5. अब्दुलसमद खान और सिक्ख-5
ऐसा कोई सिक्ख परिवार न बचा, जिस पर दो चार दावों का पर्चा दाखिल न किया गया हो। इस
समय सिक्खों की सुनने वाला कोई न था। अँधे प्रशासन ने झूठी गवाही के आधार पर सभी
सिक्खों की खेती बाड़ी जब्त कर ली और कोढ़ियों के भाव सम्पत्ति नीलाम कर दी। मुआवजा
पूरा न होने पर घर का सामान अथवा मवेशी छीन लिए। कई सिक्खों को झूठी हत्याओं के
आरोप में बन्दी बना लिया। जिस सहजधारी सिक्खों के बेटे केशाधरी सिक्ख बने थे। उनका
अपमान किया गया और उनको दण्डित भी किया गया। इसके अतिरिक्त जो सिक्ख सरकारी सेना
में भर्ती किए गए थे, उनको दूरदराज सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनाती के लिए भेज दिया
गया। जिन वृद्ध निहंगों को भत्ता देकर किसी प्रकार के आन्दोलनों में भाग न लेने के
लिए कहा गया था, उनका भत्ता समाप्त कर दिया गया और जिन सिक्खों को लगान क्षमा का वायदा करके खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था, उनकी भूमि छीन ली गई। जब
बहुत से बन्दी बनाये गए और सिंघों की हत्या कर दी गई और कइयों को यातनाएँ देकर
इस्लाम स्वीकार करने पर विवश किया गया तो प्रभावित सिक्ख परिवारों ने तुरन्त
राजपूताने के नरेशों के पास नौकरी कर रहे अपने निकटवर्ती जवानों को सूचना भेजी कि
वह तुरन्त अपने माँ बाप अथवा परिवारों की सुरक्षा के लिए कोई उचित कार्यवाही करें।
यह दुखाँत सूचना सुनते ही समस्त सिक्ख सैनिकों ने छुट्टी अथवा त्यागपत्र देकर अपने
घरों की राह ली। उन्होंने मिलकर आगामी खतरों से खेलने के लिए, पूरे पँजाब प्रान्त
में गोरिला युद्ध के सहारे आतँक फैलाने का निर्णय लिया और रास्ते में महाराजा आला
सिंह के पास आकर अपनी करूणामय दास्तान सुनाई।
इस पर सरदार आला सिंह जी ने उनको यथाशक्ति अस्त्र शस्त्र अथवा
धन इत्यादि देकर आश्वसन दिया कि वह सदैव उनके साथ हैं और समय-समय पर हर प्रकार का
सहयोग दिया जाता रहेगा। बस फिर क्या था ? वे सामुहिक रूप में श्री अमृतसर साहिब जी
पहुँचने के लिए चल पड़े, परन्तु प्रशासन को समय रहते उनके आने का समाचार मिल गया। वे
व्यास नदी पार न कर सकें, इसलिए प्रशासन ने मुख्य पतनों पर कड़े पहरे बिठा दिए।
किन्तु सिक्खों ने छोटे-छोट समूहों में आकर उपल क्षेत्रों से नदी पार कर ली और वे
निर्धारित लक्ष्य को लेकर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने शत्रुओं पर टूट पड़े।
सभी सिक्ख एकता के सूत्र में होते हुए भी 100 अथवा 200 जवानों की टुकड़ियों में
गोरिल्ला युद्ध लड़ने लगे, इसलिए ये लोग शाही लश्कर की झड़पों से बचने के लिए घने वनों
को अपना आश्रय स्थल बनाते। शाही लश्कर ने ऐश्वर्य का जीवन जीया हुआ होता था, वे लोग
बिना साधनों के झाड़ीदार काँटों वाले जँगलों में घुसने का साहस नहीं कर पाते। यदि
किसी मुगल फौजी टुकड़ी ने सिक्खों का पीछा किया तो वे बुरी तरह पिटी। उसका कारण यह
था कि सिक्ख स्थानीय क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से परिचित होते और वे झाड़ियों में
छिपकर आँखों से ओझल हो जाते। जब शत्रु उनका पीछा करता हुआ अकेला पड़ जाता तो वे फिर
से शत्रु पर आक्रमण कर देते। इस प्रकार घने जँगलों में सरकारी सेना झाँसे में फँसकर
मारी जाती। धीरे-धीरे सिक्ख गोरिल्ला इकाइयों ने घने वनों के भीतर अपने स्थाई अड्डे
बना लिए और वे उन लोगों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतारते। जिन्होंने उनके घर-बार
नीलाम करवाए थे अथवा खरीदे थे। इसके अतिरिक्त उन सभी सरकारी अधिकारियों को समाप्त
कर दिया जिन्होंने उनके किसी प्रियजन को यातनाएँ दी थीं अथवा बन्दी बनाकर
मृत्युदण्ड दिया था। इस घमासान में पूरे पँजाब प्रान्त में तहलका मच गया। बहुत से
डरपोकों ने स्वयँ ही बहुत सी सिक्खों की सम्पत्ति वापस लौटा दी। इस गृहयुद्ध से जहाँ
सरकारी तँत्र छिन्न-भिन्न हुआ, वहीं कानून व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गई। इस समय का
लाभ का उठाते हुए कई समाज विरोधी तत्व लूटमार करने निकल पड़े। जिस कारण जनसाधारण में
असुरक्षा की भावना बढ़ती ही चली गई। गाँव-देहातों में अँधेरा होते ही स्थानीय लोग
अपने द्वारा बनाई गई समितियों द्वारा अपने-अपने गाँव की सुरक्षा के लिए पहरा देते।
परन्तु वे बड़े पैमाने पर होने वाले आक्रमणों के सामने टिक नहीं पाते। जब तक सरकारी
सहायता उन तक पहुँचती। आक्रमणकारी अपना काम करके अदृश्य हो जाते। दूसरी तरफ मुगल
सेना का मनोबल भी हर रोज के खून खराबे में टूट चुका था। वे भी किसी न किसी रूप में
शाँति चाहते थे क्योंकि प्रतिदिन उनको भी जानमाल दोनों प्रकार की भारी क्षति उठानी
पड़ती थी। इस अराजकता भरे वातावरण में व्यापार और खेतीबाड़ी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
स्थान-स्थान पर खाद्य पदार्थों का अभाव देखने को मिलने लगा। अकाल जैसी स्थिति चारों
ओर दिखाई देने लगी। सरकारी खजाने खाली होने लगे। कहीं से भी लगान इत्यादि प्राप्त
होने की सम्भावना समाप्त होने लगी क्योंकि लोग आतँक के भय से खेतीबाड़ी छोड़कर
प्रान्त से पलायन करने में ही अपना भला देखने लगे। जब राज्यपाल अब्दुलसमद खान को
अपनी नीतियाँ बुरी तरह असफल होती दिखाई देने लगी तो वह फिर से शान्ति स्थापित करने
के लिए सिक्खों को मनाने के लिए प्रयत्न करने लगा यानि कि फिर से थूक कर चाटने लगा।
उससे समस्त सिक्खों के विरूद्ध जारी अध्यादेश वापिस ले लिए और अमृतसर में श्री
दरबार साहब जी के दर्शनों पर लगा प्रतिबन्ध भी हटा लिया और घोषणा कर दी कि साधारण
सिक्ख नागरिक सामान्य रूप में खेतीबाड़ी इत्यादि के कार्य करते हुए अभय होकर रह सकते
हैं। यह मुगल सत्ताधरियों की बहुत बड़ी पराजय थी परन्तु अब बहुत देर हो चुकी थी।
सिक्खों का मुगलों से विश्वास उठ गया था। वे अब किसी झाँसें में नहीं आना चाहते थे
और उन्होंने जीवन जीने की नई राहें चुन ली थी। अब उनका लक्ष्य सत्ता प्राप्ति का
था। वे अब किसी स्वतन्त्र क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे। उनको
अपने गुरू के वचन याद आने लगे थे कि एक समय आएगा जब सिक्ख अपनी किस्मत के स्वयँ
स्वामी होंगे, इसीलिए प्रत्येक सिक्ख युवक गुनगुनाता थाः
‘राज करेगा खालसा, आकी रहे न कोय’ ।।
नई परिस्थितियों में सिक्ख युवकों ने अपने हथियार नहीं त्यागे।
वे तो पक्के सिपाही बन चुके थे केवल समय का लाभ उठाने के लिए उत्पात करना त्याग दिया
और फिर से अपने केन्द्रिय स्थान श्री अमृतसर साहिब जी में एकत्रित होने लगे। इस बीच
बहुत से मुगलों द्वारा सताए गए युवक केशधारी बनकर इन सिक्ख सैनिक टुकड़ियों के सदस्य
बन चुके थे। जब सशस्त्र सिक्ख युवकों के काफिले हथियार फैंकने पर सहमति न कर पाए तो
प्रशासन ने दोहरी नीति बनाई। इस नीति के अन्तर्गत शान्ति प्रिय सिक्ख नागरिकों को
किसी भी प्रकार से सताया नहीं जाएगा, केवल उग्रवादी शस्त्रधारी युवकों के काफिलों
का ही दमन किया जायेगा। परन्तु इस सरकारी नीति पर कोई सिक्ख विश्वास करने को तैयार
न था। उन्हें मालूम था कि इन सत्ताधारियों का कोई दीन-धर्म नहीं है। वह लोग पल-पल
अपनी बात को स्वयँ ही काटकर झूठी साबित कर देते हैं यानि खुद ही थूकते हैं और खुद
ही चाटते हैं और इनके वायदे केवल छलावा भर ही हैं। अतः सिक्ख युवकों के काफिलों ने
अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कई जेलें तोड़े दी और वहाँ पर कैद सभी बन्दियों को अपना साथी
बना लिया। कैदियों की सूचनाओं के आधार पर उन सभी हिन्दू व मुसलमान सरकारी अधिकारियों
पर हमले शुरू कर दिए जो कि अत्याचार करने में अगली पँक्तियों में थे। सिक्खों की इस
प्रकार की कार्यवाही से तँग आकर मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ने पँजाब के राज्यपाल
अब्दुलसमद खान को कमजोर प्रशासक जानकर स्थानाँतरित करके मुलतान प्रान्त में भेज दिया
और उसके स्थान पर पँजाब का नया राज्यपाल उसी के पुत्र जक्रिया खान को नियुक्त किया।
इसकी नियुक्ति सन् 1726 में हुई। यह अपने पिता से कहीं कठोर और जालिम था।