45. शहीदी: श्री गुरू अरजन देव साहिब
जी षडयँत्र के शिकार
मुगल शहँशाह अकबर अपने अन्तिम दिनों में अपने पोते खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाना
चाहता था, जबकि उसका पुत्र शहजादा सलीम (जहाँगीर) जो कि बहुत बड़ा शराबी था, वह भी
हर परिस्थिति में सिँहासन प्राप्त करना चाहता था। इसलिए उसने शेख सरहिंदी से गुप्त
संधि कर ली, जिसके अर्न्तगत वह फकीरी से प्राप्त प्रजा की सहानुभूति से जहाँगीर को
सिँहासन दिलवाएँगे। जिसके बदले में इस्लाम के प्रचार एँव प्रसार के लिए जहाँगीर को
प्रशासनिक बल प्रयोग करना होगा। उधर जहाँगीर चाहता था कि किसी भी मूल्य पर तख्त
प्राप्त करना चाहिए। अतः इस संधि को दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया। शेख अहमद
सरहिंदी को शेख बुखारी के अतिरिक्त जहाँगीर भी उसे अपना पीर-मुर्शद (गुरू) मानने लगा।
इस प्रकार इन दोनों ने जहाँगीर को तख्त दिलवाने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया।
इन दोनों का विश्वास जहाँगीर पर जब दृढ़ हो गया तो शेख सरहिंदी ने अपनी पीरी की
प्रभुसता से अकबर को प्रभावित किया कि वह अपने बड़े शहजादे को अपना उत्तराधिकारी
बनाने की घोषणा करे क्योंकि उसका सिँहासन पर अधिकार बनता है। तदपश्चात समय आने पर
खुसरो को स्वयँ ही उसका अधिकार मिल जाएगा। इस पर अकबर भी दबाव में आ गया तथा उसने
जहाँगीर को राजतिलक दे दिया।
अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर अहमद सरहिंदी की कठपुतली बनकर
रह गया। दूसरे शब्दों में सरकार के नीतिसंगत सभी फैसले शेख अहमद सरहिंदी के ही होते
जबकि बादशाह जहाँगीर केवल ऐश्वर्य तथा विलासता के कारण शराब में डुबा रहता था। ऐसी
दशा में शहजादा खुसरों ने तख्त प्राप्ति के लिए अपने पिता जहाँगीर के खिलाफ बगावत
कर दी। इस बगावत को कुचल दिया गया और खुसरो को मृत्युदण्ड दे दिया गया। शेख अहमद
सरहिंदी ने खुसरो के इस वृतान्त से अब अनुचित लाभ उठाने की योजना बनाई। जिसके
अनुसार उसने इस्लाम के विकास में बाधक, साहिब श्री गुरू अरजन देव जी को युक्त्ति से
समाप्त करने का विचार बनाया। गुरू जी को खुसरो बगावत काण्ड में जोड़कर दोष आरोपण किया
कि श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने खुसरो की सेना को भोजन (लँगर) इत्यादि में सेवा
कर सहायता की तथा उसने अपने ग्रँथ में इस्लाम की तौहीन लिखी है। इसलिए उन्हें पेश
करना चाहिए तथा ग्रन्थ भी साथ लाएँ। इस आदेश के जारी होने पर गुरू जी श्री आदि
ग्रन्थ साहिब एँव कुछ विशिष्ट सिक्खों की देखरेख में लाहौर पहुँच गए। वहाँ पर उन्हें
बागी खुसरो को सँरक्षण देने के आरोप में बागी घोषित कर दिया तथा दूसरे आरोप में कहा
गया कि वे इस्लाम के विरूद्ध प्रचार करते हैं। इसके उत्तर में गुरू जी ने बताया कि
खुसरो तथा उसके साथियों ने गुरू के लँगर श्री गोइँदवाल साहिब जी में भोजन अवश्य किया
था किन्तु उन दिनों हम तरनतारन में थे। वैसे भोजन प्राप्त करने श्री गुरू नानक जी
के दर पर कोई भी आ सकता है। फकीरों का दर होने के कारण वहाँ राजा व रँक का भेद नहीं
किया जाता। अतः किसी पर भी कोई प्रतिबन्ध लगाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आपके
पिता सम्राट अकबर अपने समय पर इस दर पर आए थे और लँगर ग्रहण किया था। इस उत्तर को
सुनकर सम्राट जहाँगीर सन्तुष्ट हो गया किन्तु शेख सरहिंदी तथा उसके साथियों ने कहा
कि उनके ग्रँथ में इस्लाम का अपमान किया है। इस पर गुरू जी ने साथ में आए सिक्खों
से श्री आदि ग्रन्थ साहिब जी का प्रकाश करवाकर उसमें से हुक्मनामा लेने का आदेश दिया
तब हुक्म प्राप्त हुआः
तिलंग महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥
असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥
बंदे चसम दीदं फनाइ ॥
दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥ रहाउ ॥
गैबान हैवान हराम कुसतनी मुरदार बखोराइ ॥
दिल कबज कबजा कादरो दोजक सजाइ ॥२॥
वली निआमति बिरादरा दरबार मिलक खानाइ ॥
जब अजराईलु बसतनी तब चि कारे बिदाइ ॥३॥
हवाल मालूमु करदं पाक अलाह ॥
बुगो नानक अरदासि पेसि दरवेस बंदाह ॥४॥१॥ अंग 723
यह हुक्मनामा जहाँगीर को बहुत अच्छा लगा, परन्तु शेख अहमद
सरहिंदी को अपनी बाजी हारती हुई अनुभव हुई और वह कहने लगा कि इस कलाम को इन लोगों
ने निशानी लगाकर रखा हुआ है इसलिए, उसी स्थान से पढ़ा है। अतः किसी दूसरे स्थान से
पढ़कर देखा जाए। इस पर जहाँगीर ने अपने हाथों से कुछ पृष्ठ पलटकर दुबारा पढ़ने का
आदेश दिया। इस बार भी जो हुक्मनाम आया, वह इस प्रकार हैः
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कुमभारै ॥२॥
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥
प्रभाती, अंग 1349
इस शब्द को सुनकर जहाँगीर अति प्रसन्न हो गया परन्तु दुष्टों ने
दोबारा कह दिया कि यह कलाम भी इन लोगों ने कण्ठस्थ किया मालूम पड़ता है। इसलिए किसी
ऐसे व्यक्ति को बुलाओ जो गुरमुखी अक्षरों का ज्ञान रखता हो, ताकि उससे इस कलाम के
बारे में ठीक पता लग सके। तब एक गैर-सिक्ख को बुलाया गया जो कि गुरमुखी पढ़ना जानता
था। उसको श्री ग्रन्थ साहिब जी में से पाठ पढ़ने का आदेश दिया गया। उस व्यक्ति ने जब
श्री ग्रन्थ साहिब जी से पाठ पढ़ना शुरू किया तब निम्नलिखित हुक्मनामा आयाः
बिसरि गई सभ ताति पराई ॥
जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥ रहाउ ॥
ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई ॥१॥
जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई ॥२॥
सभ महि रवि रहिआ प्रभु एकै पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥३॥
कानड़ा महला ५, अंग 1299
इस हुम्मनामे को सुनकर जहाँगीर पूर्णतः सन्तुष्ट हो गया किन्त
जुण्डली के लोग पराजय मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा ठीक है परन्तु इस
ग्रन्थ में हजरत मुहम्मद साहिब तथा इस्लाम की तारीफ लिखनी होगी। इसके उत्तर में गुरू
जी ने कहा कि इस ग्रन्थ में धर्म निरपेक्षता तथा समानता के आधार के इलावा किसी
व्यक्ति विशेष की प्रशँसा नहीं लिखी जा सकती तथा न ही किसी विशेष सम्प्रदाय की
स्तुति लिखी जा सकती है। इस ग्रन्थ में केवल निराकार परमात्मा की ही स्तुति की गई
है। जहाँगीर ने जब यह उत्तर सुना तो वह शान्त हो गया। परन्तु शेख अहमद सरहिंदी तथा
शेख फरीद बुखारी जो कि पहले से ही आग बबूले हुए बैठे थे। उनका कहना था कि यह तो
बादशाह की तौहीन है और गुरू जी की बातों से बगावत की बू आ रही है। इसलिए इनको माफ
नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चापलूसों के चँगुल में फँसकर बादशाह भी गुरू जी पर
दबाव डालने लगा कि उनको श्री आदि ग्रन्थ साहिब जी में हजरत मुहम्मद साहिब और इस्लाम
की तारीफ मे जरूर कुछ लिखना चाहिए। गुरू जी ने इस पर असमर्थता दर्शाते हुए स्पष्ट
इन्कार कर दिया। बस फिर क्या था। दुष्टों को अवसर मिल गया। उन्होंने बादशाह को विवश
किया कि गुरू अरजन देव बागी हैं जो कि बादशाह की हुक्म अदुली एँव गुस्ताखी कर उसकी
छोटी सी बात को भी स्वीकार करने को तैयार नही इसलिए इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना ही
उचित है। इस तरह बादशाह ने गुरू जी पर एक लाख रूपये दण्ड का आदेश दिया और स्वयँ वहाँ
से प्रस्थान कर सिंध क्षेत्र की और चला गया क्योंकि वह जानता था कि चापलूसों ने उससे
गलत आदेश दिलवाया है, बादशाह के चले जाने के पश्चात दुष्टों ने लाहौर के गर्वनर
मुर्तजा खान से माँग की कि वह श्री गुरू अरजन देव साहिब जी से दण्ड की राशि वसूल करें।
गुरू जी ने दण्ड का भुगतान करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया
क्योंकि जब कोई अपराध किया ही नहीं तो दण्ड क्यों भरा जाए ? लाहौर की संगत में से
कुछ धनी सिक्खों ने दण्ड की राशि अदा करनी चाही किन्तु गुरू जी ने सिक्खों को मना
कर दिया और कहा कि संगत का धन निजी कामों पर प्रयोग करना अपराध है। आत्मसुरक्षा अथवा
व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए संगत के धन का दुरूपयोग करना उचित नहीं है। गुरू जी ने उसी
क्षण साथ में आए हुए सिक्ख सेवकों को आदेश दिया कि वे आदि श्री ग्रन्थ साहिब जी के
स्वरूप की सेवा सम्भाल करते हुए श्री अमृतसर साहिब जी लौट जाएँ। गुरू साहिब जी को
अनुभव हो गया था कि दुष्ट जुण्डली के लोग, आदि श्री ग्रन्थ साहिब जी में मिलावट
करवाकर अथवा परमेश्वर की महिमा को समाप्त करने की कोशिश करेंगे क्योंकि उनकी इस्लामी
प्रचार में लोकप्रिय बाणी बाधक प्रतीत होती थी। वास्तव में वे लोग नहीं चाहते थे कि
जनसाधारण की भाषा में आध्यात्मिक ज्ञान बाँटा जाए क्योंकि उनकी तथाकथित पीरी-फकीरी
की दुकान की पोल खुल रही थी। दुष्ट लोग अपने षडयँत्र में सफल नहीं हुए, वैसे अपनी
ओर से उन्होंने कोई कोर कसर नही छोड़ी थी। इसलिए किसी नये काण्ड से पहले आदि श्री
ग्रन्थ साहिब जी के स्वरूप को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना जरूरी था।
दुसरी तरफ लाहौर का गर्वनर मुर्तजा खान जुण्डली के लोगों से
सहमति नही रखता था। वह नहीं चाहता था कि उसके हाथों से कोई भयँकर भूल का कार्य हो।
अतः वह बहुत कठिनाई में था, क्योंकि एक तरफ बादशाह के पीर मुर्शद का आदेश था, जिसकी
स्थिति उस समय किसी बेताज बादशाह से कम न थी और उससे अनबन करने का सीधा अर्थ गर्वनरी
को खोना था। मुर्तजा खान अभी इसी दुविधा में था कि उसकी समस्या दीवान चन्दूलाल ने
हल कर दी। चन्दू ने कहा कि गुरू अरजन देव जी को मेरे हवाले कर दो। मुझे उससे अपना
पुराना हिसाब चुकता करना है क्योंकि उसने कुछ लोगों के कहने में आकर मेरी लड़की का
रिश्ता अपने साहिबजादे के लिए अस्वीकार किया था। अब मैं दबाव डालकर रिश्ते को पुनः
स्वीकार कर लेने पर उसे विवश कर दूँगा तथा दण्ड की राशि खजाने में यह जानकर जमा करवा
दूँगा कि लड़की को दहेज दिया है। मुर्तजा खान इस प्रस्ताव पर तुरन्त सहमत हो गया तथा
उसने गुरू जी को चन्दूलाल के हवाले कर दिया। उधर चन्दू के मन में विचार चल रहा था
कि यह कोई खास बात नही कि प्रशासन के भय से गुरू अरजन देव जी उसकी लड़की का रिश्ता
स्वीकार कर लेंगे तथा उनकी व्यक्तिगत सफलता भी इसी में है कि वह परीक्षा के समय
मुर्तजा खान के काम आए। ऐसा करने से उसका अपना भी गौरव बढ़ेगा तथा और अधिक बड़ी पदवी
प्राप्त होगी। इस तरह वह गुरू जी को अपनी हवेली ले आया तथा कई विधि-विधानों से गुरू
जी को मनाने के प्रयास करने लगा ताकि रिश्तेदारी कायम की जा सके।
इस बात पर वह अपनी बात करता हुआ बोला, इस सबमें हम दोनों का भला
है। आपको प्रशासन के क्रोध से मुक्ति पानी होगी और मेरा बिरादरी में स्वाभिमान रह
जाएगा और प्रशासन की ओर से भी प्रशँसा प्राप्त होगी। किन्तु गुरू जी ने उसकी एक नहीं
मानी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। उसके घर का अन्न जल भी स्वीकार न किया। केवल
एक ही उत्तर दिया कि उन्हें संगत का आदेश है कि उसकी पुत्री के घर का रिश्ता
स्वीकार नहीं करना क्योंकि उसने श्री गुरू नानक देव साहिब जी के दर-घर को मोरी कहा
है और स्वयँ को चौबारा कहा है, लेकिन गुरू जी को मनाने के लिए चन्दू ने बहुत से
उल्टे-सीधे हथकण्डे अपनाए। अन्त में वह तरह-तरह से धमकी देने लगा किन्तु बात तब भी
बनती दिखाई नहीं दी। उसने तँग आकर सख्त गर्मी के दिनों में गुरू जी को भूखे-प्यासे
ही अपनी हवेली के एक कमरे में बन्द कर दिया। तदपश्चात रात को एकान्त पाकर, चन्दू की
पुत्रवधू (बहू) जो कि गुरू घर में अपार श्रद्धा रखती थी, गुरू जी के लिए शरबत लेकर
उपस्थित हुई तथा विनती करने लगी, कि गुरू जी जल ग्रहण करें तथा उसके ससुर को क्षमा
दान दें क्योंकि वह नहीं जानता कि वह क्या अवज्ञा कर रहा है। गुरू जी ने उसे
साँत्वना दी और कहा कि पुत्री मैं विवश हूँ, संगत के आदेश के कारण मैं यह जल ग्रहण
नहीं कर सकता। प्रातःकाल जब सरकारी कोतवाल चँदू के पास हाल जानने के लिए आया तो चँदू
ने यह कहकर गुरू जी को उसके हवाले कर दिया कि गुरू जी ने मेरी शर्त नही मानी।
बस फिर क्या था, सरकारी दुष्टों को निर्धारित षडयँत्र के अनुसार
कार्य करने का अवसर प्राप्त हो गया। उन्होंने चन्दू को तुरन्त अपने विश्वास में लिया
और गुरू जी को अपनी हिरासत ले लेकर लाहौर के शाही किले में आ गए। इस तरह शेख अहमद
सरहिंदी ने परदे की ओट में रहकर शाही काजी से गुरू जी के नामा फतवा जारी करवा दिया।
फतवे में कहा गया कि गुरू अरजन देव जी दण्ड की राशि अदा नहीं कर सके। अतः वह इस्लाम
कबूल कर लें अन्यथा मृत्यु के लिए तैयार हो जाएँ। गुरू जी ने उत्तर दिया कि यह शरीर
तो नश्वर है। इसका मोह कैसा ? मृत्यु का भय कैसा ? प्रकृति का नियम अटल है, जो पैदा
हुआ है उसका विनाश होना है। मरना जीना परमेश्वर के हाथ में हैं, इसलिए इस्लाम
स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आपने जो मनमानी करनी है उसे कर डालो। इस
पर काजी ने नियमावली अनुसार वासा के कानून के अर्न्तगत मृत्युदण्ड का फतवा दे दिया
तथा कहा कि जैसे दूसरे बागियों को चमड़े के खोल में बँद करके मृत्यु के घाट उतारा
है, ठीक उसी प्रकार इस बागी को गाय के चमड़े में मढ़कर खत्म कर दो।
इससे पहले कि गाय का ताजा उतरा हुआ चमड़ा प्राप्त होता, शेख अहमद सरहिंदी ने अपने रचे
षडयँत्र के अनुसार गुरू साहिब जी को यातनाएँ देकर इस्लाम स्वीकार करवाने की योजना
बनाई। गुरू जी को उसने किले के आँगन में कड़कती धूप में खड़ा करवा दिया। गुरू जी रात
भर से ही भूखे प्यासे थे, क्योंकि चँदू के यहाँ उन्होंने अन्न जल स्वीकार नहीं किया
था। ऐसे में शरीर बहुत दुर्बलता अनुभव करने लगा था किन्तु वह तो आत्मबल के सहारे
अडोल खड़े थे। जल्लाद भी गुरू जी पर दबाव डाल रहा था, इस्लाम स्वीकार कर लो, क्यों
अपना जीवन व्यर्थ में खोते हो। परन्तु गुरू जी इस सब कुछ से इन्कार कर रहे थे।
दुष्टों ने गुरू जी को तब डराना-धमकाना प्रारम्भ कर दिया तथा क्रोध में आकर उनको एक
लोह (एक बहुत बड़े तवे) पर बिठा दिया जो उस समय जेठ माह की कड़ाके की घूप में आग जैसी
गर्म थी। इसके नीचे आग जलाई गई। गर्म तवे पर बैठकर भी गुरू जी अडोल रहे। जैसे कोई
आदमी तवे पर नही बल्कि कालीन पर विराजमान हो।
गुरू जी पर हो रह इस प्रकार के अत्याचारों की सूचना जब लाहौर
नगर की जनता तक पहुँची तो साँईं मीयाँ मीर जी तथा बहुत सी संगत किले के पास पहुँची
तो उन्होंने पाया कि किले के चारों और सख्त पहरा होने के कारण अन्दर जाना असम्भव
है। अनुमति केवल साँईं मियाँ मीर जी को मिल सकी। यातनाएँ झेलते हुए गुरू जी को
देखकर साँईं जी ने आश्चर्य प्रकट किया। तब गुरू जी ने कहा, कि आपने एक दिन
ब्रहमज्ञानी के अर्थ श्री सुखमनी साहिब जी की बाणी में से पूछे थे। तब हमने कहा था
कि समय आने पर बताएँगे। मैं आज उन पँक्तियों के अनुरूप जीने का प्रयास कर रहा हूँ।
सब कुछ उस प्रभु की इच्छाओं अनुसार ही होता है। किसी पर भी कोई गिला शिकवा नहीं।
फकीरों की रमज (दिल की बात) फकीरों ने समझी। इस तरह साँईं मीयाँ मीर जी ब्रहमज्ञान
का उपदेश लेकर वापिस लौट आए। गुरू जी पर जब कोई असर न हुआ तो जल्लादों ने एक बार
फिर गुरू जी को चुनौती दी तथा कहा अब भी समय है, सोच विचार कर लो, अभी भी जान बच
सकती है, इस्लाम कबूल कर लो और जीवन सुरक्षित कर लो। गुरू जी ने उनके प्रस्ताव को
पुनः अस्वीकार कर दिया तथा जल्लादों ने गुरू जी के सिर में गर्म रेत डालनी आरम्भ कर
दी।। सिर में गर्म रेत के पड़ने से गुरू जी की नाक से खुन बहने लगा और वे बेसुध हो
गए। जल्लादों ने जब देखा कि उनका काम यासा कानून के विरूद्ध हो रहा है तो उन्होंने
गुरू जी के सिर में पानी डाल दिया ताकि यासा के अनुसार दण्ड देते समय खुन नहीं बहना
चाहिए।
सिर में पानी डालने से भी जब कोई परिणाम न निकला तो जल्लादों ने
परेशान होकर उन्हें उबली देग (उबलता हुए गर्म पानी) में बिठा दिया। "जिउ जल में जलु
आए खटाना तिउ ज्याति संग जोत समाना" के महावाक्य के अनुसार गुरू जी ने जब शरीर छोड़
दिया तो अत्याचारियों ने इस जधन्य हत्याकाण्ड को छिपाने के लिए गुरू जी का पार्थिव
शरीर रात्रि के अन्धकार में रावी नदी के जल में बहा दिया। इस दुर्घटना को छुपाने के
लिए कोतवाल ने दीवान चँदू को तुरन्त बुला भेजा और उसको अपने पक्ष में ले लिया।
दीवान चन्दू से कहा गया कि श्री गुरू अरजन देव साहिब जी को हमने तुम्हारे यहाँ से
हिरासत में लिया था, इसलिए अफवाह फैलाकर लोगों से गुहार करें कि गुरू जी ने स्नान
करने की इच्छा प्रकट की थी इसलिए वह नदी में बहकर शायद डूब गए अथवा बह गए होंगे।
उनका वापिस न लौटने का कारण भी यही हो सकता है।