1. भाई दयालदास (दयाला जी)
भाई दयालदास, भाई माई दास जी के सुपुत्र, भाई बल्लू जी के पोते और भाई मूले के
पड़पोते थे। आप परमार-राजपूत परिवार के साथ संबंध रखते थे। आपको 11 नवंबर 1675 के
दिन दिल्ली के चाँदनी चौक में देग में उबालकर शहीद कर दिया गया था। (आप भाई मनी
सिंघ के बड़े भाई थे।) भाई दयाल दास और उनका परिवार गुरू घर में बहुत आस्था और
श्रद्धा रखता था। इस परिवार ने सिक्ख कौम के लिए कई दरजन शहीदियाँ दी हैं। भाई
दयालदास नौवें गुरू, साहिब श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के बहुत ही नजदीकी साथी
थे। गुरू साहिब जी जहां भी जाते थे, भाई दयालदास जी भी उनके साथ ही रहते थे। भाई
दयालदास जी का नाम गुरू साहिब जी के कई कूर्सीनामों में मिलता है। श्री गुरू तेग
बहादर साहिब जी जब 1656 में आसाम, बँगाल और बिहार के मिशनरी दौरे पर गए तो भी भाई
दयालदास जी भी उनके साथ ही गए थे। इसी प्रकार जब सन 1675 में कशमीरी ब्राहम्णों की
पूकार पर गुरू साहिब जी औरँगजेब से मिलने और गिरफ्तारी देने के लिए दिल्ली के लिए
गए तो साथ में भाई दयालदास जी भी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि भाई दयालदास जी गुरू
तेग बहादर साहिब जी के अंग संग ही रहते थे। 11 नवंबर को जब शहीदी से पहले भाई
दयालदास जी को कई प्रकार के जिस्मानी कष्टों को सामना करना पड़ा। इस दौरान वह
जिस्मानी तौर पर बहुत कमजोर हो चुके थे। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के साथ आपकों
भी शहीद करने का फतवा जारी किया गया। साथ में भाई मतीदास और भाई सतीदास जी को भी
शहीद करने का फतवा जारी किया गया।
11 नवंबर 1675, चाँदनी चौक, दिल्लीः
भाई दयाला जी को बन्दीखाने से बाहर, चौक में लाकर उन्हें काज़ी द्वारा फतवाए दण्ड
सुनाया गया कि यदि वे इस्लाम को स्वीकार कर लें तो उन्हें जीवनदान दिया जाये अन्यथा
उबलते हुए पानी की देग में उबालकर मार दिया जाये। काज़ियो ने भाई साहिब को इस्लाम के
गुणों पर ब्याख्यान सुनाया और ऐशों आराम के जीवन तथा स्वर्गों मे हूरों की प्राप्ति
के बारे में अनेकों झाँसे दिये किन्तु भाई साहिब अपने सिक्खी विश्वास में अडोल रहे
इस पर उन्होंने डराना, धमाकाना प्रारम्भ किया और कहा कि उन्होंने उसके साथी को
इस्लाम न स्वीकार करने पर निर्दयता से मौत के घाट उतार दिया है। अब उसकी उससे भी
अधिक दुर्दशा की जायेगी। भाई दयाला जी ने उत्तर दिया, भाई मती दास जी को मरा मत समझो
बल्कि वे तो मृत्यु से ठिठोली करके, दूसरों के लिए प्रेरणादायक दिशा निर्देश देकर
सदा के लिए अमर हो गये हैं। और अकाल पुरूष के चरणों में स्वीकारीय हो चुके हैं। काज़ी
साहिब जल्दी करो वह भी भाई मतीदास के पास पहुँचने के लिए लालायित हो रहा हैं। उसकी
अन्तिम इच्छा भी अपने गुरू, श्री गुरू तेगबहादूर साहिब के समक्ष शहीद होने की है।
तभी काज़ी के फतवे के अनुसार जल्लादों ने देग यानि बहुत बड़े बर्तन में पानी डालकर
भाई दयाला जी को बिठा दिया और चूल्हे में आग जला दी। ज्यों-ज्यों पानी गर्म होता
गयाए त्यों-त्यों भाई जी गुरूबाणी उच्चारण करते हुए अपने गुरूदेव के सम्मुख
अकालपुरूष (परमात्माद) के चिन्तन में विलीन होते गये। पानी उबलने लगा। भाई जी के
चहरे पर दिव्य ज्योति छाई और वह शाँतचित, अडिग ज्योति-ज्योत समा गये और अपने
विश्वास को आँच नहीं आने दी। जनसाधारण ने देखा कि इतने बड़े दण्ड को शरीर पर झेलते
हुए भाई जी ने कोई कड़वा वाक्य नहीं कहा और आपने धार्मिक निश्चय में कहीं भी कोई
शिथिलता नहीं आने दी। यह भयभीत दृश्य देखकर कुछ लोगों ने आँसू बहाये और कुछ ने आहें
भरी और अत्याचारी प्रशासन के विनाश हेतु मन ही मन प्रमात्मा से प्रार्थना करते हुए
घरों को चले गये। नोट: भाई दयालदास (दयाला जी) आप ही शहीद नहीं हुए, बल्कि उनके
परिवार में से ओर भी बहुत सारी शहीदियाँ हुईं। आपके बेटे भाई कलिआन सिंघ जी ने 29
अगस्त सन 1700 के दिन तारागढ़ की लड़ाई में शहीदी प्राप्त की। आपके दुसरे बेटे भाई
मथरा सिंघ 8 अक्टूबर सन 1700 के दिन निरमोहगढ़ में शहीद हुए।