2. अब्दुलसमद खान और सिक्ख-2
अठारहवीं शताब्दी का सिक्ख सँग्राम
दल खालसा के सेनानायक बन्दा बहादुर सिंह के पतन के पश्चात् दिल्ली के शासक, सम्राट
फर्रूखसियर ने पँजाब के राज्यपाल को निर्देश दिये कि समस्त सिक्ख समुदाय का
अस्तित्व मिटा डालो। अतः पँजाब के राज्यपाल अब्दुलसमद खान ने नई नीति के अन्तर्गत
सिक्खों को बागी लोग घोषित कर दिया। इस अध्यादेश के कारण समस्त पँजाब के मालवा
क्षेत्र में कानून अवस्था भँग होकर रह गई। जहाँ सरकारी सैनिक सिक्खों को पकड़ने के
लिए पहुँचते, वहाँ सिक्ख भी सँगठित होकर मुकाबले पर निकल पड़ते, इस प्रकार गाँव-गाँव
में खून की नदियाँ बहने लगी, यहाँ तक कि श्री हरि मन्दिर दरबार साहिब जी के तथाकथित
स्वामी पृथ्वीचन्द के वँशज भी भाग खड़े हुए और दरबार साहिब स्थानीय संगत के आश्रय पर
छोड़ गए। इस प्रकार समस्त सिक्खों को आत्मसुरक्षा के लिए पुनः शस्त्र धारण करने पड़े
और धीरे धीरे सँगठित होने के लिए अपने केन्द्रिय स्थान, श्री अमृतसर साहिब जी
पहुँचने लगे। इस प्रकार वहाँ लगभग दस हजार सशस्त्र सैनिक रूप में सिक्ख एकत्रित हो
गए। अब इनके समक्ष समस्या यह थी कि प्रशासन के साथ टक्कर लेने के लिए नेतृत्त्व कौन
करें तथा क्या योजना बनाई जाए ? इसी बीच अब्दुलसमद खान को सिक्खों के एकत्रित होने
और उनके इरादों के विषय में मालूम हो गया। वह सिक्खों की शक्ति को पहले कई बार देख
चुका था, वह जानता था कि सिक्ख जब रणक्षेत्र में होते हैं तो वह केवल विजय अथवा
मृत्यु में से एक की ही चाहत रखते हैं, इनके जीवन मृत्यृ के खेल से शत्रु के हृदय
सदैव भयभीत रहते थे। अतः समय रहते अब्दुलसमद खान ने कूटनीति से काम लिया और सिक्खों
को सँदेश भेजा कि हम केन्द्र के आदेश से केवल बंदा सिंघ के साथियों को ही बागी
घोषित करते हैं, अन्य को नहीं। यदि तुम चाहो तो हमारी सेना में जीविका हेतु भर्ती
हो सकते हो और जो खेती करना चाहे, उसे लगान माफ कर दिया जाएगा। यह बाँटों और शासन
करो कि नीति बहुत काम आई। उस समय अधिकाँश सिक्ख युवक बेरोजगार थे। उन्होंने तो एक
सैनिक होने के नाते लड़ना मरना ही सीखा था। उनके बस की खेती बाड़ी नहीं थी। उन्होंने
तुरन्त सरकारी सेना में भर्ती होना स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार पाँच सौ युवक सरकारी सेना में भर्ती हो गए। कुछ प्रौढ़
अवस्था वालो ने हाला लगान माँगी का मसौदा स्वीकार करके खेती बाड़ी करना स्वीकार कर
लिया। लगभग एक हजार निहंग सिंघों को प्रशासन ने एक विशेष भत्ता देना स्वीकार किया
कि वह प्रशासन के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं चलाएँगे और केवल धार्मिक स्थलों की सेवा
का कार्यभार सम्भालेंगे। बाकी बचे चार हजार युवाओं ने समय और परिस्थितियों को देखते
हुए अन्य राज्य में नौकरी करने का निर्णय ले लिया। इस प्रकार बचे हुए युवा जयपुर
अथवा बीकानेर के स्थानीय नरेशों की सेना में भर्ती हो गए। इस प्रकार की बाँटों और
शासन करो की नीति से लाहौर के राज्यपाल अब्दुलसमद ने सिक्खों की सैनिक शक्ति को
क्षीण कर दिया। वहीं दूसरी ओर कुछ कट्टरपँथी बहुत रूष्ट हुए। उन्होंने सरकारी सहयोग
को हीनता की दृष्टि से देखा और कह दिया कि अब खालसा बिक गया है और एक-दूसरे पर
व्यँग करने लगे कि यह नपुसँकता का चिन्ह है। बदले में विरोधी पक्ष ने सरकारी नीति
अनुसार उनको बंदई खालसा कहा जाने लगा। जबकि उस समय कोई ऐसा सिक्ख सैनिक न था, जिसने
बंदा सिंघ जी के साथ कभी न कभी सहयोगी होकर किसी न किसी युद्ध में भाग न लिया हो।
वास्तव में इन लोगों का कोई सैद्धाँतिक विभाजन तो था नहीं केवल राजनीतिक मतभेद के
कारण एक दूसरे को नीचा दिखाने लगे। कट्टरपँथियों का कहना था कि श्री दरबार साहिब जी
की सेवा सम्भाल, यह उनका अधिकार बनता है और आय-व्यय भी उनकी सहमति से होना चाहिए
क्योंकि सरकार की ओर से रोजगार और भत्ते मिलने लगे हैं। शक्ति प्राप्त करने की होड़
में धीरे धीरे मतभेद बढ़ता ही गया। परन्तु सरकार से सहयोग करने वालों की सँख्या बहुत
अधिक थी, इसलिए उनका पक्ष भारी पड़ने लगा और वे अपने को तत्व खालसा कहलवाने लगे।
मतभेदों के कारण दोनों गुटों ने अपने अपने लँगर अलग अलग कर लिए।
इस प्रकार लम्बे समय तक दोनों पक्षों में खींचातानी चलती रही।
वास्तव में दोनों पक्षों का उद्देश्य आय के साधनों पर एकाधिकार स्थापित करना था
जिससे वे अपने पक्ष के जवानों को अपनी नीतियों अनुसार शस्त्रों से सुसज्जित कर सकें।
इन्हीं दिनों खेमकरण क्षेत्र का महन्त अमर सिंह जो कि अपनी पूजा प्रतिष्ठा करवाने
के लिए सदा लालायित रहता था, बंदेई गुट का प्रभुत्व बनकर सामने आ गया। वास्तव में
इसका बन्दा सिंह से दूर का नाता भी नहीं था। इस व्यक्ति को बढ़ावा देने के लिए सिक्ख
पँथ के अन्य गुटों ने भी अपना अपना योगदान दिया। यह थेः गुलाबराइये, गँगूशाहिये,
निरँजनिये, धीरमलिये, उदासी और निरमलिये। ये सभी गुट प्रशासन के डर से केश धारण नहीं
करते थे और अपने को सहजधारी सिक्ख कहलवाते थे। इनके विरूद्ध केशधरी बहुत मर्यादावादी
थे। वे अपने बाहूबल से इन लोगों को श्री हरि मन्दिर साहिब अमृतसर साहिब जी के
प्रबन्ध में सम्मिलित होने से रोके हुए थे परन्तु विवाद बढ़ता ही गया। इसका समाधान न
पाकर कुछ सूझवान सिक्खों ने श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी की धर्मपत्नि ‘माता’
सुन्दर कौर जी को पत्र लिखकर खालसे की अवगति की दास्तान भेजी। यह पत्र पाकर माता जी
बहुत गम्भीर हुई। उन्होंने अपने धर्म भाई श्री मनी सिंघ जी को दिल्ली से श्री
अमृतसर साहिब जी भेजा और कहा कि आप खालसे में एकता लाने का हर सम्भव प्रयास करें
क्योंकि इस समय स्थानीय प्रशासन बाँटों और शासन करो की नीति के कारण सिक्खों की आपसी
फूट को बढ़ावा दे रहा है। वे यही तो चाहते हैं कि सिक्ख आपस में लड़ मरें, जिससे उनकी
मनोकामना पूर्ण हो।