42. चन्दूलाल की बेटी की सगाई असफल
दीवान चन्दूलाल, बादशाह अकबर के वित मँत्रालय में एक अधिकारी था। अतः लोग उसको
दीवान जी कहकर सम्बोधन करते थे। चन्दूलाल ने दिल्ली तथा लाहौर नगरों में अपने पक्के
निवास के लिए हवेलियाँ बनवाई हुई थीं। प्राचीन परम्परा के अनुसार चन्दूलाल ने अपनी
लड़की का रिश्ता करने के लिए पुरोहितों को एक सुयोग्य वर ढूँढने की आज्ञा दे रखी थी।
इतिफाक से पूरोहितों ने गुरूघर की महिमा सुन रखी थी तो वह श्री अमृतसर साहिब जी आए।
जब उन्होंने गुरू जी के दर्शन किए तो वह गदगद हो गए। उन्होंने गुरू जी के सुपुत्र
श्री हरिगोबिन्द साहिब जी को देखा, जो कि उस समय किशोर अवस्था में केवल ग्यारह वर्ष
के लगभग थे तो वह उनको निहारते ही रह गए। उनकी सुन्दर छवि पुरोहितों के दिल में एक
अमिट छाप छोड़ गई। वह हरिगोबिन्द जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। समय मिलते
ही पुरोहित ने गुरू जी के समक्ष अपने दिल की बात रखी और कहा कि मैं आपके सुपुत्र
श्री हरिगोबिन्द साहिब जी के लिए चन्दूलाल की लड़की का रिश्ता लाया हूँ, वह बेटी भी
अति सुन्दर और सुशील है। कृप्या यह रिश्ता स्वीकार करें। उत्तर में गुरू जी ने कहा
कि ठीक है। स्वीकृति प्राप्त होते ही यह शुभ समाचार लेकर पुरोहित दिल्ली पहुँचा।
उसने चन्दूलाल को गुरू घर के वैभव से अवगत कराया। चन्दूलाल प्रसन्न हुआ किन्तु
मीन-मेख निकालने के लिए उसने अपने अभिमानी स्वभाव का परिचय दिया। उसने कहा- हमारा
राजसी परिवार है, वह फकीरों का दर है, परन्तु कोई बात नहीं। तुम्हारे कार्य पर हम
सन्तुष्ट हैं और उसने यह शुभ समाचार देने के लिए स्थानीय बिरादरी को एक प्रीतिभोज
पर निमन्त्रण दिया। जिसमें नगर के गणमान्य लोग उपस्थित हुए। इनमें से अधिकाँश
गुरूघर पर अपार श्रद्धा रखते थे। प्रीतिभोज के मध्य में चन्दूशाह ने पुरानी पँजाबी
प्रथाओं अनुसार हंसी-मजाक करते हुए कहा कि यह पुराहित भी कैसे हैं ? "चुबारे की ईंट
मोरी को लगा दी है।" यह वाक्य सुनते ही वहाँ का वातावरण गम्भीर हो गया। गुरूघर के
श्रद्धालू सिक्खों ने बहुत आपत्ति की और प्रीतिभोज का बहिष्कार कर दिया और वापिस चले
आए। उन्होंने तुरन्त आपस में विचारविमर्श करके गुरू जी को एक पत्र द्वारा सारे
वृतान्त की सूचना भेजी ओर गुरू जी से अनुरोध किया कि वह इस अभिमानी चन्दूलाल की बेटी
का रिश्ता स्वीकार न करें।
गुरू जी ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। जब पुरोहित शगुन लेकर
श्री अमृतसर साहिब जी में पहुँचे तो गुरू जी ने उन्हें बताया कि उनको दिल्ली की
संगत का आदेश है कि चन्दू ने श्री गुरू नानक देव साहिब जी के गृह को तुच्छ बताया है
और स्वयँ महान बनता है। अतः इस अभिमानी व्यक्ति का नाता स्वीकर न करें। अतः हम विवश
हैं ओर यह रिश्ता नहीं हो सकता। इस पर पुरोहित ने गुरू जी को बहुत मनाने की कोशिश
की, परन्तु गुरू जी ने एक ही उत्तर दिया कि हमारे लिए संगत का आदेश सर्वप्रथम है।
जब रिश्ते के अस्वीकार होने की सूचना जब चन्दूलाल को हुई तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ,
क्योंकि वह वास्तव में इस रिश्ते से सन्तुष्ट था। किन्तु अब कुछ किया नहीं जा सकता
था। जैसे ही गुरू जी ने पुरोहित जी को इन्कार किया। उसी समय सजे हुए दरबार में एक
व्यक्ति उठा, जिसका नाम नारायणदास था, वह विनती करने लगा कि हे गुरूदेव ! कृप्या आप
मेरी पुत्री कुमारी दामोदरी का रिश्ता अपने सुपुत्र श्री हरिगोबिन्द जी के लिए
स्वीकार करें। गुरू जी ने उसे अपना परम भक्त जानकर तुरन्त स्वीकृति प्रदान कर दी।
भाई नारायणदास जी प्रसिद्ध डल्ला निवासी भाई पारो जी के पुत्र थे।