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3. मीर मन्नू और सिक्ख-3

यही पर बस नहीं, दूध पीते बच्चों को हवा में उछालकर नीचे भाला रखकर उसे उस पर टाँग लेते, जिससे बच्चा उसी क्षण मर जाता। हम बलिहारी हैं उन सिंघनियों के साहस पर, जो इन असहाय कष्टों को हंसते-हंसते झेलती रहीं और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहीं।

मीर मन्नू और दल खालसा:
दीवान कौड़ामल की शहीदी के पश्चात् जैसे ही मीर मन्नू ने पराजय स्वीकार करके अफगानिस्तान सरकार की तरफ से राज्य का राज्यपाल नियुक्त हुआ, उसे केवल अपनी सत्ता को सुरक्षित करने के लिए एक ही शक्ति का सामना करना दिखाई दे रहा था, वह थी दल खालसा। वैसे तो वह जानता था कि दल खालसा के पास कोई सल्तनत अथवा क्षेत्र नहीं है, जिसके सहारे वो उसे किसी प्रकार की क्षति पहुँचा सकें परन्तु सिक्खों की जुझारू शक्ति और वीरता, साहस उसे बिना कारण प्रतिद्वन्द्वी के रूप में दल खालसा प्रतीत होने लगा। जबकि ‘दल खालसा’ की जगीर की पुनः बहाली पर ही सन्तुष्ट था और वह उस समय किसी भी विवाद में पड़ने के चक्कर में नहीं थे। वे तो केवल अपने धार्मिक केन्द्रों की सेवा सम्भाल और आज़ादी से शान्तिप्रिय जीवन जीना चाहते थे, परन्तु मीर मन्नू को धैर्य कहाँ ? वह तो अपने अतिरिक्त किसी दूसरे को देखना नहीं चाहता था। ऐसे में उसने सिक्खों की जगीर छीन ली और उन्हें श्री अमृतसर नगर से खदेड़ दिया। सिक्ख भी विवशता में अपनी करनी पर आ गए। उनके पास सत्तारूढ़ लोगों के समान तो शक्ति नहीं थी। अतः उन्होंने फिर से गोरिल्ला युद्ध का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया। इन छापामार युद्धों में जब सत्ताधरियों को अधिक क्षति उठानी पड़ी तो उन्होंने अपना प्रतिशोध साधारण शान्तिप्रिय सिक्ख नागरिकों पर निकालना शुरू कर दिया।

जुझारू दल तो दूर क्षेत्रों में चले गए। चँगुल में फँस गए निर्दोष गृहस्थी परिवार, जो अपनी जीविका की तलाश में खेती अथवा व्यापार करते थे। साधनों के अभाव में ‘दल खालसा’ के अधिकाँश जत्थे सरकारी गश्ती फौजों की टक्कर से बचने के लिए हिमाचल प्रदेश में श्री आनन्दपुर साहिब जी के पर्वतीय क्षेत्र में विचरण करने लगे। अतः मीर मन्नू ने जालन्धर के फौजदार अदीना बेग पर दबाव डाला कि वह सिक्खों को श्री आनन्दपुर साहिब जी की पहाड़ियों से निकासित कर दें। इस बीच अगस्त, 1752 ईस्वी की वर्षा ऋतु के अन्त में जब मीर मन्नू का एक करिंदा हिमाचल की पहाड़ी रियासतों का लगान वसूल करने के लिए पहुँचा तो उसने पहाड़ी राजाओं को बहुत परेशान किया। उस समय एक जस्सा सिंह अपने साथी जत्थेदारों सहित आनन्दपुर में विराजमान था। कलेच, हरिपुर और मण्डी के नरेशों के वकीलों ने सरदार जस्सा सिंह से प्रार्थना की कि वह उनकी रियासतों की सहायता करें। इस पर सरदार जस्सा सिंह ने तुरन्त नदौन पहुँचकर मीर मन्नू के फौजदार को ललकारा। वह भी पहले से ही युद्ध के लिए तैयार बैठा था। पहले दिन की लड़ाई में कोई फैसला नहीं हो सका, परन्तु दूसरे दिन सिक्खों ने उसे मार गिराया। फलतः मुगल सेना भाग गई और खालसे की जीत हुई। जब लाहौर में इस फौजदार की मौत का समाचार पहुँचा तो मीर मन्नू तिलमिला उठा। बस फिर उसने बदले की भावना में सिक्ख नागरिकों पर करूर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए तथा दूसरी ओर जालन्धर के फौजदार अदीना बेग को पत्र लिखा कि वह किसी भी कीमत पर सिक्खों को आन्नदपुर में से निष्कासित कर दे। कंढी क्षेत्र में सिक्खों की शक्ति में वृद्धि अदीना बेग के लिए भी खतरे का कारण थी, इसलिए उसने चुपचाप बड़ी सतकर्ता से आनन्दपुर साहिब पर उस समय आक्रमण कर दिया, जबकि सिक्ख होली का त्योहार मनाने में व्यस्त थे।

18 फरवरी, 1753 में अकस्मात् अदीना बेग ने आनन्दपुर पर आक्रमण कर दिया। बहुत सी निहत्थी जनता जो मेला देखने आए हुए थे, मारे गए। इस कत्लेआम में वृद्ध, महिलाएँ तथा बच्चे अधिक शिकार हुए। जब सरदार जस्सा सिंह तथा चढ़त सिंह को इस घटना का ज्ञान हुआ तब तक शत्रु अपना काम करके जा चुका था। जैसे ही जस्सा सिंह शत्रु का पीछा करने का मन बनाकर बढ़े तो तुरन्त शत्रु ने सदीक बेग के हाथों सुलह सफाई की बात प्रारम्भ कर दी और एक संधि प्रस्तुत की कि यदि सिक्ख सरकारी लगान इत्यादि उगाई में बाधा न डालें तो वह भी सिक्खों से किसी भी प्रकार से द्वैष नहीं रखेंगे। सरदार जस्सा सिंह ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उसने यह पग इसलिए उठाया ताकि मीर मन्नू की ओर से किए जा रहे निर्दोष सिक्ख नागरिकों के नरसँहार को रोका जा सके। यह एक आरज़ी संधि थी। जिसका मनोरथ सीमित था। इसके विरूद्ध संघर्ष की रूपरेखा और गतिविधि से कोई भी सम्बन्ध नहीं था। उक्त संधि से भी मीर मन्नू को सिक्खों के प्रति दमनकारी नीति में कोई अन्तर न आया तो सरदार जस्सा सिंह ने सभी ‘दल खालसा’ के जत्थेदारों का एक सम्मेलन बुलाया और अपने निदोर्ष सिक्ख परिवारों की रक्षा करने के उपायों पर विचारविमर्श किया, विशेषकर उन सिक्ख स्त्रियों को जो मीर मन्नू के कारावास में थी, उन्हें छुड़ाने पर सम्मेलन में निर्णय लिया गया। दीवाली पर्व सन् 1753 में 26 अक्तूबर को था, इसलिए सरकारी प्रतिबन्धों की चिन्ता न करके जुझारू सिंघ दर्शन स्नान हेतु काफिले बनाकर श्री दरबार साहिब जी पहुँचने का प्रयास कर रहे थे।

इन काफिलों की कई स्थानों पर गश्ती फौजी टुकड़ियों के साथ झड़पें हुई। इन छापामार युद्धों में दोनों पक्षों का भारी नुकसान होता परन्तु सिक्ख अपनी हठधर्मी के कारण कि श्री अमृतसर साहिब फिर से स्वतन्त्र करवाना है, कोई भी कुर्बानी करने को तैयार बैठे थे। ऐसे में मीर मन्नू ने सिक्खों को समाप्त करने के लिए फौजी टुकड़ियों की स्वयँ कमान सम्भाली और सिक्खों का शिकार करने निकल पड़ा। उसे गुप्तचर विभाग ने सूचना दी कि मलकपुर नामक गाँव के निकट सिक्खों का एक जत्था पहुँच गया है जो कि श्री अमृतसर साहिब जी की ओर बढ़ रहा है, बस फिर क्या था, मीर मन्नू बहुत बड़ी सँख्या में सैनिक लेकर वहाँ पहुँच गया। इस पर सिक्ख मार्ग से हटकर गन्ने के खेतों में छिप गए। परन्तु मीर मन्नू सिक्खों के शिकार करने के उद्देश्य से वहाँ पहुँच गया और गन्ने के खेतों में सिक्खों को ढूँढने लगा। ठीक उसी समय एक सिक्ख जवान ने निशान साधकर गन्ने के खेतों से मीर मन्नू पर गोली चला दी। निशान चूक गया परन्तु मीर मन्नू का घोड़ा घायल हो गया, जिससे वह भय में बिदक गया और सरपट भागने लगा। ऐसे में मीर मन्नू घोड़े से उतरना चाहता था, उतरते समय उसका पाँच घोड़े की रकाब में फँस गया परन्तु बेकाबू हुआ घोड़ा सरपट भागता ही गया, जिस कारण मीर मन्नू घिसटता हुआ सिर की चोटें खाता चला गया। जब घोड़े को पकड़ा गया तो मीर मन्नू जमीन की रगड़ के कारण लहुलुहान व बेहोश मिला। घायल अवस्था में ही मीर मन्नू 2 नवम्बर, 1753 ईस्वी को मृत घोषित हो गया। मीर मन्नू के निधन का समाचार फैलते ही आपाधपी मच गई।

इससे लाभ उठाकर सिक्खों का एक जत्था मारधाड़ करता हुआ लाहौर की घोड़मण्डी जँब बाजार में पहुँच गया। यहाँ के तहखानों में मीर मन्नू के आदेश पर कैद की हुई बहादुर सिक्ख स्त्रियाँ बहुत बुरी परिस्थितियों में थी। इनको इस्लाम स्वीकार करने के लिए भूखा प्यासा रखा जाता था और उन्हें सवा मन प्रतिदिन अनाज पीसने के लिए विवश किया जाता था। यदि वे कष्टों के कारण काम न निकाल पाती तो उन्हें असहयनीय यातनाएँ दी जाती थी। इस्लाम स्वीकार न करने पर उनके दूध पीते बच्चों को उनकी आँखों के सामने हवा में उठालकर नीचे भाला लगाकर उसमें पिरोकर हत्या कर दी जाती थी। सिक्ख जत्थे ने इस कारावास पर अकस्मात् धावा बोल दिया और उन बँधीग्रस्त महिलाओं को अपने घोड़ों पर बैठाकर वापस चल दिए। इस प्रकार इन जवानों ने जान हथेली पर रखकर अपनी बहनों की रक्षा की जो असहाय कष्ट झेल रही थीं। इस प्रकार मीर मन्नू का सिक्खों के प्रति दमनचक्र समाप्त हो गया। इस कारण इस गाथा का विवरण आज भी सिक्ख अरदास प्रार्थना में करते चले आ रहे हैं। मुफ्ती अली-उद्दीन अपनी पुस्तक "इबारतनामा" में लिखता है कि नवाब मुईवुल मुल्क (मीर मन्नू) ने सिक्ख सम्प्रदाय की जड़ उखाड़ने के लिए भरपूर प्रयास किया। उसने उनकी हत्याएँ कीं और उनकी खोपड़ियों से कई कुएँ भर दिए। इसलिए सिक्खों में यह किंवदन्ति प्रचलित हो गई थी, जो निम्नलिखित है:

मन्नू असाडी दातरी, असी मन्नू के सोए ।।
जिउं जिउं सानू वडदा, असी दूण सवाए होए ।।

इसका भावार्थ यह है: "मीर मन्नू" हमारे लिए "रांती" है, ज्यों ज्यों वह हमें काटता है, हम जँगली घास की तरह और अधिक उगते हैं। यह थी उन दिनों की सिक्खों में "चढ़दी कला" साहस एँव धर्म पर मर मिटने की भावना। मीर मन्नू द्वारा किए गए जनसँहार की चिन्ता से मुक्त होने के लिए वे पाँचवें गुरू, श्री गुरू अरजन देव जी की इस मधुरबाणी का सदा उच्चारण करते रहते थे:

जे सुखु देहि त तुझहि अराधी, दुखि भी तुझै धिआई ।।
जे भुख देहि त इत ही राजा दुख विचि सुख मनाई ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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