भाई तिलका जी श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के समयकालीन एक सिक्ख हुए हैं। आप
गढ़शँकर, जिला होशियारपुर के निवासी थे। आपने श्री गुरू अरजन देव जी से चरण-पाहुल
लेकर सिक्खी धारण की थी। गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने उन्हें जिला होशियारपुर का
प्रचारक नियुक्त किया हुआ था। नगर के लोग आपकी जीवन शैली से बहुत प्रभावित थे। भाई
तिलका जी के निकट ही एक वृद्ध योगी का आश्रम था। आपके गुरमति प्रचार के कारण योगी
की मान्यता लोगों में घटती जा रही थी। इस कारण योगी मन ही मन ईर्ष्या की आग में जलता
ही रहता था। योगी भान्ति-भान्ति के पाखण्ड करके लोगों पर प्रभाव डालने की चेष्टा
करता रहता था, परन्तु गुरमति सिद्धान्तों के समक्ष उसका ढोंग नही चल पा रहा था। एक दिन योगी ने एक नया पाखण्ड रचा। उसने अपने शिष्यों के माध्यम
से यह सूचना फैला दी कि शिव रात्रि की रात में योगी को शिव के दर्शन हुए हैं और
भोलेनाथ ने उसे वरदान दिया है कि जो व्यक्ति उसके दर्शन करेगा उसे एक वर्ष के लिए
स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। इस प्रकार यह समाचार समस्त क्षेत्र में फैल गया। भोले
भाले व अज्ञानी लोग योगी के चँगुल में फँसने लगे। भारी सँख्या में लोग योगी के
दर्शन करने लगे। किन्तु विवेकी पुरूषों पर जो गुरूबाणी समझते थे, कोई प्रभाव न हुआ।
इस बात से योगी छटपटा उठा, वह तो चाहता था कि किसी न किसी कारण भाई तिलका जी उसके
आश्रम में पहुँचे किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस पर योगी ने अपने सहायकों की सहायता
से भाई तिलका जी को सन्देश भेजा: कि वह योगी के दर्शन करे और आपके लिए विशेष
व्यवस्था है और आपको पूरे पाँच वर्ष के लिए स्वर्ग की प्राप्ति होगी। भाई साहिब तो
पूर्ण गुरूसिक्ख थे। उन्होंने योगी की एक न सुनी और कहा: योगी ढोंगी है। अतः मैं
उसके पाखण्ड जाल में फँस ही नही सकता। जब योगी की सभी युक्तियाँ विफल हो गई तो वह
अन्त में स्वयँ भाई तिलका जी के द्वारा पर उनको दर्शन देने आया। जब भाई तिलका जी को
योगी के आने की सूचना मिली तो उन्होंने अपने घर के दरवाजे बन्द कर लिए। योगी ने आकर
खटखटाया व ऊँचीं आवाज में कहने लगा: मैं आपके लिए स्वयँ आया हूं। आप मेरे दर्शन करो
और स्वर्ग लोक प्राप्त करो।
इस पर भाई तिलका जी ने उत्तर दिया: कि मैं दरवाजा नहीं खोलूँगा।
क्योंकि मैं तेरे जैसे पाखण्डी की सूरत भी देखने के लिए तैयार नहीं हूं। तमु लोगों
में भ्रमजाल फलाकर लूट रहे हो। मैं गुरू का सिक्ख हूं। अतः मुझे स्वर्ग की कोई
आवश्यकता ही नहीं। हम गुरू चरणों में ऐसे कई स्वर्ग न्यौछावर कर सकते हैं। यह उत्तर
सुनकर योगी को भारी आघात हुआ। उसका सर्वत्र काँप उठा। वह सोचने लगा: कि ये कैसे
सिक्ख हैं जो अपने गुरू जी शिक्षाओं को स्वर्ग से भी उत्तम मानते हैं। यदि यह सिक्ख
इतना महान है तो इसका गुरू कितना महान होगा। वह सोचता रहा कि उस गुरू का उपदेश व
बाणी कितनी आत्मज्ञान पूर्ण होगी, जिसे पढ़कर यह इतने सृदृढ़ हो गये हैं और मेरे जैसे
पाखण्डियों का भण्डा फोड़ देते हैं। इसलिए शायद यह धोखा नहीं खा सकते। योगी ने भाई
तिलका जी को गुरू की दुहाई दी और कहा: कृप्या दरवाजा खोलें और मुझे आप दर्शन दें और
मुझे भी उस गुरू के दर्शन करवाओ जिसके तुम शिष्य हो। इस पर भाई जी ने दरवाजा खोल
दिया। भाई तिलका जी ने योगी से कहा: सत्य मार्ग के पँथी पाखण्ड नहीं करते वह तो एक
निराकार प्रभु के चिन्तन मनन को ही साधन बनाकर प्रेम भक्ति द्वारा इस भवसागर से पार
चले जाते हैं। योगी के अनुरोध पर भाई तिलका जी ने स्थानीय संगत को साथ लेकर गुरू
दर्शनों के लिए श्री अमृतसर साहिब जी प्रस्थान कर गये। वहाँ योगी ने पाया कि श्री
गुरू हरगोबिन्द साहिब जी तो एक युवक हैं।उसने शँका व्यक्त की: इतनी "अल्पायु ही में
इन्हें ब्रहमज्ञान" कैसे प्राप्त हो गया ? उत्तर में गुरू जी ने बताया: ज्ञान का
संबंध आयु से ही नहीं होता, ज्ञान का संबंध तो उपदेश कमाने से होता है।