35. शीतला (चेचक) रोग
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी प्रचार अभियान के अर्न्तगत लोक कल्याण के लिए कुछ
विशेष कार्यक्रम चला रहे थे, जिसमें अकालग्रस्त क्षेत्रों में कुँए खुदवाना तथा
पीड़ितों के लिए लँगर दवाएँ इत्यादि का प्रबन्ध उल्लेखनीय था। सन 1599 ईस्वी की बात
है कि आपको सूचना मिली कि लाहौर नगर में अकाल पड़ गया है और वहाँ लोग भूख-प्यास के
कारण मर रहे हैं तो आप से न रहा गया। आपने कमजोर वर्ग के लिए सहायता शिविर लगाने के
विचार से अपने समस्त अनुयायियों को प्रेरित किया और स्वयँ परिवार सहित लाहौर नगर
पहुँच गए। परिवार को साथ रखना अति आवश्यक था क्योंकि आपके भाई पृथीचँद ने ईर्ष्या
के कारण आपके सुपुत्र बालक हरिगोबिन्द जी पर कई घातक हमले अपने षडयँत्रों द्वारा
किये थे, अतः बालक की सुरक्षा अति आवश्यक थी। जब आप लाहौर नगर में जनसाधारण के लिए
सहायता शिविर चला रहे थे तो उन्हीं दिनों वहाँ पर मलेरिया व शीतला (चेचक) जैसे रोग
विकराल रूप धारण करके घर-घर फैले हुए थे। असँख्य मनुष्य इन रोगों का सामना न कर
मृत्यु की गोद में समा रहे थे। लाहौर नगर की गलियाँ शवों से भरी हुई थी। प्रशासन की
और से कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में आप जी द्वारा चलाये जा रहे सहायता शिविरों में
स्वयँ सेवकों ने नगरवासियों के सभी प्रकार के दुखों को दूर करने का बीड़ा उठा लिया।
इसी बीच बालक हरिगोबिन्द जी को छूत का रोग शीतला (चेचक) ने आ घेरा। किन्तु आप
विचलित नहीं हुए। आपने तुरन्त परिवार को उपचार के लिए वापिस श्री अमृतसर साहिब जी
भेज दिया। किन्तु आप जानते थे कि जनसाधारण में दकियानूसी विचार प्रबल हैं, अशिक्षा
के कारण लोग शीतला (चेचक) को माता कहते हैं और इस रोग का उपचार न करके अँधविश्वासों
के अर्न्तगत काल्पनिक देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, जिनका अस्तित्व भी नहीं है।
अतः आप स्वयँ भी श्री अमृतसर साहिब जी पधारे और अपने बालक का उपचार करने लगे। प्रायः
इस रोग के लक्ष्ण इस प्रकार होते हैः पहले तेज बुखार होता है, दूसरे-तीसरे दिन रोगी
बेहोश होना शुरू हो जाता है। शरीर से अग्नि निकलती प्रतीत होती है, उसके पश्चात सारा
शरीर फफोलों से भर जाता है। ज्यों ज्यों फफोले निकलते हैं, मूर्छा कम होती जाती है।
यह रोग इतना भयानक होता है कि कई रोगियों की आँखे खराब हो जाती हैं, वे अन्धे हो
जाते हैं, व्यक्ति सदा के लिए कुरूप हो जाता है। उन दिनों शिक्षा के अभाव के कारण
अथवा अज्ञानता के कारण अँधविश्वास का बोलबाला था। दकियानुसी लोग वहमों, भ्रमों को
बढ़ावा देते रहते थे। ये लोग शीतला रोग को माता कहकर पुकारते थे और उसके लिए जलाशयों
के किनारे विशेष मन्दिर का निर्माण करके शीतला की माता कहकर पूजा इत्यादि किया करते
थे। उनका विश्वास था कि यह रोग माता जी के कोपी होने के कारण होता है। इसलिए रोगी
व्यक्ति को दवा इत्यादि नहीं देते थे।
जैसे ही श्री अमृतसर साहिब जी के स्थानीय निवासियों को गुरू जी
के बालक के शीतला रोग के बारे में पता हुआ वे बालक का स्वास्थ्य पता करने आने लग गए।
कुछ रूढ़िवादी लोगों ने आपको परामर्श दिया कि आप बालक को शीतला माता के मन्दिर में
ले जाएँ और वहाँ माता की पूजा करें। गुरू जी ने उन्हें समझाया कि सभी प्रकार की
शक्तियों स्वामी केवल प्रभु है यानि वो दिव्य ज्योति स्वयँ आप ही है। हम केवल और
केवल उसकी ही उपासना करते हैं और आप भी केवल उसी सच्चिदानँद की अराधना करें। गुरू
जी की कथनी-करनी में समानता थी। वह जो जनसाधारण को उपदेश देते थे, पहले अपने जीवन
में दृढ़ता से अपनाते थे। वह कभी भी कठिन परिस्थितियों में विचलित नहीं हुए। वह
जनसाधारण के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे कि प्रभु अपनी लीला द्वारा भक्तजनों
की बार-बार परीक्षा लेता है, परन्तु हमें दृढ़ निश्चय में अडोल रहना चाहिए। आपने पुभु
अराधना करते हुए निम्नलिखित पद्य कहे, जिसके कुछ दिन बाद ही बालक हरिगोबिन्द साहिब
जी पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गएः
गउड़ी महला ५ ॥
नेत्र प्रगासु कीआ गुरदेव ॥
भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ ॥
सीतला ते रखिआ बिहारी ॥
पारब्रह्म प्रभ किरपा धारी ॥१॥
नानक नामु जपै सो जीवै ॥
साधसंगि हरि अमृतु पीवै ॥२॥ अंग 200