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1. यहिया खान और सिक्ख-1

यहिया खान का शासनकाल और छोटा घल्लूघारा (विपत्तिकाल)
जक्रिया खान की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा बेटा यहिया खान पँजाब प्रान्त का राज्यपाल बना। उसने भी अपने पिता वाली सिक्ख विरोधी नीति को ही अपनाया। जक्रिया खान के शासनकाल से ही लाहौर की प्रशासनिक व्यवस्था में दीवान लखपात राय और जसपत राय नामक दो हिन्दू भाईयों का बहुत प्रभाव था। लखपत राय पँजाब प्रान्त का दीवान (कोषाध्यक्ष) तथा बड़ा भाई जसपत राय ऐमनाबाद नगर का फौजदार (सैनिक प्रशासक) नियुक्त था। वास्तव में ये कलानौर जिला गुरदासपुर के क्षत्रीय परिवार से सम्बन्ध रखते थे। सरकारी नौकरियों में चापलूसियों के कारण पदोन्नति करते करते वरिष्ठ पदवियों पर आसीन हो गए थे। ये दोनों भाई उन व्यक्तियों में से थे जो स्वयँ सिद्धि के लिए अपना धर्म इमान बेचकर अपने जम्मीर / अन्तकरण का दमन करने के लिए तत्पर रहते थे। वे अपने पदों को बनाए रखने के लिए मुगल प्रशासन के अत्याचारों को उचित ठहराते थे, फलस्वरूप उनका एक ही लक्ष्य होता कि किसी भी प्रकार स्वयँ को मुगलों का हितैषी दर्शाया जा सके। सरकारी सुनिश्चित नीतियों के अनुसार मुगलों की गश्ती सैनिक टुकड़ियाँ सिक्खों का सफाया करने पर तुली हुई थीं। इसका विरोध करने के लिए दल खालसा ने स्वयँ को 25 छोटे छोटे दलों में विभाजित करके शत्रु से गोरील्ला युद्ध द्वारा सामना करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसे में सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया और सुक्खा सिंह माड़ी कम्बों के दस्ते मुगलों की गश्ती फौज से टक्कर लेते हुए डलोझल पहाड़ी क्षेत्र की तरफ बढ़ रहे थे। तभी स्थानीय प्रशासन फौजदार जसपत राय ने सिक्खों का पीछा करके उन्हें ऐमनाबाद की ओर खदेड़ दिया। स्थानीय चौधरी भी अपनी अपनी छोटी छोटी सैनिक टुकड़ियों के साथ जसपत राय के साथ आ मिले। इस पर सिक्ख जत्थे बदोरी की तरफ चल पड़े। वहीं पर काँटेदार झाड़ियों वाले जँगल में सिर छिपाकर जब भोजन पानी का प्रबन्ध् करने लगे, तभी जसपत राय ने उन्हें सँदेश भेजा कि वे वहाँ से तुरन्त कूच कर दें। इसके उत्तर में बड़ी विनम्रता से सिक्खों ने उत्तर दिया कि वे तीन दिन से भूखे प्यासे हैं, ऐसी दशा में वे भोजन किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते। हम कल सुबह रोढ़ी साहब के स्थान पर वैशाखी के मेले में भाग लेकर स्वयँमेव ही आगे की ओर चल देंगे। जिस पर भी जसपत राय ने वही पुराना सँदेश दोहराया किन्तु सिक्खों का उत्तर भी पुराना ही था कि हमारा तुम से कोई वैर नहीं है। हम केवल भोजन करके दूसरे क्षेत्रों में प्रस्थान कर जायेंगे। यही उत्तर मिलते ही जसपात राय आग बबूला हो उठा। इस पर वह बोला कि ‘मैं तो तुम्हारा सर्वनाश करने पर तुला हूँ और तुम लोग हो कि मेरे ही क्षेत्र में से सनद प्राप्ति के लिए कामना करते हो।’ उसने सिक्ख जत्थों को घेरे में ले लिया। उस समय सिक्खों ने अभी साग-पात उबालने के लिए चूल्हे की आँच पर रखा ही था। उन्होंने विवशता में बिन आई मौत मरने के स्थान पर शत्रु का सामना करके वीरगति प्राप्त करने का मन बना लिया। उन्होंने सरदार जस्सा सिंह के नेतृत्त्व में शत्रु का सामना इतने आत्मबल से किया कि जसपत राय की सेना और उसके सहायक गाज़ी लूटमार प्राप्ति के अवैतनिक सैनिक भाग उठे। इस कड़ी परीक्षा के समय एक निबाहू सिंघ नामक सिक्ख जवान ने साहस करके हाथी पर बैठे जसपतराय पर सफलतापूर्वक धावा बोल दिया। उसने हाथी की पूँछ को पकड़कर हाथी पर चढ़ने की चेष्टा की जो कि सफल रही और उसने एक ही बार में अपनी तलवार से जसपतराय का सिर काटकर विजय के नारे लगा दिए। चारों ओर बोले सो निहाल, सत श्री अकाल की गूँज सुनाई देने लगी। इस पर शत्रु सेना रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ी हुई, जैसे ही सिक्खों के हाथ मैदान आया, उन्होंने नगर में से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खूब भण्डारे चलाए। तब सिंघों के समक्ष जसपतराय के परिवार की तरफ से विनती पहुँची कि उसका सिर उन्हें लौटा दे ताकि शव का दाह सँस्कार किया जा सके। इस पर सिक्खों ने सिर के बदले हर्जाने के रूप में मध्यस्थ गुँसाईं कृपाराय बलोंकी के द्वारा 500 रूपये लेकर जसपत राय का सिर लौटा दिया। जसपतराय का सिर काटने की घटना की सूचना लाहौर में शासक वर्ग में पहुँची, वहाँ क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। दीवान लखपतराय के क्रोध का तो पारावार न रहा, वह कहने लगा कि सिक्खों ने मेरे छोटे भाई की हत्या की है, मैं अब इन सिक्खों का सर्वनाश करके ही दम लूँगा। वह तुरन्त यहिया खान की शरण में पहुँचा और अपनी पगड़ी उतारकर उसके चरणों में रखकर यह माँगा कि मुझे सिक्खों का सर्वनाश करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाए। यहिया खान को तो बिना माँगी मुराद मिल गई। उसने लखपतराय के निवेदन को स्वीकार कर लिया। इस पर यहिया खान ने सिक्खों के नरसँहार की एक विशाल योजना तैयार की और उसको क्रियान्वित करने के लिए, इसका नेतृत्त्व लखपतराय को दिया। लखपतराय ने एक-एक सिक्ख के सिर के लिए इनाम भी निश्चित कर दिया और आदेश भी जारी कर दिया कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की मर्यादा अनुसार जीवन जाने वाले प्रत्येक सिक्ख का पेट चाक कर दिया जाए। दीवान लखपतराय ने सन् 1745 ईस्वी के मार्च माह के पहले सप्ताह में सर्वप्रथम लाहौर नगर के सिक्ख दुकानदारों तथा सरकारी कर्मचारियों को पकड़कर जल्लादों के हवाले कर दिया। बहुत सारे स्थानीय हिन्दू सिक्खों के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें से दो महानुभाव उल्लेखनीय हैः दीवान कौड़ा मल और दीवान लच्छवी दास। ये दोनों सज्जन लखपत राय के गुरू संत जगत भक्त को साथ लेकर लखपत राय से यह प्रार्थना करने के लिए पहुँचे कि निर्दोष सिक्खों पर अत्याचार न किया जाए किन्तु दीवान लखपत राय के कान पर जूँ तक न रेंगी। उसने आशा के विपरीत बड़े कठोर शब्दों में उत्तर दिया कि आप लोग तो क्या यदि भगवान भी स्वयँ चलकर यहाँ आ जाएँ तब भी मैं सिक्खों को नहीं छोड़ूँगा। गुरू होने के नाते संत जगत भक्त ने भी लखपत राय को समझाने की चेष्टा की किन्तु गुरू के सभी तर्क निरर्थक सिद्ध हो गए। जब सोमवार की अमावस को यह रक्तपात न करने पर दबाव डाला गया, तब भी उस पापी हृदय में कोई परिवर्तन नहीं आया, उल्टे बड़े अनादरपूर्वक गुरू संत जी से कहा कि आपको इन बातों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। आपको हस्तक्षेप न करके अपने डेरे में रहना चाहिए। निराशावश गोसाँईं जी के मुख से ये क्रोध भरे शब्द निकले कि ‘जिन के बल पर तुम अभिमानी बने बैठे हो, वही लोग तेरा सर्वनाश करवाएँगे। तेरी जड़ भी नहीं बचेगी और सिक्ख पँथ दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होगा’।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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