6. भाई मती दास जी की शहीदी
अगले दिन भाई मती दास को योजना अनुसार चाँदनी चौक के ठीक बीचो बीच हथकड़ियों बेड़ियों
तथा जँजीरों से जकड़कर लाया गया। जहाँ पर आजकल फव्वारा हैं। प्रशासन की क्रूरता वाले
दृश्यों को देखने के लिए लोगों की भीड़ एकत्रित हो चुकी थी। भाई मती दास का चेहरा
दिव्य आभा से दमक रहा था। भाई साहब शाँतचित और अडोल प्रभु भजन में व्यस्त थे। मृत्यु
का पूर्वाभास होते हुए भी उनके चेहरे पर भय का कोई चिन्ह न था। तभी काज़ी ने उनको
चुनौती दी और कहा कि भाई मती दास क्यों व्यर्थ में अपने प्राण गँवा रहे हो। हठधर्मी
छोड़ो और इस्लाम को स्वीकार कर लो जिससे वह ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत कर सकोगे प्रशासन
की तरफ से सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसें उपलब्ध कराई जाएँगी। इसके अतिरिक्त बहुत
से पुरस्कारों से सम्मानित किया जायेगा। यदि वह मुसलमान हो जाएँ तो हज़रत मुहम्मद
साहिब उसकी गवाही देकर उसे खुदा से बहिश्त दिलवायेंगे। अन्यथा उसे यातनाएँ दे-देकर
मार दिया जायेगा। भाई मती दास जी ने उत्तर दिया, क्यों अपना समय नष्ट करते हो ? वह
तो सिक्ख सिद्धाँतों और उस पर अटल विश्वास से हज़ारो बहिश्त न्यौछावर कर सकता हैं।
गुरु के श्रद्धावान शिष्य अपने गुरुदेव के आदेशों की पालना करना ही सब सुखों का मूल
समझता हैं। अतः जो श्रेष्ट और निर्मल धर्म उसे उसके गुरु ने प्रदान किया है। वह उसे
अपने प्राणों से अधिक प्रिय हैं। इस पर काज़ी ने पूछा कि ठीक हैं। मरने से पहले उसकी
कोई अन्तिम इच्छा हैं तो बता दो। मती दास जी ने उत्तर दिया कि उसका मुँह उसके गुरु
की ओर रखना ताकि वह उनके अँत समय तक दर्शन करता हुआ शरीर त्याग सके। लकड़ी के दो
शहतीरों के पाट में भाई मतीदास जी को जकड़ दिया गया। और उनका चेहरा श्री श्री गुरु
तेग बहादुर साहिब जी के पिंजरे की ओर कर दिया गया। तभी दो जल्लादों ने भाई साहिब के
सिर पर आरा रख दिया। काज़ी ने फिर भाई साहब को इस्लाम स्वीकार करने की बात दुहराई
किन्तु भाई मतीदास जी उस समय गुरूबाणी उच्चारण कर रहे थे और प्रभु चरणों में लीन
थे। अतः उन्होंने कोई उत्तर न दिया। इस पर काजी की ओर से जल्लादों को आरा चलाने का
सँकेत दिया गया। देखते ही देखते खून का फव्वारा चल पड़ा और भाई मती दास के शरीर के
दो फाड़ हो गये। इस भयभीत तथा क्रूर दृश्य को देखकर बहुत से नेक इनसानों ने आँखों से
आँसू बहाये किन्तु पत्थर हृदय हाकिम इस्लाम के प्रचार हेतु किये जा रहे आत्याचार को
उचित बताते रहें। भाई मतीदास जी अपने प्राणों की आहुति देकर सदा के लिए अमर हो गये।
उनकी आत्मा परम ज्योति मे जा समाई और उनका बलिदान सिक्खों तथा विश्व के अन्य
धर्मावलाम्बियों का पथप्रदर्शक बन गया।
भाई मतीदास जी गुरू घर में कोषाध्यक्ष, दीवान की पदवी पर
कार्य करते थे और गुरूदेव के परम स्नेही सिख भाई परागा जी के पुत्र थे।