोल प्रभु भजन में व्यस्त थे।
मृत्यु का पूर्वाभास होते हुए भी उनके चेहरे पर भय का कोई चिन्ह न था। तभी काज़ी ने
उनको चुनौती दी और कहा कि भाई मती दास क्यों व्यर्थ में अपने प्राण गँवा रहे हो।
हठधर्मी छोड़ो और इस्लाम को स्वीकार कर लो जिससे वह ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत कर सकेंगे
और प्रशासन की तरफ से सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसें उपलब्ध कराई जाएँगी। इसके
अतिरिक्त बहुत से पुरस्कारों से सम्मानित किया जायेगा। यदि वह मुसलमान हो जाएँ तो
हज़रत मुहम्मद साहिब उसकी गवाही देकर उसे खुदा से बहिश्त दिलवायेंगे। अन्यथा उसे
यातनाएँ दे-देकर मार दिया जायेगा। भाई मती दास जी ने उत्तर दिया कि क्यों अपना समय
नष्ट करते हो, वह तो सिक्ख सिद्धाँतों और उस पर अटल विश्वास से हज़ारो बहिश्त
न्यौछावर कर सकता हैं। गुरु के श्रद्धावान शिष्य अपने गुरुदेव के आदेशों की पालना
करना ही सब सुखों का मूल समझते हैं। अतः जो श्रेष्ट और निर्मल धर्म उसे उसके गुरु
ने प्रदान किया है। वह उसे अपने प्राणों से अधिक प्रिय हैं। इस पर काज़ी ने पूछा कि
ठीक हैं। मरने से पहले उसकी कोई अन्तिम इच्छा हैं तो बता दो। मती दास जी ने उत्तर
दिया कि उसका मुँह उसके गुरु की ओर रखना ताकि वह उनके अँत समय तक दर्शन करता हुआ
शरीर त्याग सके। लकड़ी के दो शहतीरों के पाट में भाई मतीदास जी को जकड़ दिया गया। और
उनका चेहरा श्री श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के पिंजरे की ओर कर दिया गया। तभी
दो जल्लादों ने भाई साहिब जी के सिर पर आरा रख दिया। काज़ी ने फिर भाई साहिब को
इस्लाम स्वीकार करने की बात दुहराई किन्तु भाई मतीदास जी उस समय गुरूबाणी उच्चारण
कर रहे थे और प्रभु चरणों में लीन थे। अतः उन्होंने कोई उत्तर न दिया। इस पर काजी
की ओर से जल्लादों को आरा चलाने का सँकेत दिया गया। देखते ही देखते खून का फव्वारा
चल पड़ा और भाई मती दास के शरीर के दो फाड़ हो गये। इस भयभीत तथा क्रूर दृश्य को
देखकर बहुत से नेक इनसानों ने आँखों से आँसू बहाये किन्तु पत्थर हृदय हाकिम इस्लाम
के प्रचार हेतु किये जा रहे आत्याचार को उचित बताते रहें। भाई मतीदास जी अपने प्राणों
की आहुति देकर सदा के लिए अमर हो गये। उनकी आत्मा परम ज्योति मे जा समाई और उनका
बलिदान सिक्खों तथा विश्व के अन्य धर्मावलम्बियों का पथप्रदर्शक बन गया। भाई मतीदास
जी गुरू घर में कोषाध्यक्ष, दीवान की पदवी पर कार्य करते थे।