1. अब्दुलसमद खान और सिक्ख-1
बंदा सिंघ बहादुर जी की शहीदी के उपरान्त सिक्खों का अन्धकारमय युग
दल खालसा के सेनानायक बन्दा सिंघ बहादुर जी की शहीदी के उपरान्त सिख पँथ को असहाय
शोक पहुँचा। इस समय खालसा किसी योग्य पुरूष के नेतृत्त्व से वँचित हो गया था। अतः
सशक्त सिख योद्धा दिशाविहीन होकर भटकने लगे। विशेषकर जत्थेदार विनोद सिंह के साथ
गुरदास नँगल गढ़ी का त्याग करने वाले सिपाहियों के समक्ष कोई उद्देश्य न था। वे सभी
सिक्खों में हुए विघटन पर बहुत चिन्तित थे। जैसे ही मुगल सम्राट फर्रूखसियर ने यह
घोषणा कर दी कि जो कोई भी सिक्ख मुगल अधिकारियों अथवा सेना के हाथ लगे, जो इस्लाम
स्वीकार करने पर विवश किया जाए अन्यथा अस्वीकार करने पर उसे मृत्युदण्ड दिया जाए।
बादशाह ने शहीद सिक्खों के कटे हुए सिरों का मूल्य भी नियत कर दिया। इतिहासकार
फार्सटर का कथन है कि सिक्खों का कत्लेआम इस प्रकार बढ़ गया कि मुगल राज्य में सिक्ख
का नाम बड़ी कठिनाई से सुनाई दिया जाने लगा। इस विपत्तिकाल में सिक्ख पँथ को एक लाभ
हुआ। वह यह कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के ज्योति विलीन होने के पश्चात्
उनके द्वारा चलाई गई ‘शब्द गुरू’ पद्धति को जो लोग चुनौती देते थे और स्वयँ गुरू
दम्भ का ढोंग रचते थे, वे प्रशासन की सिक्ख विरोधी नीति के कारण छिपने लगे। इनमें
मुख्य नाम इस प्रकार हैं:
1. गुलाबराइये
2. गँगूशाहिये
3. निरँजनिये
4. मिनहाइये
5. धीरमलिये
6. उदासी
8. निरमलिये इत्यादि।
उपरोक्त लोगों ने अपनी न्यारेपन वाली सूरत छिपा ली और केश रहित
होकर अपने आप को नानक पँथी अथवा सहजधारी सिक्ख कहलवाना प्रारम्भ कर दिया। जब यह पतन
की लहर दृढ़ सँकल्प वाले न्यारे खालसे ने देखी तो उन्होंने स्वयँ को तत्व (तत्त)
खालसा कहलवाना प्रारम्भ किया। उनका मानना था कि खोट सब निकल गया है, अब वही विशुद्ध
खालसा है, जो गुरू के नाम पर अपने प्राणों की आहुति दे सकते हैं। बादशाह फर्रूखसियर
के सँकेत पर पँजाब के राज्यपाल अब्दुल समदखान ने सिक्खों के विरूद्ध पूरे जोर-शोर
से दमनचक्र चलाया और अपनी सैनिक टुकड़ियों को आदेश दिया कि जहाँ कहीं भी कोई सिक्ख
मिले, उसे मौत के घाट उतार दो। ऐसी कठिन स्थिति में सिक्खों के लिए अपनी सुरक्षा का
एक ही साधन था कि वे मुगलों के चुँगल में न फँसें। परिणामस्वरूप उनको गुप्त जीवन
धारण करना पड़ा और वह घर-बाहर त्यागकर जँगलों व पहाड़ों में छोटे छोटे काफिले बनाकर
रहने लगे। इस तरह बेघर जीवन व्यतीत करते हुए सिक्खों का मुगलों के विरूद्ध सँघर्ष
लूटमार में बदल गया था। लोगों ने अमीर शत्रु के घरबार लूटना ही था। इस तरह वे लोग
पक्के सिपाही बन गए। वास्तव में ये वे लोग थे जिन्होंने अपना धर्म नहीं त्यागा और
अपने घरबार से वँचित होकर भी बड़ा विरोध जारी रखा। उस समय कुछ ऐसे कमजोर भी थे जो
घोर कठिन परीक्षा में पड़ने की क्षमता नहीं रखते थे उन्होंने मजबूरीवश कुछ समय के
लिए सिक्खों के चिन्ह धारण करना त्याग दिया। जब प्रशासन की ओर से सिक्खों पर
अत्याचार चरमसीमा पर था, विशेषकर निर्दोष सिक्खों को बिना कारण कष्ट देकर हत्याएँ
कर रहे थे। तब गुप्तवास करने वाले सिक्ख दलों ने बदले की भावना से बहुत सी सरकारी
सम्पत्ति को क्षति पहुँचाई। बहुत स्थानों पर घात लगाकर सरकारी सैनिक टुकड़ियों को सदा
की नींद सुला दिया और उनके शस्त्र-अस्त्र व घोड़े इत्यादि सब सामग्री को लूटा।
विशेषकर भेदियों को उचित दण्ड दिए और उनकी सम्पत्ति को अग्नि भेंट कर दिया। इनकी
मार से खेत खलियान भी न बच पाए। ये गुप्तवास वाले सिक्ख दल, जीवन निर्वाह करने के
लिए खेतों से दिन दहाड़े अनाज व सब्जियाँ इत्यादि ले जाते। जिससे किसानों को भारी
क्षति हुई और वह प्रशासन को लगान इत्यादि जमा करवाने में असमर्थ हो गए। सिक्ख ऐसा
इसलिए करते थे ताकि प्रशासन ठप्प हो जाए। इस प्रकार प्रशासन के क्रोध के भय से
किसान देश छोड़कर भाग गए। व्यापार लगभग चौपट हो गया। चारों ओर अराजकता फैल गई। इन
परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए कई चोर-उच्चके भी लूटमार के लिए सिक्खों जैसा वेश
बनाकर समय-कुसमय अमीर परिवारों को लूटने में लग गए। इस प्रकार पँजाब प्रशासन लगभग
असफल हो गया। उसकी आय के साधन धीरे-धीरे कम होते गए और दमन चक्र चलाने के कारण व्यय
दुगुना होता गया। इस बीच लोगों का प्रशासन से विश्वास भी उठ गया कि वह उनकी सुरक्षा
की कोई जमानत दे सकती है ? जब जानमाल की कोई जमानत न रही तो लोग पँजाब छोड़कर दूसरे
प्रान्तों में भागने लगे। तब पँजाब के राज्यपाल अब्दुलसमद खान को अपनी भूल का अहसास
हुआ। उसने घोषणा की कि हमारा दमनचक्र केवल उन सिक्खों के प्रति हैं, जो बन्दा सिंघ
बहादुर के सहयोगी रहे हैं। बाकी अमन शान्ति से रह सकते हैं। परन्तु अब इस घोषणा का
कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि कोई भी सिक्ख ऐसा न था जो किसी न किसी समय बन्दा सिंघ की
सेना का सिपाही न रहा हो। इसके अतिरिक्त अब वे लोग न्यारे स्वरूप के कारण विद्रोही
बागी घोषित हो चुके थे। जिस कारण अधिकाँश का घर-घाट धवस्त हो चुका था और वह या तो
मारे जा चुके थे या विद्रोहियों के समूहों में सम्मिलित होकर इस क्रूर प्रशासन को
समाप्त करने की शपथ ले चुके थे। हाँ, इस घोषणा से उन लोगों को अवश्य ही राहत मिली,
जो सहजधारी बनकर जीवन निर्वाह कर रहे थे। अब वे लोग फिर से अपने गुरूधामों के दर्शन
करने को जाने लगे। इस प्रकार श्री हरि मन्दिर साहिब (श्री दरबार साहिब अमृतसर साहिब
जी) में पुनः संगत का जमावड़ा होने लगा।