23. प्रथम कुष्ट आश्रम
एक दिन श्री गुरू अरजन देव जी प्रातःकाल में मधुर स्वर में गुरूबाणी उच्चारण करते
हुए सैर कर रहे थे, तभी उनके कानों में किसी की करूणामय आवाज सुनाई दी, वह व्यक्ति
दर्द से चिल्ला रहा था। गुरू जी ने एक सेवक को पता लगाने के लिए भेजा। सेवक ने बताया
कि एक वृद्ध महिला कुष्ट रोग से पीड़ित है, उसके लड़कों ने उसका बहुत उपचार किया है
किन्तु यह रोग असाध्य है। अतः दुर्गन्ध व सँक्रमण (बदबू और छूत) के कारण लोग उसे
गाँव से दूर व्यास नदी के तट पर छोड़ देना चाहते हैं। यह करूणामय वृतान्त सुनकर गुरू
जी का दिल दया से भर गया। उन्होंने तुरन्त आदेश दिया कि इस रोगी को सुबह हमारे पास
लेकर आएँ। ऐसा ही किया गया। गुरू जी ने कुष्ट रोग से प्रभावित रोगी हेतु एक आश्रम
निर्माण का आदेश दिया और वहीं आप उस रोगी का स्वयँ उपचार करने लगे। आपने कुछ विशेष
रसायन पानी में मिलाकर उन्हें उबालकर, गुनगुने पानी से रोगी के घावों को धो डाला और
उन घावों पर मरहम लगाकर पटटी कर दी, जिससे रोगी से बदबू हट गई और उसे दर्द से राहत
मिली। इसके साथ की आपने कुछ आयुर्वेदिक औषधियाँ रोगी को सेवन करने के लिए दी,
परिणामस्वरूप कुष्ट रोगी कुछ ही दिनों में पूर्ण स्वास्थ्य को प्राप्त हुआ और वह
गुरू जी का धन्यवाद करने लगा। जैसे ही इस घटना का लोगों को मालूम हुआ, दूर-दूर से
कुष्ट रोगी तरनतारन पहुँचने लगे। गुरू जी ने उनके लिए विशेष रूप से कुष्ट आश्रम बनवा
दिया, ताकि समाज में इन लोगों का बहिष्कार करके दुत्कारा न जाए और सभी प्रकार की
सुख-सुविधाएँ कुष्ट रोगियों के लिए उपलब्ध करवा दीं।