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4. यहिया खान और सिक्ख- 4

शाहबाज सिंह ने अब युवावस्था में अन्य मतों का भी तुलनात्मक अध्ययन कर लिया था। अतः वह अब सुचेत था और उसे स्वयँ के ऊपर सिक्ख सम्प्रदाय का होने के कारण गर्व था। अतः काज़ी उसको अपने मँतव्य की ओर आकर्षित न कर सका। जब कभी काज़ी इस्लाम सम्प्रदाय के गुणों का व्याखान करने लगता, तभी शाहबाज सिंह उसकी तुलना में सिक्ख सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ गुणों का वर्णन करने लग जाता। काज़ी के द्वारा नित्य इस्लाम की प्रशँसा से शाहबाज सिंह सतर्क हो गया कि कहीं कोई घोटाला है, इसलिए वह काज़ी से हुई दैनिक वार्तालाप की सूचना अपने माता-पिता को देने लगा। जब काज़ी के लम्बे समय के परिश्रम के पश्चात् भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका तो उसने कुटिल नीति से काम लेने की सोची। यह शुभ अवसर उसे जक्रिया खान की मृत्यु के पश्चात् प्राप्त हो गया। जब पँजाब के राज्यपाल याहिया खान बन गया। याहिया खान जक्रिया खान का बड़ा बेटा था, वह पिता की मृत्यु के समय दिल्ली में अपने ससुर कमर-उद-दीन के पास कार्यरत था। वजीर कमर-उद-दीन के बहुत सिफारिश करने के कारण उसे पँजाब के राज्यपाल के लिए नियुक्ति पत्र बादशाह से दिलवा ही दिया। याहिया खान की भी सिक्खों के प्रति कोई अच्छी नीति नहीं थी। अतः शाही काज़ी ने उसका पूरा लाभ उठाने की युक्ति सोची। एक दिन काज़ी के लड़के और शाहबाज सिंह की किसी बात को लेकर लड़ाई हो गई, वे दोनों सहपाठी थे। बात बढ़ते बढ़ते तू-तू, मैं-मैं से मारपीट पर पहुँच गई। काज़ी के लड़के ने पिता से अध्यापक होने की अकड़ में शाहबाज सिंह के लिए कुछ अभ्रद भाषा का प्रयोग किया और सिक्ख गुरूजनों के लिए भी अपमानपूर्ण शब्दावली इस्तेमाल की, इसके उत्तर में शाहबाज सिंह ने उत्तर में शाहबाज सिंह ने उसकी जमकर पिटाई कर दी और उसी के अँदाज में उसने भी इस्लाम की त्रुटियाँ गिना कर रख दी।

बस फिर क्या था, काज़ी को एक शुभ अवसर मिल गया, प्रशासन से शाहबाज सिंह का दमन करवाने का, उसने नये नियुक्त राज्यपाल याहिया खान को शाहबाज व उसके पिता के विरूद्ध खूब भड़काया और कहा कि ये लोग हमारी ही प्रजा है और हमें ही आँखें दिखाते हैं। इनकी हिम्मत तो देखो, किस प्रकार इसने पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब की शान के विरूद्ध भद्दे शब्द कहे हैं। याहिया खान को तो जनता में अपना रसूख बढ़ाना था, इसलिए उसने काज़ी को खुश करने के लिए बिना किसी न्यायिक जाँच के पिता व पुत्र दोनों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। बाप-बेटे दोनों को जेल की अलग-अलग कोठड़ियों में रखा गया। इस्लामी कानून का उस समय यह हाल था कि गैर-मुस्लिम लोगों को सरकार की तरफ से न्याय मिलने की कोई आशा नहीं होती थी। उन लोगों का जीवन सुरक्षित रह सकता था जो अपने सम्प्रदाय को तिलाजँलि देकर मुसलमान बनना स्वीकार कर लें। विशेषकर सिक्खों को तो सत्ताधरियों ने विद्रोही घोषित कर रखा था। इनका नगरों में जीना वैसे भी दूभर हो चुका था, ऐसे में इन्साफ की आशा रखना व्यर्थ था। काज़ी के बहकाने पर याहिया खान ने पिता व पुत्र को इस्लाम कबूल करने को कहा, अन्यथा मृत्युदण्ड सुना दिया। कालकोठड़ी में बन्द दोनों पिता-पुत्र को यातनाएँ दी गई और उन पर दबाव डाला गया कि वे इस्लाम कबूल कर लें परन्तु उन दोनों का विश्वास बहुत दृढ़ था, वे विचललित नहीं हुए। इस पर शाहबाज सिंह को कहा गया कि तुम्हारे पिता जी की हत्या कर दी गई है। अतः तुम इस्लाम स्वीकार कर लो और अपना जीवन सुरक्षित कर लो, क्यों व्यर्थ में अपनी जवानी गँवाता है ?

उधर सुबेग सिंह से कहते, देख ! तेरे पुत्र ने मुसलमान बनना परवान कर लिया है, अब तू जिद्द न कर और हमारी बात मान ले, तुम्हें सभी प्रकार की सरकारी सुख सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएँगी। परन्तु वे दोनों इस झूठे प्रचार से नहीं डगमगाए और दोनों ने एक-दूसरे की श्रद्धा भक्ति पर अटूट विश्वास दर्शाया। इस प्रकार उनकी कई प्रकार से कड़ी परीक्षाएँ ली गईं, परन्तु वे दोनों हर परीक्षा में सफल ही रहे। अन्त में शाही काज़ी ने चरखियों पर चढ़ाकर हत्या कर देने का फतवा (निर्णय) सुनाया। पिता व पुत्र को, दो पहियों वाली तेज़ की हुई टेढ़ी कटारों से जड़ी हुई दो चरखियों के सामने खड़ा कर दिया गया। फिर उनसे पूछा गया कि अब भी समय है इस्लाम स्वीकार कर लो, नहीं तो बोटी-बोटी नोच ली जाएगी। परन्तु गुरू के लाल टस से मस न हुए, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देनी स्वीकार कर ली परन्तु अपनी सिक्खी शान को दाग लगाने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर उनको चरखियों पर जोर से बाँध दिया गया और चरखियों को घुमाया गया। तेज कटारों ने सिंघों के तन चीरने प्रारम्भ कर दिए। शरीरों में से खून की धाराएँ बहने लगीं। सिंघों ने गुरूबाणी का सहारा लिया और गुरूवाणी पढ़ते-पढ़ते नश्वर देह त्यागकर गुरू चरणों में जा विराजे। लाहौर की जनता में सरदार सुबेग सिंह बहुत सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे, इनकी शहीदी की घटना जँगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई, यह समाचार दल खालसा के जत्थों में पहुँचा तो वह जवान उग्र रूप धारण कर बैठे, उन्होंने उस काण्ड का बदला लेने की योजना बनाई उन्होंने गोरिल्ला युद्ध का सहारा लेते हुए एक दिन अकस्मात् काज़ी के घर पर छापा मारा और उसे सदा की नींद सुलाकर वनों को लौट गए। शहीदी के समय शाहबाज सिंघ की आयु 18 वर्ष थी।

यहिया खान और शाह निवाज़ में सत्ता प्राप्ति का युद्ध
अभी सिक्खों के विरूद्ध यहिया खान और लखपत राय के दमनचक्रों का अन्त भी नहीं हो पाया था कि यहिया खान के छोटे भाई शाह निवाज़ खान ने पिता जक्रिया खान की सम्पत्ति के बँटवारे की माँग रख दी। बड़े भाई को ना नूकर करते देखकर शाह निवाज़ खान ने जालन्धर के फौजदार अदीना बेग से संधि करके लाहौर में डेरा जमा लिया। 13 मार्च सन् 1747 ईस्वी के ईद के दिन यहिया खान ईदगाह में नमाज पढ़ने आया तो शाह नवाज़ ने नमाज पढ़ने के बाद उसे और उसके साथियों को ललकारा और एक झड़प में उसके बहुत से सहयोगियों की हत्या कर दी। यहिया खान जान बचाकर भाग खड़ा हुआ और अपनी जनाना हवेली में जा छिपा। शाह नवाज ने उसे वहाँ जाकर गिरफ्तार कर लिया और लाहौर की सत्ता पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त यहिया खान कसूर के अफगानों की सहायता से कैद से भागकर दिल्ली पहुँच गया। उसे अपने जीवन में किए गए कुकर्मों से इतनी घृणा हुई कि वह सँसार से विरक्त होकर फर्रूखाबाद में मुसलमान फकीर बन गया। इस प्रकार यहिया खान द्वारा सिक्खों के नरसँहार का अन्त हुआ और खालसा को थोड़ी देर के लिए राहत मिली। लाहौर पर अधिकार जमाने के शीघ्र बाद ही शाह निवाज ने लखपत राय तथा अन्य कई अधिकारियों के घर तबाह कर दिए। उसने कौड़ामल को बड़े दीवान की पदवी प्रदान कर दी और उसे सम्मानित किया। सिक्खों के प्रति कौड़ामल का व्यवहार बहुत सहानुभूति पूर्ण था। इस प्रकार कुछ घरेलु झगड़ों के कारण और कुछ कौड़ामल के उचित परामर्श के कारण शाह निवाज ने सिक्खों के प्रति दमनचक्र को धीमा कर दिया। परन्तु वह स्वभाव से बहुत जालिम प्रवृत्ति का स्वामी था। पहले पहल उसने कई सिक्खों को बहुत भद्दी यातनाएँ देकर मारा था। यहिया खान से लाहौर की सत्ता छीनने के कारण दिल्ली की केन्द्रीय सरकार ने उसे मान्यता प्रदान नहीं की। अतः शाह निवाज को दिल्ली सरकार से खतरा महसूस होने लगा। इस डर के मारे शाह निवाज ने जालन्धर के फौजदार अदीना बेग के कहने पर अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमँत्रित कर लिया।

परन्तु बाद में मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने अब्दाली के आक्रमण को मद्देनजर रखते हुए उसे पँजाब प्रान्त का राज्यपाल मान लिया और उसे अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण को रोकने के लिए उत्साहित किया और पूरे सहयोग का आश्वासन दिया। इस पर सब परिस्थितियाँ बदल गई। अतः शाह निवाज ने अपनी नीति में परिवर्तन कर दिया और अहमदशाह अब्दाली के दूतों के साथ बहुत अभद्र व्यवहार किया। एक को तो उसके मुँह में सिक्का ढ़लाई करवाकर डाल दिया और उसे कड़ा दण्ड देकर मौत के घाट उतार दिया। जब यह समाचार काबुल नगर में अब्दाली को मिला तो उसने क्रोध में भारत पर आक्रमण करने का निर्णय ले लिया। वैसे भी वह कोई बहाना ढूँढ ही रहा था क्योंकि वह भी अपने स्वामी नादिरशाह की तरह भारत की दौलत को लूटना चाहता था। जैसे कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है कि राज्यपाल शाह निवाज की सिक्खों के प्रति नीति ढ़ीली होने पर सिक्ख पुनः धीरे-धीरे नगरों में आ गए। उन्होंने 30 मार्च सन् 1747 को श्री अमृतसर साहिब जी में एक किले की स्थापना का गुरूमता सरबत खालसा सम्मेलन में पारित करवा लिया। बस फिर क्या था, किला निर्माण के लिए एक उपयुक्त स्थान का चुनाव किया गया जो कि रामसर के निकट ही था। यहीं पर कार सेवा निष्काम अपने हाथों से भवन निर्माण की सेवा द्वारा समस्त सिक्ख किले के निर्माण के लिए कार्यरत रहने लगे। देखते ही देखते कुछ ही दिनों में किला तैयार हो गया। इस किले का नाम रामरोहणी रखा गया। इसमें 500 जवानों के लिए व्यवस्था हो सकती थी। सन् 1748 ईस्वी में यह प्रयोग करने के योग्य हो गया। भविष्य में इस किले का सिक्ख इतिहास में बहुत बड़ा योगदान रहा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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