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38. श्री आदि बीड़ (श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी) का सँकलन

श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में कुछ श्रद्धालू सिक्ख उपस्थित हुए और वे विनती करने लगे कि गुरूदेव जी ! आप जी द्वारा रचित अथवा पूर्व गुरूजनों द्वारा रचित बाणी जब हम पठन करते हैं तो मन को बहुत शान्ति मिलती है परन्तु इसके विपरीत आपके भ्राता पृथीचँद अथवा उसके पुत्र मेहरवान द्वारा रचित काव्य मन को चँचल कर देते हैं अथवा अभिमानी बना देते हैं। उसका क्या कारण है ? यह प्रश्न सुनकर गुरू जी गम्भीर हो गए और कुछ क्षण मौन रहने के बाद उत्तर दिया। तीसरे गुरू अमरदास जी इस बात का निर्णय समय से पहले ही कर गए हैं। उनका कथन है कि जो मनुष्य अपने अस्तित्व को मिटा दे ओर उस प्रभु में अभेद हो जाए अर्थात सत्य में समा जाए, तदपश्चात वह अपने अनुभव अथवा ज्ञान जिज्ञासुओं को दे, भले ही वह ज्ञान पद्य अथवा गद्य में हों। यह अनुभव ज्ञान उस असीम प्रभु मिलन से उत्पन्न हाता है, इसलिए वह जनसाधारण का कल्याणकारी बन जाता है। इसके विपरीत जो मनुष्य केवल स्वाँग रचकर गुरू दम्भ का आडम्बर करते हैं अथवा तृष्णाओं से ग्रस्त रहते हैं यानि मन पर विजय नही करते, उनके द्वारा रचित काव्य या उपदेश श्रद्धालूओं पर कोई सार्थक प्रभाव नही डालते क्योंकि उनकी कविता केवल अनुमान पर आधारित होती है, अनुभव पर नहीं। अतः गुरू जी ने उनको कच्ची बाणी बताया है और कहा है कि वह स्वयँ कच्चे लोग हैं, परिपूर्ण पारब्रहम परमेश्वर की क्या स्तुति करेंगे ?

सतिगुरू बिना होर कची है बाणी ।।
बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ।।
कहदे कचे सुणदे कचे कची आखि वखाणी ।।

यह उत्तर सुनकर श्रद्धालू सिक्ख सन्तुष्ट हो गए, परन्तु उनमें से एक ने कहा कि गुरू जी ! हम जनसाधारण लोग, कच्ची और पक्की बाणी में कैसे भेद करेंगे ? उस समय पास में भाई गुरदास जी बैठे थे। उन्होंने गुरू जी से आज्ञा प्राप्त करके इस प्रश्न का उत्तर दिया। वह कहने लगे कि जैसे कि बहुत से पुरूष किसी कमरे में बैठे वार्तालाप कर रहे हों, दूसरे कमरे में बैठी स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों की आवाज पहचानती हैं, ठीक इसी प्रकार गुरूसिक्ख अपने गुरू की बाणी को पहचान जाते हैं। इस पर जिज्ञासु सिक्खों ने सँशय व्यक्त किया और कहा कि आप ठीक कहते हैं। परन्तु भविष्य में साधारण जिज्ञासु भ्रमित किए जा सकते हैं, क्योंकि आपका भतीजा मेहरबान कुछ कवियों की सहायता प्राप्त करके बाणी रचने का प्रयास कर रहा है। वास्तव मे वह आपकी छत्रछाया में रहने से गुरमति सिद्धान्तों को भी जानता है। अतः उसका किया गया छल किसी समय बहुत बड़ा धोखा कर सकता है क्योंकि वह अपनी कच्ची बाणी में नानक शब्द का प्रयोग कर रहा है। गुरू जी इस विषय पर बहुत गम्भीर हो गए और कहने लगे कि बहुत समय पहले जब मैं लाहौर अपने ताऊ श्री सिहारीमल जी के आग्रह पर उनके बेटे के शुभ विवाह पर गया हुआ था। तब मुझे वहाँ के स्थानीय पीरों फकीरों से मिलने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ था और उनकी निकटता प्राप्त करने के पश्चात हमारे दिल में यह इच्छा उत्पन्न हुई थी कि एक ऐसा आध्यात्मिक ग्रन्थ दुनियाँ में रचा जाना चाहिए जो बिना भेदभाव के समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी हो। अब वह समय आ गया है। अतः हमें तन, मन और धन से इस और जुट जाना चाहिए।

गुरू जी ने अपने दिल की बात प्रमुख शिष्योः भाई गुरदास जी, बाबा बुडढा जी और भाई बन्नों जी इत्यादि को बताते हुए कहा कि अब श्री हरिमन्दिर साहिब जी तैयार हो चुका है, जैसे कि आप सभी जानते ही हैं। हमारा इष्ट निराकार पारब्रहम परमेश्वर है यानि हम केवल ब्रहमज्ञान के उपासक हैं और उसी की पूजा करते हैं। अतः हम चाहते हैं कि श्री हरिमन्दिर साहिब जी के केन्द्र में केवल और केवल उस सच्चिदानँद परमपिता परमेश्वर की ही स्तुति हो। इसलिए उन महापुरूषों तथा पूर्व गुरूजनों की बाणियों का सँग्रह करके एक विशेष ग्रन्थ की रचना की सम्पादना करनी चाहिए, जो प्रभु में एकमय हो चुके हैं यानि उससे साक्षात्कार कर चुके हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि ऐसे निरपेक्ष ग्रन्थ के अस्तित्व से समस्त भक्तजनों को जहाँ सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी, वहीं इन बाणियों के पठन-पाठन एँव श्रवण से समस्त मानव समाज के जिज्ञासुओं का उद्धार होगा। यह सुझाव भाई गुरदास जी, बन्नों जी और बाबा बुडढा जी इत्यादि समस्त सिक्खों को बहुत पसन्द आया। सचमुच यह विचार ही आलौकिक और अभूतपूर्व था। उन्होंने तत्काल गुरूदेव जी के सुझाव अनुसार एक विशेष स्थान का निर्माण प्रारम्भ कर दिया, जहाँ एकान्त में बैठकर नये ग्रन्थ की सम्पादना की जा सके। इस कार्य के लिए भाई बन्नों जी ने अपनी सेवाएँ गुरू जी को समर्पित कीं। उन्होंने पेयजल अथवा स्नान इत्यादि के लिए जल की व्यवस्था करने के लिए एक ताल बनवाया, जिसका नाम श्री रामसर साहिब जी रखा। इस सरोवर के किनारे तम्बू लगाये गए। इस बीच गुरू जी स्वयँ सामाग्री जुटाने में व्यस्त हो गए। कागज, स्याही इत्यादि प्रबन्ध के पश्चात उन्होंने अपने पूर्व गुरूजनों की बाणी जो कि उन्हें धरोहर के रूप में पिता श्री गुरू रामदास जी से प्राप्त हुई थी, अमृतसर साहिब से रामसर के एकान्तवास में ले आए। जब सब तैयारी सम्पूर्ण हो गई तो आपने श्री ग्रन्थ साहिब जी को प्रारम्भ करने के लिए संगत जुटाकर प्रभु चरणों में कार्य सिद्धि के लिए प्रार्थना की और प्रसाद बाँटा, तभी संगत में से एक सिक्ख ने सुझाव दिया कि श्री ग्रन्थ साहिब का मँगलाचरण किसी महान विभुति से लिखवाया जाना चाहिए।

गुरू जी ने यह सुझाव तुरन्त स्वीकर कर लिया। अब समस्या उत्पन्न हुई कि वह महान विभूति कौन है, जिससे यह कार्य करवाया जाए। बहुत सोच विचार के पश्चात संगत में से प्रस्ताव आया कि आप अपने मामा मोहन जी से ग्रन्थ में मँगलाचरण लिखवाएँ क्योंकि वह आपके नाना, पूर्व गुरूजन के सुपुत्र हैं तथा वह एक महान तपस्वी भी हैं। गुरू जी ने सहमति प्रकट की और उनको रामसर आने का न्यौता बाबा बुडढा जी और भाई गुरदास जी के हाथ भेजा। जब गुरू जी का यह प्रतिनिधिमण्डल श्री गोइँदवाल साहिब जी में बाबा मोहन जी के गृह पहुँचा। वह उस समय पदम आसन मे प्राणायाम के माध्यम से तपस्या में लीन थे। उनकी समाधि किसी ने भी भँग करना उचित नहीं समझा। अतः सभी लौट गए। इस पर गुरू जी स्वयँ उनको आमँत्रित करने के लिए श्री गोइँदवाल साहिब जी पहुँचे। जब उन्होंने भी पाया कि बाबा मोहन जी की सुरति प्रभु चरणों में जुड़ी हुई है तो उन्होंने युक्ति से काम लिया। वह जानते थे कि मोहन जी कीर्तन के रसिया हैं। वह प्रभु स्तुति सुनकर अवश्य ही चेतन अवस्था में लौट आएँगे। अतः उन्होंने प्रभु स्तुति में अपने प्रतिनिधिमण्डल सहित कीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। कीर्तन की मधुर धुनों से बाबा मोहन जी की समाधि उत्थान अवस्था में आ गई। वह संगीतमय वातावरण देखकर अति प्रसन्न हुए और प्रभु स्तुति सुनकर मँत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने अपने भाँजे श्री गुरू अरजन देव साहिब जी को आशीष दी और कहा कि बताओ, क्या चाहते हो ? गुरू जी ने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा कि हमने निर्णय लिया है कि एक ऐसे ग्रन्थ की सम्पादना की जाए, जिसमें पूर्व गुरूजनों के अतिरिक्त उन महापुरूषों की बाणी या भक्तजनों की बाणी भी सँग्रह की जाए जो केवल एकेश्वर को भजते थे और जिन्हें उस परम ज्योति का साक्षात्कार हुआ है। जिससे समस्त मानव समाज का कल्याण हो सके। अतः हम चाहते हैं कि इस ग्रन्थ का मँगलाचरण आप लिखें। उत्तर में बाबा मोहन जी ने कहा कि आपका आशय तो बहुत ही उत्तम है किन्तु जब हमसे भी बुजुर्ग यहाँ मौजुद हों तो यह कार्य मुझे शोभा नहीं देता। अतः आप श्री गुरू नानक देव साहिब जी के ज्येष्ठ पुत्र श्रीचँद जी के पास जाओ। बात में तथ्य था। इसलिए गुरू जी ने तुरन्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किन्तु विनती की कि आप भी अपनी बाणी इस ग्रन्थ के लिए हमें दें। इस पर बाबा मोहन जी ने उत्तर दिया जैसा कि आप जानते हैं कि आपके नाना गुरू अमरदास जी की रचनाओं को हमारे भतीजे संतराम जी लिपिबद्ध किया करते थे।

उन्होंने अपने भाई सुन्दर जी की बाणी सँग्रह की हुई है, जो उन्होंने अपने दादा श्री गुरू अमरदास जी के जोती-जोत पर उच्चारण की थी। यदि आप चाहते हैं तो उनसे मिलें और वह बाणी एकत्र कर लें। गुरू जी सत्य वचन कहकर श्री सुन्दर जी से मिले और उनसे उनकी रचनाएँ प्राप्त कर लीं। गुरू जी बाबा मोहन जी के सुझाव को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्री गोइँदवाल साहिब जी से बाबा श्रीचँद जी के निवास स्थान गाँव बारठ के लिए प्रस्थान कर गए। वहाँ उन्होंने बाबा श्रीचँद जी को अपने आने का प्रयोजन बताया। श्रीचँद जी प्रयोजन सुनकर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने श्री गुरू अरजन देव साहिब जी से आग्रह किया कि आप कृप्या अपनी रचनाएँ सुनाएँ। इस पर गुरू जी ने श्री सुखमनी साहिब जी शीर्षक वाली रचना सुनानी प्रारम्भ की। श्रीचँद जी सुखमनी साहिब के पठन के मध्य में ही आत्मविमुग्ध हो गए और उन्होंने कहा कि आपकी बाणी विश्व भर में आध्यात्मिक जगत में प्रथम स्थान पर मानी जाएगी। भक्तजनों में अति लोकप्रिय होगी और समस्त मानव समाज के लिए हितकारी होगी। इस आशीष के मिलने पर गुरू जी ने उनसे आग्रह किया कि कृप्या आप भी अपनी बाणी हमें दें, तो हम उसे इस नये ग्रन्थ में सँकलित कर लें। इस पर श्रीचँद जी ने उत्तर दिया कि आप श्री गुरू नानक देव साहिब जी की गद्दी पर विराजमान हैं। यह बाणी रचने का अधिकार केवल और केवल आप को ही है क्योंकि आप नम्रता के पूँज हैं। अतः आपसे इस कार्य के लिए क्षमा चाहते हैं। इस पर गुरूदेव जी ने श्रीचँद जी से फिर विनम्र आग्रह किया कि आप केवल ग्रन्थ का मँगलाचरण अथवा आमुख लिखें। तब श्रीचँद जी ने कलम उठाई और गुरूदेव द्वारा प्रस्तुत कागजों पर मुलमँत्र लिखा जो कि श्री गुरू नानक देव साहिब जी की बाणी जपुजी साहिब के प्रारम्भ में उस सच्चिदानँद अथवा दिव्य ज्योति (परमात्मा) की परिभाषा है।

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

गुरू जी मँगलाचरण लिखवाकर श्री अमृतसर साहिब जी लौट आए और उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भाई बन्नों जी एकान्तवास में एक सरोवर निर्माण करके उसके किनारे शमियाने लगाकर उस शिविर में प्रतीक्षा कर रहे थे। अब गुरूदेव के समक्ष दो लक्ष्य थेः एक दूर प्रदेशों से आई संगत को निवाजना (सन्तुष्ट अथवा कृर्ताथ करना) तथा दूसरा थाः एकान्तवास में आध्यात्मिक दुनिया को एक नया सरल भाषा में ग्रन्थ उपलब्ध करवाना जो निरपेक्ष, सर्वभौतिक, सर्वकालीन और सर्वमानव समाज के लिए सँयुक्त रूप में हितकारी और कल्याणकारी हो। गुरू जी ने बाबा बुडढा जी को आदेश दिया कि आप श्री अमृतसर साहिब जी में ही रहें। वहाँ दूर-प्रदेशों से आई संगतों को निवाजें और हमारी कमी उन्हें महसूस न होने दें। ध्यान रहे कि हमारे एकान्तवास में कोई विध्न उत्पन्न नही होना चाहिए, ताकि हम ग्रन्थ के सम्पादन में एकाग्र हो सकें। गुरू जी ने मुक्ष्य लक्ष्य को ध्यान में रखकर नये ग्रन्थ की सम्पादना के लिए, भाई गुरदास जी को इसका उत्तरदायित्व सौंपा। भाई गुरदास जी ने तत्कालीन उत्तरप्रदेश के कई क्षेत्रों में गुरमति प्रचार की सेवा की थी। आप उच्चकोटि के विख्यात विद्वान थे। आप हिन्दी, ब्रज, पँजाबी, फारसी भाषाओं के गहन अध्ययन प्राप्त व्यक्तित्व के स्वामी थे। आपने स्वयँ भी बहुत से काव्य रचे थे जो कि आज भी सिक्ख जगत में अति लोकप्रिय हैं। उन दिनों आप जी को गुरूबाणी का श्रेष्ठ व्याख्याकार माना जाता था। कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए की आप काव्य कला, व्याकरण भाषा, राग विद्या इत्यादि के महान पण्डित थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गुरू जी ने समस्त महापुरूषों की बाणी पहले से ही अपने पास सँग्रह कर रखी थी, जिसका आशय अथवा सिद्धान्त पूर्व गुरूजनों से मेल खाता था या उनके विचारों से गुरमति सिद्धान्त से कोई प्रतिरोध न था। वैसे श्री गुरू नानक देव साहिब जी ने अपने प्रचार दौरों के समय जहाँ अपनी बाणी एक विशेष पोथी में लिखकर सुरक्षित कर ली थी, वहीं वह उन महापुरूषों की बाणी, जिनका आशय गुरू जी की अपनी बाणी से मिलता था अथवा सैद्धान्तिक समानता थी, अपने पास एक अलग से पोथी में सँकलित कर ली थी, जो कि उन्हें समय-समय पर विभिन्न प्रदेश में विचरण करते समय उनके अनुयायियों द्वारा सुनाई गई थी।

आप जी ने जब अपना स्थाई निवास करतारपुर बसाया तो वहाँ आप इन पोथियों में सँकलित बाणियों का प्रचार किया करते थे। जब आप जी ने अपना उत्तराधिकारी भाई लहणा जी को नियुक्त करके उनको श्री गुरू अंगद देव जी बनाया यानि गुरू पदवी देकर दूसरा गुरू नानक घोषित किया तो उन्हें समस्त बाणी जो उन्होंने स्वयँ उच्चारण की थी, अथवा अन्य महापुरूषों की रचनाएँ एकत्रित की थीं, एक धरोहर के रूप में उनको समर्पित कर दी थी। यह परम्परा इसी प्रकार आगे बढ़ती ही चली गई और अन्त में चारों गुरूजनों की रचनाएँ तथा अन्य भक्त, महापुरूषों की रचनाएँ या बाणी श्री गुरू रामदास जी द्वारा, श्री गुरू अरजन देव जी को धरोहर सौंप दी गई थी। जिनको कि इस समय कुछ नियमों के अनुसार क्रमबद्ध करने के लिए भाई गुरदास जी और स्वयँ गुरू जी एक मन एकचित होकर तैयार बैठे थे। गुरू जी के समक्ष अब समस्त रचनाओं को नये सिरे से रागों के अनुसार क्रम देने तथा गुरूबाणी के शब्द जोडकर एक समान करने का विशाल कार्य था। इसके अतिरिक्त काव्य-छँदों की दृष्टि से समस्त बाणी व वर्गीकरण करना अति आवश्यक लक्ष्य था। यह कार्य जहाँ अति परिश्रम का था, वहीं इसके लिए समय भी बहुत अधिक चाहिए था। अतः आप रात-दिन एक करके इस महान कार्य को सम्पूर्ण करने में व्यस्त हो गए। आपने उन्हीं रागों का चयन किया जो मन को स्थिर करके शान्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। उन रागों को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित नहीं किया, जिनके उच्चारण अथवा गायन से मन चँचल अथवा उत्तेजित होता है। आप जी ने सारी बाणी को 30 रागों में लिखवाया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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