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3. अब्दुलसमद खान और सिक्ख-3

तथाकथित बन्दई और तत्त खालसा में भेद
दलखालसा के नायक जत्थेदार बन्दा सिंघ बहादुर तथा उनके सिपाहियों की शहीदी के पश्चात् मुगल प्रशासन ने बन्दा सिंह के समर्थकों के साथ ही समस्त सिक्ख सम्प्रदाय को ही बागी देशद्रोही घोषित कर दिया। एक शाही अध्यादेश इस आशय का जारी कर दिया गया कि जहाँ भी कोई सिक्ख सम्प्रदाय का व्यक्ति मिल जाए, निःसंकोच उसकी हत्या कर दी जाए। इस आदेश को क्रियात्मक रूप देने के लिए प्रत्येक सिक्ख के सिर के लिए पुरस्कार राशि निर्धारित कर दी गई। लाहौर के सूबेदार राज्यपाल अब्दुलसमद खान की गश्ती सेनाओं ने सिक्खों को ढूँढ निकालने के लिए समस्त पँजाब क्षेत्र को छान मारा और वन्य पशुओं की भान्ति उनका शिकार किया। इस समय जो सिक्ख मारे गए उनकी सँख्या चौंका देने वाली है। कुछ दिन अपने को सुरक्षित करने के लिए अपने परिवारों सहित अपनी जन्मभूमि त्यागकर दूर, दूसरे प्रदेशों अथवा शिवालिक पर्वतमाला में कहीं छिपने चले गए। यही लोग उस सामूहिक हत्याकाण्डों से बच पाए। दिल्ली में बादशाह फर्रूखसियर की हत्या के पश्चात् सन् 1718 ईस्वी में सत्ता परिवर्तन के बाद सिक्खों को कुछ राहत मिली। इस उथलपुथल का लाभ उठाते हुए दूरस्थ क्षेत्र और कुछ जँगल बीहड़ों व मरूभूमियों से सिक्ख धीरे-धीरे लौटने लगे। इस लम्बी अवधि में अब्दुलसमद भी कुछ कमजोर पड़ गया क्योंकि सिक्खों के मारने पर वह और बढ़ते थे और अधिक आँतक मचाते थे। वह थकहार गया। अधिकाँश सिक्ख लोग छोटे-छोटे समूहों में सँगठित हो गए थे और अपनी सुरक्षा के लिए गोरिला युद्ध का सहारा लेने लगे थे। ये बदले की भावना से शाही फौज पर समय-असमय छापे मारने लगे थे और अत्याचारों का बदला लिए बिना नहीं रहते थे। अतः प्रशासन की इन्होंने कमर तोड़कर रख दी थी। अतः प्रशासन को भी अहसास हो गया कि खून का बदला खून से कभी भी स्थाई शक्ति स्थापित नहीं हो सकती, इसलिए सिक्खों पर लगे प्रतिबन्ध धीरे-धीरे समाप्त होते गए। जैसे परिस्थितियाँ सामान्य हुईं, धीरे-धीरे सिक्ख घरों को वापिस लौटने लगे। दिसम्बर, 1704 में श्री आनन्दपुर साहिब जी के विध्वंस के पश्चात् पँजाब में सिक्खों के लिए सबसे बड़ा तीर्थ स्थल श्री दरबार साहिब जी व अकाल तख्त (स्वर्ण मन्दिर, श्री अमृतसर साहिब जी) ही था, क्योंकि अभी श्री केशगढ़ साहिब जी (श्री आनन्दपुर साहिब जी) अपने पुराने वैभव को न प्राप्त कर सका था, इसके अतिरिक्त वह स्थल काफी दूर एक कोने में होने के कारण इस समय श्री हरिमन्दिर साहिब जी का और भी अधिक महत्त्व हो गया था क्योंकि यह पँजाब के केन्द्र में विद्यमान है। इन दिनों श्री दरबार साहिब जी, अमृतसर के प्रबन्ध के लिए कोई विशेष समिति न थी। दर्शनार्थियों की निरन्तर सँख्या बढ़ने से वहाँ की आय भी बढ़ने लगी। दल खालसा के विघटक दल वहाँ विद्यमान रहते थे। अतः उनकी इच्छा रहती थी कि चढ़ावे का धन उन्हें मिले ताकि वे इस धन को पुनः सैनिक गतिविधियों अथवा खालसे के उत्थान पर खर्च कर सकें। इनमें दो प्रमुख गुट थे। जत्थेदार विनोद सिंह जो स्वयँ को तत्त्व खालसा का प्रतिनिधि बताते थे। वह चाहते थे कि सेवा का कार्यभार उनके पास रहे परन्तु उस समय यह प्रबन्ध सरदार अमर सिंह के हाथ में था जिन्हें महंता सिंह के नाम से जाना जाता था। वह अधिकार छोड़ने को तैयार न थे। बस इसी बात को लेकर परस्पर मतभेद बहुत गहरा हो गया। गुटबँदी के कारण एक-दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने के लिए सर्वप्रथम शब्दी जँग शुरू हो गई, परिणामस्वरूप एक दूसरे की भर्त्सना की गई। मुख्य बात तो चढ़ावे के धन तथा वहाँ पर प्रबन्धक अधिकार प्राप्त करने का था परन्तु गुटबँदी एक दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हो गई, ऐसी परिस्थितियों में सन् 1720 की दीवाली के दिन जब दोनों गुट श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचे तो उनके बीच लड़ाई की आशँका और बढ़ गई। जत्थेदार विनोद सिंह के लड़के सरदार काहन सिंह की अध्यक्षता में दिवाली का मेला लगना था और मेले में शान्ति स्थापित रखना भी उन्हीं का कर्त्तव्य था। उन्होंने झगड़ा समाप्त करने की बहुत चेष्टा की परन्तु सफल न हुए। इसी बीच दसवें श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी की पत्नि माता सुन्दरी जी ने जो उस समय दिल्ली में रहती थी, भाई मनी सिंघ जी को श्री दरबार साहिब, अमृतसर जी में मुख्य ग्रन्थी (महापुरोहित) के रूप में नियुक्त करके इस झगड़े को मिटाने के लिए श्री अमृतसर साहिब जी भेजा। उन्होंने श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचकर दोनों गुटों के झगड़े को रोका और उन्हें परामर्श दिया कि वे परस्पर विचारविमर्श के लिए सहमत हो जाएँ। उन्होंने कागज की दो पर्चियाँ बनाईं। एक पर तत्व खालसा का नारा ‘वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह’ और दूसरी पर तथाकथित बन्दई खालसा की ओर से उनकी निशानी के रूप में नारा लिया ‘फतेह दर्शन’। शर्त यह ठहराई गई कि दोनों पर्चियों को एक ही समय श्री दरबार साहिब जी के अमृत सरोवर में डुबो दिया जाए। जो रर्ची पानी में डूबी रह जाए, वह अपने आप को समाप्त करके दूसरी पार्टी में मिल जाए। दोनों गुटों ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जब पर्चियाँ पानी में डुबो दी गई तो कुछ समय की प्रतीक्षा के बाद ‘वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू की फतेह’ वाली पर्ची पानी की सतह पर उभर आई। इसलिए तत्व खालसा के पक्ष में जीत की घोषणा की गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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