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5. गुरू रामदास जी का जोती-जोत समाना

ब्रहमवेता श्री गुरू रामदास जी को ज्ञात था कि उनका अन्तिम समय निकट है अतः वह श्री गुरू अरजन देव जी व पत्नी श्रीमती भानी जी को लेकर श्री गोइँदवाल साहिब जी नगर में प्रस्थान कर गए। वहाँ उन्होंने अपने साले मोहन जी तथा मोहरी जी को समस्त घटनाक्रम से अवगत करवाया और पृथीचँद के व्यवहार को असंगत बताकर सबको सतर्क किया। स्वयँ अगले दिन एकान्तवास धारण कर लिया और उचित समय देखकर शरीर त्यागकर परम ज्योति में विलीन हो गए। श्री गुरू रामदास जी के जोती-जोत समाने का समाचार मिलते ही दूर-दूर से संगत श्री गोइँदवाल साहिब जी में पहुँच गई। गुरू के चक्क (श्री अमृतसर साहिब जी) से पृथीचँद और अन्य संगत भी बड़ी सँख्या में उमड़ पड़ी तभी गुरूदेव की अँत्येष्टि क्रिया सम्पन्न कर दी गई। उस समय भावुक श्री गुरू अरजन देव जी ने निम्नलिखित रचना का उच्चारण कियाः

सूरज किरण मिलै जल का जल हूआ राम ।।
जोती जोति रली संपूरन थीआ राम ।।
ब्रहम दीसे ब्रहम सुणीऐ एकु एकु वखाणीऐ ।।
आपि करता आपि भुगता आपि कारण कीआ ।।
बिनवंत नानक सेई जाणहि जिनी हरि रस पीआ ।।
(राग बिलावल, महला 5, अंग 1033)

अँत्येष्टि सम्पन्न होने के पश्चात सभी परिजनों की सभा हुई जिसमें गुरू आदेशों के अनुसार केवल हरि कीर्तन ही किया गया। किसी प्रकार का रूदन अथवा शोक व्यक्त करने की अनुमति प्रदान नहीं की गई। इस पर पृथीचँद ने गलतफहमियाँ उत्पन्न करने के लिए अफवा उड़ा दी कि पिता जी तो बिलकुल स्वस्थ थे, उनका निधन अकस्मात कैसे हो सकता है ? अवश्य ही अरजन ने उन्हें विष देकर मार डाला है ! किन्तु मामा मोहन जी व मोहरी जी ने दुष्ट प्रचार का कड़ा विरोध किया। उन्होंने संगत को सत्य से अवगत कराया और कहा कि पूर्ण पुरूष जन्म-मरण से ऊपर होते हैं। वह विधाता द्वारा दी गई श्वासों की पूँजी का सदोपयोग करके गुरूपुरी को सहर्ष प्रस्थान कर गए हैं। इसमें किसी को तनिक भी शँका नहीं करनी चाहिए। पृथीचँद की बात पर किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वह दिन आ गया समस्त क्षेत्र का अपार जनसमूह संगत रूप में एकत्र हुआ। समस्त गणमान्य व्यक्तियों ने अपनी श्रद्धा अनुसार गुरूदेव के उत्तराधिकारी श्री गुरू अरजन देव साहिब जी को भेंट स्वरूप वस्त्र इत्यादि दिए, किन्तु पगड़ी की रस्म के समय पृथीचँद ने फिर बखेड़ा उत्पन्न कर दिया कि मैं बड़ा लड़का हूँ अतः परम्परा अनुसार मेरा अधिकार इन समस्त वस्तुओं पर बनता है। उदारचित श्री गुरू अरजन देव जी ने ये तर्क तुरन्त स्वीकार कर लिया और पगड़ी अपने बड़े भाई पृथीचँद के सिर बँधवा दी। इस पर उसने समस्त धन जो उपहार स्वरूप आया था समेटा और श्री अमृतसर साहिब जी लौट गया। कुछ लोगों ने पृथीचँद के कार्यों पर आपत्ति की परन्तु श्री गुरू

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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