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2. यहिया खान और सिक्ख-2

दीवान लखपतराय के हृदय को शान्ति तभी मिल सकती थी, यदि वह सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया और सरदार चड़त सिंघ और उनके साथियों को घोर यातनाएँ देने में सफल हो जाए। किन्तु वे उस समय लाहौर से बहुत दूर अपने अन्य दस हजार साथियों के साथ कान्हुवाल की झील के आसपास दिन काट रहे थे। उन दिनों नवाब कपूर सिंह, गुरदयाल सिंह हल्लेवालिया तथा अन्य महान नेता भी वहीं पर विराजमान थे। दीवान लखपत राय ने अपनी विशाल सेना के साथ सिक्खों का पीछा करना शुरू कर दिया। इस समय सिक्खों के पास न तो आवश्यक रसद थी और न ही गोला बारूद और न ही कोई किला था, फिर भी वे बड़ी दिलेरी के साथ लखपत राय की सेना का मुकाबला करने के लिए तत्पर हो गए, भले ही इस युद्ध में बहुत कड़े जोखिम झेलने की उन्हें शँका थी। पहले-पहल सिक्खों ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने शत्रु को भ्रम में डालने के लिए बहुत बड़ी सँख्या में अपने आश्रयस्थल त्यागकर भाग निकलने का नाटक किया। जब रात्रि के समय लखपत राय की सेना असावधान हो गई तो सिक्खों ने लौटकर एकदम छापा मारा और वे शत्रु की छावनी से बहुत से घोड़े तथा खाना-दाना छीनकर अपने शिविरों में जा घुसे। इस प्रकार का काण्ड देखकर लखपत राय बहुत खीझा। उसने सिक्खों के आश्रय स्थलों को आग लगवा दी और भागते हुए सिक्खों को मारने के लिए तोपों की गोलाबारी तेज कर दी। रावी नदी के पानी का बहाव धीमा तथा गहराई एक स्थान पर कम देखकर बचे खुचे सिक्खों ने नदी पार कर ली। वे केवल इस विचार से कि शायद पहाड़ों में चले जाने पर बला टल जाएगी परन्तु स्थानीय बसोहली, यशेल और कठूहे के लोगों ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया और उनके साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए। सिक्खों के साथ ‘आसमान से गिरे और खजूर में अटके’ वाली कहावत हुई। वे जिधर भी जाते उधर शत्रु युद्ध के लिए तैयार दिखाई देते। वे बुरी तरह फँस गए थे, न आगे बढ़ सकते थे और न पीछे मुड़ सकते थे। खैर, ऐसे में खालसे ने बहुत गम्भीरता से विचारविनिमय के उपरान्त यह निश्चय किया कि जैसे तैसे दो-दो, चार-चार की गिनती में गिआड़सी और दूसरे क्षेत्रों में बिखर जाओ। फिर कभी एकत्रित होकर लखपतराय से दो-दो हाथ कर लेंगे। तत्कालीन सिक्ख जत्थेदारों का कथन था कि युद्ध कला के दो रूप होते हैं। एक तो अपनी पराजय स्वीकार करके घुटने टेक देना, दूसरा दोबारा आक्रमण करने की आशा लेकर पहले तो शत्रु की आँखों से ओझल हो जाना और उपयुक्त समय पाते ही लौट कर वैरी के सामने छाती ठोककर जूझ मरना। अब पराजय स्वीकृति और समर्पण वाली बात को तो सोचा तक नहीं जा सकता था, क्योंकि खालसा गुरू के अतिरिक्त किसी के भी सम्मुख घुटने नहीं टेक सकता, इसलिए रणनीति के दूसरे रूप का ही सहारा लेना समय के अनुकूल था। खुर्द क्षेत्र पहुँचकर सिक्ख फिर से सँगठित हो गए और वे मैदानों की ओर पीछे मुड़कर लखपतराय की फौज पर पुनः टूट पड़े। उन्होंने आक्रमण के समय लखपतराय की तलाश की, किन्तु बहुत पीछे होने के कारण वह हाथ न आया। लखपत राय की सेना को खदेड़ते हुए सिक्ख सैनिक वापस रावी नदी पार करने के लिए तट पर पहुँचने में सफल हो गए किन्तु नदी का जल इस स्थान पर इतना तीव्र गति से बह रहा था कि कोई भी उसमें घुसने का साहस न कर पाता था। डल्लेवालिया सरदार गुरदयाल सिंघ के दो भाइयों ने साहस बटोरकर अपने घोड़े नदी में छोड़ दिए, किन्तु ठाठें मारती नदी के सामने किसी की पेश न चली, घुड़सवार और घोड़े देखते ही देखते जल-समाधि ले गए। इस करूणामय दृश्य से सिक्ख नेता कदाचित भी विचलित नहीं हुई। ऐसे में जस्सा सिंघ आहलूवालिया और अन्य कुछ सरदारों ने कहा कि डूबकर मरने की बजाय शत्रु से जूझकर मरना कहीं अच्छा है, इसलिए सरदार सुक्खा सिंघ के नेतृत्त्व में ‘सत श्री अकाल’ का जैकारा बोलकर और आखरी दाँव मानकर सिक्खों ने शत्रु सेना पर धावा बोल दिया। भीषण युद्ध हुआ। जिसमें जयपत का पुत्र हरिभजन राय, यहिया खाँ का बेटा नाहर खान, फौजदार सैफ अली, करमबख्श, रसूलन सहसिया तथा अगर खान आदि बहुत से प्रमुख लोग सदा की नींद सो गए।

इस आक्रमण में सिक्खों को भी जानमाल की भारी क्षति सहन करनी पड़ी। सुक्खा सिंघ की टाँग पर ज़बूटक (देशी छोटी तोप) का एक गोला लगा, जिसके कारण उसकी जाँघ की हड्डी टूट गई। परन्तु वह उसे बाँधकर वापस दल में आ मिले। इस नाजुक समय में जस्सा सिंघ आहलूवालिया ने अन्य सरदारों की सहायता से एक भारी आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप वैरियों की नाकाबंदी अस्त-व्यस्त हो गई। इस स्थिति से लाभ उठाकर सिक्ख योद्धा घनी झाड़ियों में जा घुसे। इसी बीच रात हो गई। सिक्ख इतिहास में यह पहला अवसर था कि जब एक ही दिन में सिक्खों को इतनी भारी क्षति सहनी पड़ी। फलस्वरूप इस दिन को ‘घल्लूघारे’ (घोर तबाही) का दिन पुकारा जाता है। यह पहला और छोटा ‘घल्लूघारा’ था। दूसरा और बड़ा ‘घल्लूघारा’ 5 फरवरी, 1762 ईस्वी को अहमदशाह अब्दाली (दुर्रानी) के साथ रणक्षेत्र में हुआ। अँधकार होने के कारण युद्ध समाप्त हो गया। लखपत की सेना ने समझ लिया कि सिक्ख बुरी तरह पराजित होकर भाग गए हैं। अतः वह बेखौफ होकर अपने शिविरों में आराम करने लगे। उधर झाड़ियों में से निकलकर खालसा दल पुनः एकत्रित हो गया, वे सभी बेहाल थे, परन्तु उनके सरदार जस्सा सिंह ने कहा कि खालसा जी ! वैरियों को आघात पहुँचाने का यही उपयुक्त अवसर है, हमें भागते हुए देखकर वैरी निडर होकर सो गए हैं। इस समय उन्हें नींद ने दबाया हुआ है, इसलिए धावा बोलकर उनसे कुछ घोड़े और अस्त्र-शस्त्र आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। सभी सिक्ख जवानों ने इस सुझाव पर पूरी तरह अमल करने का मन बना लिया और आक्रमण कर दिया। उन्होंने देखते ही देखते सोये हुए अनगिनत शत्रुओं को सदा की नींद सुला दिया और वैरियों द्वारा मशालें जलाने और सतर्क होने से पूर्व ही बहुत से बढ़िया घोड़े तथा हथियार छीनकर काँटेदार झाड़ियों में जा घुसे। प्रातःकाल लखपत राय अपनी विशेष कुमक लेकर उनकी सहायता के लिए आ पहुँचा। अनगिनत मुनसिफ (अवैतनिक स्थानीय लोग) भी उसके साथ थे। लखपत राय की सेना के आगे ढोलवँदन कर रहे थे। ढोल बजाने वालों के पीछे थे ग्रामों में बने तोड़े पलीता, बेल, नेजे, कुल्हाड़िया और गँडासाधारी सैनिक। वे लोग झाड़ियों में इस प्रकार झड़ रहे थे मानों शिकारी कुत्ते झाड़ियों में छिपे हुए हिरनों को ढूँढ रहे हों। यह समय जँगल में से बाहर आने के लिए बड़ा विकट समय था किन्तु सिक्ख सूरमाओं ने वाहिगुरू (परमात्मा) पर भरोसा रखकर एक बार फिर जोरदार आक्रमण किया, जिससे मुलखिया (अवैतनिक लोग) भाग निकले।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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