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31. सुलही खान

सुलबी खान के मारे जाने के बाद पृथीचँद ने सुलही खान को, जो कि उसका मित्र बन चुका था, उसे अपने घर प्रितीभोज दिया और उसका भव्य स्वागत किया और उसे गुरू जी पर हमला करने के लिए उकसाया। दूसरी तरफ श्री गुरू अरजन देव जी को यह सूचना उनके श्रद्धालू सिक्खों ने तुरन्त पहुँचा दी कि आप पर सुलही खान हमला करने वाला है। अतः आप कोई उपाय समय रहते कर लें। किन्तु गुरू जी शाँतचित व अडोल बने रहे। गुरू जी को गम्भीर मुद्रा में देखकर कुछ सिक्खों ने उनसे आग्रह किया कि हमें श्री अमृतसर साहिब नगर को तुरन्त त्याग देना चाहिए, ताकि शत्रु के हाथ न आ सकें। कुछ सिक्खों ने गुरू जी को सुझाव दिया कि आपको तुरन्त एक प्रतिनिधि सुलही खान के पास भेजकर उसके साथ कुछ ले-देकर एक संधि कर लेनी चाहिए। कुछ ने सुझाव दिया कि हमें शत्रु का सामना करना चाहिए, आदि आदि। भान्ति-भान्ति के विचार गुरू जी ने सुने, किन्तु वे अडोल, शान्तचित प्रभु भजन में व्यस्त हो गए। जब आपने कुछ लोगों को भयभीत देखा तो सभी को कहा कि हमें प्रभु चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हम निर्दोष हैं। वही सर्वशक्तिमान हमारी सुरक्षा करेगा। हेहरां गाँव में पुथीचँद ने अपने द्वारा बनाए गए सरोवर के केन्द्र में भवन बनाने के लिए ईंटों को भटठा लगाया हुआ था। उसमें ईंटें पक रही थी। उसके मन में आया कि मैं अपने अतिथि को गाँव की सैर करवा दूँ और दिखाऊँ की कौन-कौन से विकास कार्य किये जा रहे हैं। अतः वह सुलही खान को ईंटों के आवे के पास ले गया। उस समय सुलही खान सैनिक पोशाक में घोड़े पर सवार था, वह एड़ी लगाकर घोड़े को ईंटों के आवे पर चड़ा ले गया। आवा अन्दर से बहुत गर्म था, जैसे ही घोड़े के पाँव गर्मी से जले वह बिदक गया। जिससे कुछ ईंटें खिसक गई और वे नीचे जा गिरीं। बस इस प्रकार घोड़ा सन्तुलन खो बैठा और वह देखते ही देखते तेज आग में जा गिरा। आग बहुत तेज थी, क्षण भर में ही घोड़े सहित सुलही खान राख का ढेर बन गया। इस प्रकार पृथीचँद का यह प्रयास भी बुरी तरह विफल हो गया। जल्दी ही यह सूचना श्री अमृतसर साहिब जी में श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के पास पहुँच गई कि सुलही खान मारा गया है। उसी क्षण गुरू जी ने अकालपुरूख (परमात्मा) का धन्यवाद किया और संगत को बताया कि निर्दोषों को सदैव एक प्रभु का ही आश्रय होता है। यदि हम प्रभु पर पूर्ण भरोसा रखे तो वह स्वयँ रक्षा करता है। जब वह सर्वशक्तिमान हमारे साथ है तो कोई भी बड़ा शत्रु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। आपने इस घटनाक्रम को प्रभु का धन्यवाद करते हुए इस प्रकार कलमबद्ध कियाः

प्रथमे मता जि पत्री चलावउ ॥
दुतीए मता दुइ मानुख पहुचावउ ॥
त्रितीए मता किछु करउ उपाइआ ॥
मै सभु किछु छोडि प्रभ तुही धिआइआ ॥१॥
महा अनंद अचिंत सहजाइआ ॥
दुसमन दूत मुए सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
सतिगुरि मो कउ दीआ उपदेसु ॥
जीउ पिंडु सभु हरि का देसु ॥
जो किछु करी सु तेरा ताणु ॥
तूं मेरी ओट तूंहै दीबाणु ॥२॥
तुधनो छोडि जाईऐ प्रभ कैं धरि ॥
आन न बीआ तेरी समसरि ॥
तेरे सेवक कउ किस की काणि ॥
साकतु भूला फिरै बेबाणि ॥३॥
तेरी वडिआई कही न जाइ ॥
जह कह राखि लैहि गलि लाइ ॥
नानक दास तेरी सरणाई ॥
प्रभि राखी पैज वजी वाधाई ॥४॥५॥ राग आसा अंग 371

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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