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1. मीर मन्नू और सिक्ख-1

मीर मन्नू की राज्यपाल पद पर नियुक्ति और लखपत राय सिक्खों का बन्दी
अप्रैल, 1748 ईस्वी को मीर मन्नू की नियुक्ति पँजाब प्रान्त के राज्यपाल के रूप में हो गई। उसने लाहौर में प्रवेश करते ही दुर्रानी द्वारा नियुक्त जल्हे खान और दीवान लखपत राय को कैद कर लिया। दीवान को तीस लाख रूपये का दण्ड किया गया और उसके स्थान पर कौड़ामल को अपना नाइब तथा दीवान ए अदालत नियुक्त किया गया। तीस लाख रूपये के जुर्मानें में से अठारह लाख की राशि तो लखपत राय ने स्वयँ अदा कर दी, दो लाख रूपये के बदले में उसकी सम्पत्ति कुर्क कर ली गई, शेष दस लाख की अदायगी में असमर्थ रहने के कारण उसे आजीवन कारावास दे दिया गया। दीवान कौड़ामल ने वह दस लाख रूपये इस शर्त पर भरने की इच्छा व्यक्त की कि बदले में लखपत राय को उसके हवाले कर दिया जाए। ऐसा ही किया गया और लखपत राय को दीवान कौड़ा मल ने अपने कब्जे में ले लिया। तुरन्त बाद कौड़ामल ने लखपत राय को सिक्खों को सौंप दिया। सिक्खों ने उसे एक भूमिगत कमरे में कैद कर दिया। उस कमरे के ऊपर शौचालय बनाया गया, जिसका मलमूत्र उसके सिर पर गिरता था। इसी गटर में लखपत राय की मृत्यु हुई। इस प्रकार उसे अपनी करनी के लिए साक्षात् नरक भोगना पड़ा। मीर मन्नू ने राज्यपाल का पद ग्रहण करते ही यह अनुभव किया कि उसके प्रतिद्वन्द्वी रूप में सिक्खों की शक्ति और लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है, उसे सिक्खों द्वारा निर्माण किया गया किला ‘रामरोहणी’ एक खतरे का सँकेत प्रतीक हुआ। अतः उसने सर्वप्रथम सिक्खों का दमन करने की योजना बनाई। इस नीति के अन्तर्गत उसने जालन्धर के फौजदार अदीना बेग को लिखा कि वह सिक्खों के विरूद्ध अभियान चलाए और उन्हें कुचल डाले। परन्तु अदीना बेग बहुत चतुर राजनीतिज्ञ था। वह जानता था कि सिक्खों को कुचलना कोई सहज कार्य नहीं, इसके लिए अपना जीवन दाँव पर लगाना पड़ता है।

उसके सामने पिछले 30-40 वर्ष का इतिहास प्रत्यक्ष साक्षी था। दूसरा, वह जानता था कि यदि वह ऐसा करने में सफल भी हो जाए तो भी उसका पद छिन्न सकता है और उसके स्थान पर किसी अन्य की नियुक्ति हो सकती है। यह पद उसके पास तब तक है जब तक सिक्खों का अस्तित्त्व है और उनके विद्रोह का भय बना हुआ है। अतः वह कई प्रकार के बहाने बनाकर ढुलमुल नीति अपनाता रहा। इस बीच कौड़ामल ने मीर मन्नू को विश्वास में लेकर सिक्खों के साथ संधि के प्रस्ताव रखे, परन्तु मीर मन्नू जिद पर अड़ा रहा, उसने सिक्खों को खदेड़ने का मन बना लिया। दूसरी तरफ अदीना बेग ने सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया के पास अपना दूत भेजकर उसे मुलाकात के लिए बुलाया और सँदेश भेजा कि मेरे पास आओ तो दिल की बातें होंगी। यदि हमारे साथ मिलकर देश का बन्दोबस्त करो तो बहुत अच्छा है। परन्तु यदि कोई क्षेत्र सुरक्षित चाहते हो तो भी ले लो। हम लाहौर से इसकी लिखित स्वीकृति प्रदान करवा देंगे और बादशाह भी इस बात पर सन्तुष्ट हो जाएगा। बिना कारण दोनों पक्षों के जवानों की जानी और माली नुक्सान निर्दोष जनता और नगरों की बर्बादी से क्या लाभ ? सरदार जस्सा सिंह ने अपने सहयोगियों से मिलकर इस प्रस्ताव पर बहुत गम्भीरता से विचार किया और उचित निर्णय लेकर उत्तर भेजा। अदीना बेग बहुत चालाक और स्वार्थी व्यक्ति था। उस पर कभी भी किसी को भरोसा नहीं हो सकता था।

कोई बड़ी बात नहीं थी कि वह छल करके राज्यपाल मीर मन्नू को प्रसन्न करने के लिए जस्सासिंह को गिरफ्तार करके उसके हवाले कर देता। इस पर सरदार जस्सा सिंह ने उत्तर भेजा कि हमारी आपकी मुलाकात युद्ध के मैदान में ही होगी और उस समय जो अस्त्र-शस्त्र चलेंगे, वे ही हमारे दिलों की बातें समझ लेना। मिलकर प्रबन्ध क्या करना हुआ ? जिनको मालिक स्वयँ मुल्क दे, वह किसी अन्य से क्यों माँगे ? जिसके भाग्य में मुल्क ईश्वर स्वयँ लिख दे, वह दूसरों से कागज पर क्यों लिखवाए ? बिना जवानों के नुक्सान के और बेआरामी के सहे, किसी ने सत्ता के ताज पहने हैं क्या ? हमें किसी की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं। जब हम अच्छी तरह मुल्क फतेह करके कब्जे में कर लेंगे तो बर्बाद को आबाद भी अच्छी तरह कर लेंगे। जब हमने तलवार उठाई है तो आप भी सुलह-सफाई की बातें करने लगे हैं। जब हम कुर्बानी देंगे तो सहज ही मुल्क के मालिक बन जाएँगे। जब सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया द्वारा दिया गया उत्तर जालन्धर के फौजदार अदीना बेग को मिला तो उसने फिर से कूटनीति से काम लेने के लिए सिक्खों में फूट डालने का कार्यक्रम बनाया। इस बार उसने सरदार जस्सा सिंह इचोगित को नया प्रस्ताव भेजा कि वह उसकी सेना का एक भाग बन जाए। जो कि उसने स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन दिनों उसे दल खालसा से निष्कासित किया गया था। इसका कारण केवल यह था कि एक अफवाह सुनने को मिली थी कि जस्सा सिंह ने अपनी पुत्री की हत्या कर दी है। इसका पुख्ता प्रमाण तो कोई था नहीं परन्तु सिक्ख मर्यादा के अनुसार यह एक घिनौना अपराध था।

इस प्रकार वह खालसे से नाराज होकर अदीना बेग की सेना का एक अंग बन गया परन्तु उसके छोटे भाई सरदार तारा सिंह ने ‘दल खालसा’ को नहीं छोड़ा, वह पूर्ण विश्वास से डटा रहा। जब अदीना बेग की संधि वार्ता रँग न ला सकी तो मुगलों ने ‘रामरोहणी’ के किले का घेरा डाल दिया। मीर मन्नू के आदेशानुसार दीवान कौड़ामल, मिर्जा अजीज खान बख्शी, नासर अली जालँधरी तथा पर्वतीये नरेशों की सेनाओं ने मिलकर धावा बोल दिया। रामरोहणी के बुर्जों से सिक्खों के नगाड़ों की आवाज सुनकर आसपास के ‘खालसा दल’ के जत्थे भी एकत्रित हो गए और उन्होंने रामसर क्षेत्र की लड़ाई के लिए मोर्चा लगा लिया। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया के नेतृत्त्व में सिक्खों ने डटकर मुकाबला किया किन्तु उन्हें जीतने की आशा बहुत कम रही। आटा-दाना समाप्त हो गया। सिक्खों के पास गोला बारूद पहले से ही कम था। दूसरी तरफ लाहौर की सेना तोपों तथा अन्य सैनिक सामग्री से पूरी तरह लैस थी। मुगल फौज ने ‘रामरोहणी’ को बारूदी सुरँग लगाकर उड़ा देने का निश्चय किया परन्तु सिक्खों ने सुरँग बनाने का उन्हें अवसर ही न दिया। अन्दर रसद पानी की समाप्ति के कारण सिक्खों ने किला त्यागकर बाहर निकलकर खुले मैदान में लड़ने का मन बना लिया। जब गुप्तचर द्वारा इस भेद का अदीना बेग के पक्ष में आए सिंहों को चला तो वे बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने समय रहते अपने भाइयों की सहायता करने की ठानी। अतः उन्होंने एक पत्र लिखकर तीर से उसे किला रामरोहणी में फैंका।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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