28. बालक हरिगोबिन्द साहिब जी का
प्रकाश (जन्म)
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी बहुत उदार तथा विशाल दिल के स्वामी थे। वह सदैव समस्त
मानवता के प्रति स्नेह की भावना से ओत-प्रोत रहते थे। अतः उनके दिल में कभी भी किसी
के प्रति मनमुटाव नहीं रहा। इसलिए उन्होंने अपने बड़े भाईयों को उनकी माँग से भी कहीं
अधिक दे दिया था और उनको सन्तुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया था। किन्तु बड़े
भैया-भाभी उनकी मान्यता और प्रसिद्धि के कारण ईर्ष्या करते रहते थे। तब भी श्री गुरू
अरजन देव साहिब जी सँयुक्त परिवार के रूप में ही रहना हितकर समझते थे। सँयुक्त
परिवार में केवल बालक मेहरवान ही सभी की आँखों का तारा था अतः गुरू जी उसे बहुत
प्यार करते थे और वह भी अपने चाचा के बिना नहीं रह पाता था प्यार दोनों और से था।
ऐसे ही समय व्यतीत हो रहा था कि एक दिन अफगानिस्तान की संगत गुरू जी के दर्शनों को
आई उन लोगों ने कुछ बहुमूल्य वस्त्र तथा आभूषण परिजनों के लिए भेंट किए। सेवकों ने
वह गुरू जी की पत्नी माता गँगा जी को सौंप दिए। इनमें से कुछ गर्म वस्त्र पश्मीने
के भी थे जिन्हें देखकर दासियाँ आश्चर्यचकित रह गईं। एक दासी ने इन कीमती वस्त्रों
का विवरण उनकी जेठानी श्रीमती कर्मोंदेवी को दे दिया। उसे हीनभावना सताने लगी और वह
सोचने लगी काश मेरे पति को गुरूगद्दी प्राप्त होती तो यह उपहार आज उसे प्राप्त होते।
वह इसी उलझन में थी कि उसी समय उसके पति पृथीचँद घर लौट आए। उन्होंने पत्नी को उदास देखा तो प्रश्न कियाः कि क्या बात है,
बड़ा मुँह लटकाए बैठी हो ? इस पर कर्मो देवी ने उत्तर दियाः हमारे भाग्य कहाँ जो मैं
भी सुख देखूँ ? व्यँग्य सुनकर पृथीचँद बोलाः आखिर माजरा क्या है ? उत्तर में कर्मो
ने रहस्य उदघाटन करते हुए कटाक्ष किया और कहाः काश यदि तुम गुरू पदवी को प्राप्त कर
लेते तो आज समस्त कीमती उपहार उसे प्राप्त होते। इस पर पृथीचँद ने साँत्वना देते
हुए कहाः तू चिन्ता मत कर मैं गुरू न बन सका तो कोई बात नहीं इस बार तेरा बेटा
मेहरबान गुरू बनेगा और यह सभी सामाग्री लौटकर तेरे पास आ जाएगी। तभी कर्मो ने पूछाः
वह कैसे ? उत्तर में पृथीचँद ने बतायाः अरजन के सन्तान तो है नही वह तेरे लड़के को
ही अपना बेटा मानता है, वैसे भी उनके विवाह को लगभग 15 वर्ष हो चुके हैं अव सन्तान
होने की आशा भी नहीं है क्योंकि तेरी देवरानी बाँझ है। इस बात को सुनकर कर्मो
सन्तुष्ट हो गई किन्तु बाँझ वाली बात एक दासी ने सुन ली थी। उसने माता गँगा जी को
जाकर यह बात कह दीः कि आपके जेठ जी आपको बाँझ कह रहे हैं। दासी के मुख से यह
व्यँग्य बाण सुनकर माता छटपटा उठीं और व्याकुल होकर गुरू जी के घर लौटने की
प्रतीक्षा करने लगीं। जैसे जी गुरू जी दोपहर के भोजन के लिए घर पहुँचे तो श्रीमती
गँगा जी ने उसने बहुत विनम्र भाव से निवेदन किया। और कहाः कि आप श्री गुरू नानक देव
जी के उत्तराधिकारी हैं, अतः समर्थ हैं। आप सभी याचिकों की झोलियाँ भर देते हैं। कभी
किसी को निराश नहीं लौटाते। आज मैं भी आपके पास एक भिक्षा माँग रही हूँ कि एक पुत्र
का दान दीजिए। मेरी सूनी गोद हरी-भरी होनी चाहिए।
गुरू जी ने परिस्थितियों को ध्यान रख के गँगा जी को धीरज दियाः
आपकी याचना उचित है, प्रभु कृपा से वह भी पूर्ण होगी। किन्तु आपको उसके लिए कुछ
उद्यम (परिश्रम, उपाय) करना होगा। आप जानती हैं कि इस समय हमारे बीच श्री गुरू नानक
देव साहिब जी के परम सेवक बाबा बुडढा जी मौजूद हैं, आप उनसे पुत्र प्राप्ति का
वरदान माँगें।माता गँगा जी को युक्ति मिल गई थी वह एक दिन खूब स्वादिष्ट भोजन तैयार
करके, रथ पर सवार होकर अपनी सखियों सहित मँगलमय गीत गाते हुए बाबा बुडढा जी के
निवास स्थान झवाल गाँव में पहुँची। उन दिनों इस स्थान को बाबा बुडढा की बीड़ कहा जाता
था। जब यह रथ खेतों के निकट से गुजरा तो उसमें स्त्रियों के गीत गाने का मधुर स्वर
बाबा जी को सुनाई दिया, वह सर्तक् हुए। उस समय वह खेतों का कार्य समाप्त कर
मध्यान्तर के भोजन की प्रतीक्षा में एक वृक्ष के नीचे विश्राम मुद्रा में बैठे थे।
उन्होंने अपने सेवक को भेजाः कि देखकर आओ कौन है ? सेवक रथ के पास गया और जानकारी प्राप्त करके बाबा जी के समक्ष
पहुँचा। और उसने बतायाः कि गुरू के महल (पत्नी) आपके दर्शनों को आए हैं। बाबा जी ने
कहा कि गुरू की पत्नि को कहाँ भागम भाग (भाजड़) पड़ गई। उस सिक्ख ने कहाः कि गुरू जी
की पत्नि आपसे मिलने आ रही हैं और आप कड़वे वचन बोल रहे हो। बाबा जी ने बोलाः हम जाने
या गुरू जाने, ये हमारे और गुरू जी का मामला है, तु क्यों सूअर की तरह घूर-घूर कर
रहा है। माता गँगा जी ने सब सुन लिया था, वो वापिस चले गए।गुरू जी ने अपनी पत्नी
गँगा जी को समझायाः आप वहाँ पर गुरू की पत्नी की हैसियत से गई थीं आप एक याचिका की
तरह जाएँ आपकी मनोकामना पूर्ण होगी।कुछ दिन पश्चात माता गँगा जी ने अमृत समय में
उठकर अपने हाथों से आटा पीसकर उसकी बेसन वाली मीसी रोटियाँ बनाई और दही मथ पर एक
सुराई में भर लिया। और सिर पर श्री बीड़ साहिब जी को उठाकर दस कोस पैदल यात्रा करती
हुई श्री अमृतसर साहिब जी से झबाल गाँव दोपहर तक पहुँच गई। उस समय बाबा बुडढा जी
खेतों का कार्य समाप्त करके भोजन की प्रतीक्षा में बैठे थे। उस समय उनको बहुत भूख
सता रही थी, किन्तु अभी आश्रम से भोजन नहीं पहुँचा था।
अकस्मात माता गँगा जी ने बाबा बुडढा जी को भोजन कराया। मन
बाँछित भोजन देखकर बाबा जी सन्तुष्ट हो गए। भोजन के प्रारम्भ में ही माता गँगा जी
ने उन्हें एक प्याज दिया, जिसे बाबा ने उसी समय मुक्का मारकर पिचका दिया और माता जी
को आशीष देते हुए कहा कि हे माता तुम्हारे यहाँ एक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा, जो
दुष्टों का ठीक वैसे ही नाश करेगा, जिस प्रकार हमने प्याज की गाँठ का नाश कर दिया
है। माता गँगा जी यह आशीष लेकर प्रसन्तापूर्वक लौट आई। कुछ दिनों मे उनका पाँव भारी
हो गया। जब गँगा जी के गर्भवती होने की सूचना जेठानी कर्मो को और जेठ पृथीचँद को
मिली तो वह परेशान हो उठे, उनका दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। उनके सपनों का
महल रेत की भाँति बिखरने लगा था। उनकी यह आशा थी कि उनका ही पुत्र मेहरबान अगला गुरू
बनेगा, समाप्त होने लगी थी। अब यह दम्पति औछे हथकण्डों पर उतर आए और गृह कलेश करने
लगे। सँयुक्त परिवार में गृह कलेश एक गम्भीर समस्या उत्पन्न कर देता है। अतः सासू
माँ माता भानी जी ने एक कठोर निर्णय लिया और कहा कि तुम दोनों अपनी-अपनी गृहस्थी
अलग बसा लो। इस पर श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने माता जी की आज्ञा का पालन करते
हुए कुछ दिनों के लिए श्री अमृतसर साहिब जी त्यागने का निश्चय किया और वह अपने सेवकों
के निमँत्रण पर श्री अमृतसर साहिब जी के पश्चिम मे तीन कोस दूर वडाली गाँव में
अस्थाई रूप से रहने लगे। यही माता गँगा जी ने 19 जून, सन 1595 तदनुसार आषाढ़ 1652 संवत को
एक स्वस्थ व सुन्दर बालक को जन्म दिया। श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने अपने बेटे
का नाम श्री हरिगोबिन्द साहिब रखा। ग्राम वडाली में श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने
एक विशाल कुँआ बनवाया, जिसमें छैः (6) रेहट एक ही समय में कार्यरत रह सकते थे। इस
स्थान पर गुरूद्वारा श्री छेहरेटा साहिब जी सुशोभित है।