SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

3. यहिया खान और सिक्ख-3

सिर धड़ की बाज़ी लगाकर लड़ने वाले सिक्ख शूरवीरों के सामने मेला देखने के लिए आए दर्शकों की भीड़ भला कहाँ टिक पाती, वैरी पक्ष के तमाशबीन सैनिकों की दाल नहीं गल पाई। सिक्खों ने ‘सत श्री अकाल’ का जयघोष करते हुए तलवारें खींची ही थी कि लखपत राय की सेना में भगदड़ मच गई और उसके सैनिक जान बचाने के लिए झाड़ियों की ओट ढूँढने लगे। पीछे बचे हुए सिक्ख जवानों ने कुशा घासव वृक्षों के तनों को बाँधकर नाव बना ली, जिसके सहारे धीरे धीरे वे रावी नदी को पार करते गए और रिआड़बी क्षेत्र में पहुँच गए। यह क्षेत्र रामा रंधवा का था। उसका व्यवहार तो सिक्खों के प्रति बहुत ही बुरा था। उसके बारे में यह लोक कहावत किंवदन्ती प्रसिद्ध थी:

देश न रामे के तुम जाईओ, भले ही तुम कन्दमूल माझे क्षेत्र में खाइओ

सिक्खों ने एकाध दिन वहाँ कड़ी धूप में व्यतीत किया। वे फिर श्री हरिगोबिन्द के पावन नौका स्थल से व्यास नदी को लाँघकर दुआबा क्षेत्र में प्रवेश कर गए और मीरकोट के काँटेदार वृक्षों के झुरमुट में शिविर लगा लिया। सिक्ख कई दिन से भूखे थे। इस समय इनके पास न रसद थी और न भोजन तैयार करने के लिए उपयोगी बर्तन इत्यादि। उन्होंने निकट के देहातों से आटा दाना खरीदा और घोड़ों को घास चरने के लिए खुला छोड़ दिया। जब वे ढ़ालों को तवे के रूप में प्रयोग करके रोटियाँ सेंकने में व्यस्त थे, तभी दुआबा क्षेत्र का फौजदार अदीना बेग अलावलपुर आदि पठानों सहित वहाँ आ धमका। सिक्ख इनसे डटकर लोहा लेने के लिए मन बनाने लगे कि तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि जसपत राय भी तोपें लेकर व्यास नदी पार कर चुका है। इस प्रकार सिक्ख असमँजस में पड़ गए, क्या करें और क्या न करें। ऐसे में उन्होंने भोजन बीच में ही छोड़कर घोड़ों की बाँगे पकड़ ली और क्रोध का कड़वा घूँट पीकर प्रभु आश्रय लेकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। वे चलते-चलते आलीवाल के पतन के रास्ते सतलुज नदी पार करके मालवा क्षेत्र में पहुँच गए। मालवा क्षेत्र सरदार आला सिंघ का था। अतः सिक्खों को यहाँ राहत मिली और वे अपने निकटवर्ती के यहाँ चले गये। मालवा क्षेत्र के सिक्खों ने अपने पीड़ित भाइयों की यथायोग्य सहायता की और मरहम-पट्टी इत्यादि करके उनकी खूब सेवा की। इस अभियान में लगभग सात हजार (7000) सिक्खों का बलिदान हुआ और लगभग तीन हजार कैद कर लिए गए। यह अधिकाँश घायल अवस्था में थे। इनमें वे सिक्ख भी शामिल थे जिन्हें बसोहली के पहाड़ी लोगों ने तथा अन्य शत्रुओं ने पकड़कर लाहौर भेज दिया था। ये सभी तीन हजार सिक्ख लाहौर नगर के दिल्ली दरवाजे के बाहर बड़ी निर्दयतापूर्वक कत्ल कर दिए गए। यह सिक्खों के नरसँहार का भयानक स्थल रहा है। सिक्खों के विरूद्ध लखपत राय के अभियान में इतनी अधिक हानि के कारण सिक्ख इतिहास में यह घटना छोटे ‘घल्लूघारे’ (भयानक विनाश) के नाम से विख्यात है। उधर घल्लूघारे के अभियान से वापस आते ही लखपत राय ने लाहौर पहुँचकर और अधिक अत्याचार आरम्भ कर दिए। उसने सिक्खों के गुरूद्वारों पर ताले डलवा दिए और कई एक तो गिरा भी दिए। कई पवित्र स्थानों पर उसने ‘श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी’ तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों को अग्नि भेंट कर दिया अथवा कुँओं में फिँकवा दी। इतना ही नहीं, उसने यह घोषणा भी करवा दी कि एक खत्री ने सिक्ख पँथ की सृजना की थी और अब मुझ एक अन्य खत्री ने इसका सर्वनाश कर डाला है। भविष्य में कोई भी व्यक्ति गुरबाणी का पाठ न करे, न ही कोई श्री गुरू नानक देव जी और श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी का नाम ले, ऐसा करने वालों का पेट फाड़ दिया जाएगा। अहँकारी लखपत राय ने यह आदेश भी दिया कि कोई भी व्यक्ति ‘गुड़’ शब्द का प्रोग न करें, क्योंकि ध्वनि की समानता के कारण ‘गुरू’ का स्मरण होने लग जाता है। अतः लोगों को गुड़ के स्थान परभेली शब्द का प्रयोग करना चाहिए। वह समझता था कि शायद सिक्खों को इस ढँग से मूलतः समाप्त किया जा सकता है। किन्तु:

जा कउ राखै हरि राखणहार ।।ता कउ कोइ न साकै मार ।।

सरदार सुबेग सिंघ जी व सरदार शाहबाज सिंघ जी
लाहौर नगर से कुछ मील की दूरी पर स्थित गाँव जम्बर के निवासी सरदार सुबेग सिंह जी बहुत ऊँचे आचरण वाले गुरसिक्ख थे। वह बहुमुखी प्रतिभावान, फारसी तथा पँजाबी भाषा के विद्वान, जक्रिया खान के शासनकाल में आप सरकारी ठेकेदारी करते थे। आप जी स्थानीय जनता में गणमान्य व्यक्तियों में से एक थे। आपकी लोकप्रियता ने आपको शासक दल में भी प्रतिष्ठित व्यक्तियों में सम्मिलित करवा दिया था। अतः आपकी योग्यता को मद्देनजर रखकर राज्यपाल जक्रिया खान ने आपको निरपेक्ष व्यक्ति जानकर लाहौर नगर का कोतवाल नियुक्त कर दिया। सरदार सुबेग सिंह जी ने कोतवाल का पदभार सम्भाले के तत्पश्चात् बहुत से प्रशासनिक सुधार कर दिए। जैसे हिन्दुओं के शँख की अथवा घड़ियालों की गूँजों पर लगा प्रतिबन्ध हटा दिया। कठोर मृत्युदण्ड को सहज मृत्युदण्ड में बदल दिया। परन्तु कट्टरपँथियों ने उनके यह सुधार स्वीकार्य नहीं थे। अतः उन पर निराधार आरोप लगाकर उनको इस पद से जल्दी हटवा दिया गया। सरदार सुबेग सिंह जी को पँजाब के राज्यपाल जक्रिया खान ने उग्रवादी सिक्ख दलों के साथ संधि करने के लिए मध्यस्थता की भूमिका करने को भेजा, जिसमें वह पूर्णतः सफल हुए थे। जक्रिया खान की मृत्यु जब भाई तारू सिंह के जूतों से हो गई तो उसके पश्चात् उसका पुत्र याहिया खान पँजाब का राज्यपाल बन बैठा और वह मनमानी करने लगा। उन्हीं दिनों सरदार सुबेग सिंह का युवा पुत्र शाहबाज सिंह जो कि अति सुन्दर और प्रतिभाशाली था, लाहौर के एक मदरसे में एक काज़ी से उच्च विद्या फारसी भाषा में प्राप्त कर रहा था। अध्यापक काज़ी शाहबाज सिंह की योग्यता, उसके आचरण और उसके डीलडौल से प्रभावित हुए बिना न रह सका। एक दिन काज़ी के मन में आया कि क्या अच्छा हो जो यह युवक मेरा दामाद बनना स्वीकार कर ले परन्तु यह तो सम्भव न था क्योंकि साम्प्रदायिक दीवारें बीच में आड़े आ रही थीं। अतः काज़ी विचारने लगा क्यों न शाहबाज सिंह को इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाए। उसने इस मँतव्य की पूर्ति हेतु धीरे-धीरे शाहबाज सिंह को इस्लाम सम्प्रदाय की अच्छाइयों को बताना शुरू कर दिया। भले ही शाहबाज सिंह का इस्लामी वातावरण में पालनपोषण हो रहा था परन्तु उसे बाल्यकाल से ही माता पिता द्वारा सिक्ख सम्प्रदाय के धर्मनिरपेक्ष मानववादी सिद्धान्त और समस्त विश्व के कल्याणकारी फिलासफी तथा गुरूबाणी, गुरूजनों के अद्भुत जीवन वृतान्तों से अवगत करवाया जा रहा था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.