9. श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की
शहीदी
जब औरँगजेब अथवा काज़ी, श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी को बातों से प्रभावित न कर सके
तो उन्होंने गुरूदेव तथा अन्य शिष्यों को कई प्रकार के लालच दिये बात तब भी न बनती
देखकर उन्होंने कई प्रकार की यातनाएँ दी और मृत्यु का भय दिखाया और इस पर उन्होंने
अमल भी किया। गुरूदेव को भयभीत करने के लिए उनके सँग के तीनों सिक्खों को क्रमशः आरे
से चीरकर, पानी में उबालकर तथा रुई लपेटकर जिँदा जलाकर, गुरू जी की आँखो के सामने
शहीद कर दिया किन्तु इन घटनाओं का गुरूदेव पर कोई प्रभाव न होता देखकर औरँगज़ेब बौखला
गया और उसने गुरूदेव जी को शहीद करने की घोषणा करवा दी। इन शहीदी घटनाक्रमों को
देखते हुए गुरुदेव के अन्य सेवकों ने, गाँव रकाबगँज के भाई लक्खीशाह से मिलकर एक
योजना बनाई कि गुरुदेव जी के शहीद हो जाने पर उनके पार्थिक शरीर की सेवा सम्भाल
तुरन्त की जाए और इस योजना के अनुसार उन्होंने एक विशेष बैलगाड़ी तैयार की। जिसके
नीचे एक सन्दूक बनाया गया, जिसका ढक्कन ऊपर से खुलता था। भाई जैता जी नामक सिक्ख
गुरुदेव के शीश की सम्भाल करने के लिए अलग से तैयार हुआ। औरँगजेब के इस फरमान के
साथ ही प्रशासन ने समस्त दिल्ली नगर में डौंडी पिटवा दी कि ‘हिन्द के पीर’ श्री गुरु
तेगबहादुर साहिब जी को मद्यर सुदी पँचमी संवत 1732 को 11 नवम्बर सन् 1675 ई0 चाँदनी
चौक चबूतरे पर कत्ल कर दिया जाएगा। इस दृश्य को देखने वहाँ विशाल जनसमुह उमड़ पड़ा जो
कि बेबस होने के कारण मूकदर्शक बना रहा। निश्चित समय गुरुदेव जी को चबूतरे पर बैठाया
गया। गुरुजी तो मानसिक रूप से पहले ही आत्मबलिदान के लिए तैयार होकर आये थे। सच्चे
आध्यात्मिक महापुरुष होने के कारण समर्थ होते हुए भी, चमत्कार दिखाकर परमात्मा का
शरीक, प्रतिद्वन्दी बनने की अनीति नहीं चाहते थे। काजी ने जल्लाद को गुरू जी की
गर्दन पर तलवार का वार जरा जोर से चलाने का आदेश दिया परिणामतः गर्दन तो कटनी ही
थी। जैसे ही गुरू जी का पवित्र शीश उनके पवित्र शरीर से अलग हुआ, तभी परमात्मा का
एक चमत्कार हुआ, वहाँ पर भँयकर आँधी चलने लगी और सभी धूल भरी आँधी में आँखें बन्द
करने पर मजबूर हो गये परन्तु आँधी का लाभ उठाते हुए वहाँ निकट सटकर खड़े भाई जैता ने
लपककर फुर्ती से गुरूदेव का शीश उठाकर अपनी झोली में डाला और भीड़ में अलोप हो गया
तथा बिना रूके, नगर के बाहर प्रतीक्षा में खड़े भाई ऊदै जी से जा मिले। उस समय उन
दोनों सिक्खों ने अपनी वेषभूषा मुगलों जैसी बनाई हुई थी। जिस कारण इनको श्री
आनंदपुर साहिब जी की तरफ बढ़ने में सहायता मिली।
शीश के लापता हो जाने पर औरँगज़ेब ने शहर भर में ढोंडी पिटवाई कि
यदि कोई गुरू का सिक्ख, शिष्य है तो उनके शरीर का अन्तिम सँस्कार करने के लिए आगे
आए। परन्तु औरँगज़ेब के भय के कारण गुरूदेव जी की अँत्येष्टि क्रिया के लिए भी कोई
सामने नहीं आया। परन्तु योजना के अनुसार, भाई लक्खीशाह अपनी बैलगाडियों के काफिले
के साथ चाँदनी चौंक से गुजरे जो कि लाल किले में सरकारी सामान छोड़कर वापस लौट रहे
थे। प्रकृति ने भी उनका भी साथ दिया। उस समय वहाँ भी जोरों से आँधी चलने लगी थी।
आँधी का लाभ उठाते हुए उन्होंने गुरुदेव के शव पर चादर डालकर झट से उठा लिया और
सन्दूक वाली बेल गाड़ी में रखकर ऊपर से ढक्कन बँद करके उस पर चटाई बिछा दी। और गाड़ी
हाँकते हुए आगे बढ़ गए। आँधी के कारण, वहाँ पर खड़े सिपाही शव को उठाते समय किसी को
भी न देख सके। क्षण भर में शव के खो जाने पर सँतरियों ने बहुत खोजबीन की परन्तु वे
असफल रहे। इस प्रकार भाई लक्खीशाह का काफिला गुरुदेव का शव गुप्त रूप से ले जाने
में सफल हो गया। लक्खी शाह ने तब गुरुदेव के शव को अपने घर के भीतर ही रखकर चिता को
आग लगा दी तथा हल्ला मचा दिया कि उनके घर को आग लग गई हैं। इस प्रकार औरँगजेब के भय
के होते हुए भी गुरु के सिक्खों ने गुरुदेव का अन्तिम सँस्कार युक्ति से गुप्त रूप
में सम्पन कर दिया। आजकल उस स्थान पर रकाबगँज नामक गुरुद्धारा हैं। दूसरी ओर भाई
जैता जी और उनके साथी लम्बी यात्रा करते हुए श्री कीरतपुर साहिब जी पहुचे। जैसे ही
यह सन्देश माता नानकी जी तथा परिवार को मिला कि गुरुदेव ने अपने प्राणों की आहुति
मानवता के मूल अधिकारों की सुरक्षा हेतु दे दी है और उनका शीश एक सिक्ख कीरतपुर,
साहिब लेकर पहँच गया है तो वे सभी सिक्खों सहित अगवानी करने कीरतपुर साहब पहुँचे उस
समय भले ही वातावरण में दुःख और शोक की लहर थी परन्तु गोबिन्द राय सभी को धैर्य का
पाठ पढ़ा रहे थे और उन्होंने अपनी दादी माँ व माता गुजरी जी से कहा कि गुरुबाणी
मार्गदर्शन करते हुए संदेश देती है:
जनम मरन दुहहू महि नाही, जन पर उपकारी आए।।
जीअ दानु दे भगती लाइनि, हरि सिउ लैन मिलाए।। अंग 749
श्री कीरतपुर साहिब जी पहुँचकर भाई जैता जी से स्वयँ गोबिन्द
राय जी ने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश प्राप्त किया और भाई जैता
जो रँगरेटा कबीले के साथ सम्बन्धित थे। उनको अपने आलिंगन में लिया और वरदान दिया
‘‘रँगरेटा गुरु का बेटा’’। विचार हुआ कि गुरुदेव जी के शीश का अन्तिम सँस्कार कहां
किया जाए। दादी माँ व माता गुजरी ने परामर्श दिया कि श्री आनंदपुर साहिब जी की नगरी
गुरुदेव जी ने स्वयँ बसाई हैं अतः उनके शीश की अँत्येष्टि वही की जाए। इस पर शीश को
पालकी में आंनदपुर साहिब लाया गया और वहाँ शीश का भव्य स्वागत किया गया सभी ने
गुरुदेव के पार्थिक शीश को श्रद्धा सुमन अर्पित किए तद्पश्चात विधिवत् दाह सँस्कार
किया गया। कुछ दिनों के पश्चात भाई गुरुदिता जी भी गुरुदेव का अन्तिम हुक्मनामा
लेकर आंनदपुर साहिब पहुँच गये। हुक्मनामे में गुरुदेव जी का वही आदेश था जो कि
उन्होंने आंनदपुर साहिब से चलते समय घोषणा की थी कि उनके पश्चात गुरु नानक देव जी
के दसवें उत्तराधिकारी गोबिन्द राय होंगे। ठीक उसी इच्छा अनुसार गुरु गद्दी की सभी
औपचारिकताएं सम्पन कर दी जाएँ। उस हुक्मनामे पर परिवार के सभी सदस्यों और अन्य
प्रमुख सिक्खों ने शीश झुकाया और निश्चय किया कि आने वाली बैसाखी को एक विशेष
समारोह का अयोजन करके गोबिन्द राय जी को गुरूगद्दी सौंपने की विधिवत् घोषणा करते
हुए सभी धर्मिक पारम्परिक रीतियाँ पूर्ण कर दी जाएँगी। गुरूदेव के शीश के
दाह-सँस्कार के पश्चात, गुरूदेव के नमित प्रभु चरणों मे अन्तिम अरदास के लिए सभा का
आयोजन किया गया। जहां गुरू घर के प्रवक्ताओं ने गुरूदेव जी के निष्काम, निःस्वार्थ
तथा परहित के लिए बलिदान पर अपनी अपनी श्रद्धाँजलि अर्पित करते हुए कहा– श्री गुरू
तेगबहादुर साहFब जी वास्तव में वचन के शूरवीर थे उन्होंने मज़लूमों की धर्म-रक्षा
हेतु अपने प्राणों की आहुति देकर एक अद्वितीय बलिदान दिया है जो पुकार-पुकारकर उनके
इस महान मानवीय सिद्धान्त की पुष्टी कर रहा है।
बांह जिन्हां दी पकड़िये, सिर दीजै बांह न छोड़िये।
प्रवक्ता ने कहा: यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुरूदेव ने कश्मीरी
पंडितों की बाँह इसलिए नहीं थामी कि वे हिन्दू थे, बल्कि इसलिए कि वे शक्तिहीन थे,
अत्याचारों के शिकार थे। ना ही औरँगजेब के साथ गुरूदेव को इस कारण वैर था कि वह
मुसलमान था। जबकि इस कारण कि वह दीन-हीन और निर्बल व्यक्तियों पर अत्याचार करता था।
यदि भाग्यवश औरँगज़ेब, पंडितों के स्थान पर होता और पण्डित, औरँगज़ेब के स्थान पर होते
तो गुरूदेव की सहायता औरँगज़ेब की ओर होती प्रवक्ता ने कहा– गुरूदेव ने मानव समाज के
समक्ष अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किये है। यह बात इतिहास में पहली बार घटित हुई है कि
शहीद होने वाला, हत्या करने वाले के पास अपनी इच्छा से गया। ऐसा करके गुरूदेव ने
उल्टी गँगा बहा दी। अंत में गोबिन्द राय जी ने भी अपने पिता श्री गुरू तेग बहादुर
जी को अपनी श्रद्धाँजलि अर्पित करते हुए कहा हैं:
तिलक जनेऊ राखा प्रभ ताका ।। कीनो बडो कलू माहि साका ।।
साधनि हेति इती जिनि करी ।। सीसु दीया परु सी न उचरी ।।
धरम हेति साका जिनि कीआ ।। सीसु दीआ परू सिररू न दीआ।।
नाटक चेटक कीए कुकाजा ।। प्रभ लोगन कह आवत लाजा ।।
ठीकरि फोरि दिलीसि सिरि प्रभ पुर कीया पयान ।।
तेग बहादुर सी क्रिआ करी न किनहू आन ।।
तेग बहादूर के चलत भयो जगत को सोक ।।
है है है सभ जग भयो जै जै जै सुर लोक ।।
अर्थात: गुरू तेगबहादर साहिब जी ने इस कलियुग में तिलक एवँ जनेऊ
की रक्षा हेतु अपना शरीर रूपी ठीकरा दिल्ली पति औरँगज़ेब के सिर पर फोड़ दिया है। जिस
कारण मातलोक में लोग आश्चर्य में हैं ही किन्तु देव लोग में भी इस अद्भुत घटना पर
उनकी स्तुति हो रही है। क्योंकि इस प्रकार परहित के लिए इससे पहले कभी किसी ने भी
अपने प्राणों की आहुति नहीं दी थी। जब गुरू गोबिन्द राय, (सिंघ) जी को भाई गुरदित्ता
जी द्वारा ज्ञात हुआ कि गुरू तेगबहादुर साहब जी के पार्थिक शरीर की अँत्येष्टि
क्रिया गुप्त रूप में सम्पन्न की गई क्योंकि औरँगजेब द्वारा डौंडी पिटवाकर चुनौति
दी गई थी कि है कोई गुरू का शिष्य ! जो उनके शव का अन्तिम सँस्कार करके दिखाए !!!
इस घटना पर उनको बहुत ग्लानि हुई। अतः वह कह उठे– जिन लोगों की रक्षा हेतु पिता जी
ने अपना बलिदान दिया वही लोग वहाँ पर मूक दर्शक बनकर तमाशा देखते रहे। उनके शहीद
हो जाने पर भी किसी ने साहस कर उनकी अँत्येष्टि भी उसी समय स्पष्ट रूप में नहीं की
तथा किसी ने भी शासकों के विरूद्ध रोष प्रकट करने हेतु कोई किसी प्रकार की गतिविधि
नही की। समय आने पर सबके सब सिर छिपाकर भाग खड़े हुए। इसी कारण मानवता के पक्षधर का
शव वहाँ पर पड़ा रहा। भला ऐसे शिष्यों की क्या आवश्यकता है जो परीक्षा की घड़ी आने पर
जान बचाकर भाग गये हों ? साथ ही उन्होंनें लक्खीशाह की प्रशँसा की, कि उन्होंने किस
प्रकार अपने घर में आग लगाकर गुरू जी की का अग्निदाह किया। औरँगजेब ने तो समझा कि
गुरू तेगबहादर की हत्या करवा के उसके मार्ग का रोड़ा सदैव के लिए हट गया है परन्तु
इस शहादत ने समस्त भारतवासियों का सीना छलनी-छलनी कर दिया। ग्लानि की भवना की ऐसी
अग्नि प्रज्वल्लित हुई कि गुरू नानक के पँथ को शाँति और अहिंसा के मार्ग के साथ-साथ
तलवार धारण करनी पड़ी। इस सब के परिणामस्वरूप भक्ति में शक्ति आ मिली। गुरूदेव की इस
अद्वितीय शहादत की एक विशेषता यह है कि शेष दुनियाँ के शहीदों को तो मज़बूरन अथवा
बलपूर्वक शहीद किया जाता है। परन्तु गुरूदेव स्वयँ अपने हत्यारे के पास अपनी इच्छा
से शहीद होने के लिए आनंदपुर साहब से दिल्ली आए। इस निर्लेप और परमार्थ बलिदान के
परिणाम भी तो अद्वितीय ही प्राप्त होने थे। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को मजबूरी
में तलवार का सहारा लेना पड़ा। इस सिद्धान्त को उन्होंने स्पष्ट करने के लिए फारसी
भाषा में विश्व के समक्ष एक ऐसा नियम प्रस्तुत किया जो जन्म जन्मान्तर के लिए सत्य
सिद्ध होता रहेगा:
चूंकार अज़ हमे हीलते दर गज़शत,
हलाल अस्त बुरदन ब-शमशीर दस्त। ज़ाफरनामा
भावार्थ जिसका भाव है, जब कोई अन्य साधन शेष न रहे तो व्यक्ति
का धर्म है कि तलवार हाथ में उठा ले। ताकत के अहंकार में अँधी हुई मुग़ल सत्ता पर
मानवीय दबाव, कोई प्रभाव न डाल सकता था। शक्ति का उत्तर शक्ति ही थी। अपने पूज्य
पिता श्री गुरू तेगबहादर साहिब जी की शहादत से गुरू गाबिन्द सिंघ को दो बातें
स्पष्ट हो चकी थी। एक तो यह कि औरँगजेब के मज़हबी दबाव के नीचे असँख्य हिन्दुओं का
धर्म परिवर्तन कर देना इस बात का सबूत था कि निर्बल व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता
और दुसरा दुनियाँ के लालच अथवा मौत का डर देकर उन्हें फुसलाया जा सकता है और धर्म
से पतित किया जा सकता है। इन बातों को मुख्य रखकर गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने शक्ति के
साथ टक्कर लेने हेतु तलवार उठा ली। इसलिए नहीं कि वे कोई प्रान्त पर विजय प्राप्त
करके अपना राज्य स्थापित करना चाहते हैं। न ही इसलिए कि इस्लाम से उन्हें किसी
प्रकार का वैर अथवा विरोध था। सँयोगवश समय की सरकार मुसलमानों की थी। यदि अत्याचार
हिन्दुओं की ओर से होता तो तलवार का रूख उनकी ओर होता। यह तलवार तो धर्म युद्ध के
लिए उठाई गई। किसी विशेष मज़हब के विरूध अथवा अधिकार के लिए नहीं। केवल न्याय और
मानवता के हेतु गुरूदेव ने अपने जीवन का लक्ष्य प्रदर्शित करते हुए स्वयँ ‘विचित्र
नाटक’ में लिखा हैं:
हम इह काज जगत मो आए, धरम हेत गुरदेव पठाए ।।
जहां तहां तुम धरम बिधारो, दुसट दोखीअन पकरि पछारो ।।
इहै काज धरा हम जनमम, समझ लेहु साधु सभ मनमं ।।
धरम चलावन संत उबारन, दुष्ट समन कौ मूल उपारन ।।
अर्थात, दुष्टों का नाश और सन्तों की रक्षा ही उनके जीवन का
मनोरथ हैं।