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4. अब्दुलसमद खान और सिक्ख- 4

मुगल प्रशासन की सिक्खों के प्रति विफल नीतिया:
जब तथाकथित बन्दई और तत्व खालसा में एकता स्थापित हो गई तो स्वयँ को पुनः लामबद्ध करने लगे। उन्होंने श्री दरबार साहिब, अमृतसर साहिब को केन्द्र मानकर यहीं अपनी सैनिक गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दी। प्रशासन को इस बात की चिन्ता सताने लगी कि कहीं सिक्ख पुनः कोई नया आन्दोलन न चलाएँ जो उनका स्वतन्त्रता सँग्राम हो। अतः समय रहते इनका दमन करना चाहिए। यूँ तो वह सिक्खों की शक्ति क्षीण करने में कई प्रयास कर चुके थे। पहले सशस्त्र सिक्ख युवकों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया था, दूसरों को भत्ता देकर निष्क्रिय कर दिया था और बाकी राजपुताने जाकर स्थानीय सेना में भर्ती हो गए थे। अतः उनकी दृष्टि में अब उत्पात करने योग्य कोई बाकी न बचा था। परन्तु नई परिस्थितियों में सिक्ख युवक सँगठित होकर बहुत से छोटे-छोटे समूहों में विचरण कर रहे थे। सिक्खों का समूहों में घूमना मुगल सत्ताधरियों को एक आँख न भाया, वह सिक्खों के अस्तित्त्व को ही मिटा देने का लक्ष्य लिए बैठे थे। अतः वे लोग राज्यपाल अब्दुलसमद खान को बार-बार श्री अमृतसर साहिब नगर पर आक्रमण करने की प्रेरणा दे रहे थे। जबकि अब्दुलसमद को अहसास हो चुका था कि ऐसा करने से पुनः गृहयुद्ध छिड़ जाएगा क्योंकि सिक्खों ने बदला लिए बिना नहीं रहना। यदि एक बार गृहयुद्ध शुरू हो गया तो पूरे प्रान्त में पुनः अराजकता फैल जाएगी और कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने में जरा भी देर नहीं लगेगी।

श्री दरबार साहब जी में भाई मनी सिंह जी ने गुरू मर्यादा प्रारम्भ करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। अतः वह प्रत्येक क्षण सिक्खी प्रचार में लगाने लगे थे। उनके प्रचार के प्रभाव में आकर अनेकों युवकों ने अमृत धारण करके केशों वाला न्यारा स्वरूप धारण कर लिया, जिससे केसरी अथवा नीली पगड़ियों वाले युवकों के समूह दिखाई देने लगे। इन युवकों में मोहकम सिंह नामक युवक भी था जो उन्हीं दिनों भाई मनी सिंह जी से प्रेरणा पाकर सिंह सज गया था। वह युवक श्री अमृतसर साहिब जी के गाँव ओहरी के निवासी चूहड़मल का छोटा पुत्र था। इसका बड़ा भाई रामजीमल विरोधी विचारों वाला व्यक्ति था, उसे सिक्खों से द्वेष था। भाइयों के बँटवारे में रामजीमल ने टुँडासर ग्राम वाला फलों का बगीचा हथिया लिया था। मोहकम सिंह ने अपने जत्थे के लिए कुछ फल भाई से माँगे परन्तु उसने देने से साफ इन्कार कर दिया और कहा कि मैं बगीचे के फल सिक्खों को देकर उन्हें पलीत (अपवित्र) नहीं करना चाहता। बस फिर क्या था, युवकों का यह दल इस भारी अपमान को सहन नहीं कर पाया और उन्होंने बलपूर्वक फल तोड़ लिए और कहा कि जा ! जो कुछ करना है, कर लेना। इस पर रामजीमल सीधा लाहौर गया और वहाँ पर राज्यपाल अब्दुलसमद खान को मिला। उसने बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया और सरकार को सिक्खों का दमन करने का आग्रह किया और कई प्रकार के दबाव भी डाले, यदि सरकार हमारी रक्षा करने में असमर्थ है तो हम लगान नहीं देंगे, इत्यादि। अब्दुलसमद खान ने वैसाखी के पर्व के मद्देनजर रखकर एक विशाल योजना के अन्तर्गत लाहौर से शाही लश्कर श्री अमृतसर साहिब जी को घेरने के लिए भेज दिया जिससे वहाँ आए सभी दर्शनार्थी भी धर लिए जाएँ और सिक्खों को मौत के घाट उतार दिया जाए। असलम खान के नेतृत्त्व में बड़ी सँख्या में फौज ने वैसाखी पर्व पर श्री अमृतसर साहिब जी को घेर लिया। पर्व के कारण दूरदराज से सिक्ख सम्मलेन में भाग लेने के लिए आए हुए थे। अतः दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना ने पाँच दिन तक नगर को घेरे रखा। अन्त में सिक्खों ने ‘करो या मरो’ का खेल प्रारम्भ कर दिया। इससे मुगल सेना के पैर उखड़ गए और उनका सहयोगी पट्टी क्षेत्र के चौधरी का दीवान खजाँची हरमा मारा गया और स्वयँ देवा घायल अवस्था में रणक्षेत्र से भाग गया। फौजदार असलम भी बुरी तरह पराजित होकर लाहौर लौट गया। इस विजय ने सिंघों के साहस को और बढ़ा दिया, वे सोचने लगे यदि एकता और मनोबल से शत्रु का सामना किया जाये तो क्या नहीं किया जा सकता। इस विजय ने जहाँ सरकारी लश्कर की कमर तोड़ दी वहीं सिक्खों के हाथ बहुत से घोड़े व अस्त्र-शस्त्र लगे। लाहौर के राज्यपाल अब्दुलसमद खान इस पराजय के अपमान को सहन नहीं कर सका। उसने सिक्खों को रोंध डालने की कुछ नई योजनाएँ बनाई यानि कि थूक कर चाटा और उसके अन्तर्गत कुछ विशेष निम्नलिखित आदेश जारी कर दियेः

1. जिन लोगों को बन्दा सिंह बहादुर के समय उसके सैनिकों द्वारा किसी भी प्रकार की क्षति उठानी पड़ी है, वे अपने दावे स्थानीय फौजदारों के समक्ष प्रस्तुत करें। प्रशासन उनके दावों के बदले में सिक्खों की सम्पत्ति कुर्क करके अथवा नीलाम करके सभी मुआवजे पूरे करेगा। 2. जो लोग उस समय "नागरिकों की हत्या के दोषी" पाए जाएँ तो उन पर "मुकद्दमा" चलाया जाएगा। 3. जिस हिन्दू परिवार का कोई सदस्य अगर सिक्ख बनता है तो उसके माँ बाप को दण्डित किया जाएगा। उपरोक्त अध्यादेशों का ढिँढोरा गाँव-गाँव में करा दिया गया। बस फिर क्या था, लालची लोगों ने सिक्खों की ज़मीनें और उनकी सम्पत्ति हथियाने के विचार से हजारों दावे और मुकदमें स्थानीय फौजदारों के पास पेश कर दिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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