22. श्री गुरू अरजन देव साहिब जी की
प्रचार यात्राएँ
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी श्री हरिमन्दिर साहिब जी के निर्माण कार्यों के कारण
व्यस्त थे। उन्हें मसँदों और संगत द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में प्रचार दौरों के
लिए आमँत्रण नित्य प्राप्त हो रहे थे। श्री हरिमन्दिर साहिब जी के निर्माण का कार्य
पूर्ण हुआ, तब गुरू जी ने प्रचार यात्राओं पर जाने का फैसला किया। आप सर्वप्रथम
जंयाला कस्बें में पहुँचे। वहाँ पर आपका भाई हिंदाल जी ने हार्दिक स्वागत किया।
हिंदाल जी इन दिनों वृद्धावस्था में थे। आप जी ने बहुत लम्बे समय तक श्री गुरू
अमरदास साहिब जी के पास श्री गोइँदवाल साहिब जी तथा उसके पश्चात श्री गुरू रामदास
साहिब जी के पास श्री अमृतसर साहिब जी में लँगर तैयार करने की सेवा की थी। आपको श्री
गुरू रामदास साहिब जी ने आशीष देकर सम्मानित किया था और उसके पश्चात मसँद की उपाधि
देकर प्रचार हेतु उन्हीं के क्षेत्र में भेज दिया था। गुरू देव जी ने उनकी प्रचार
सेवाओं पर प्रसन्नता व्यक्त की और उनको केवल एक पारब्रहम परमेश्वर की उपासना पर बल
देने को कहा और समझाया कि आपका एकमात्र लक्ष्य लोगों को कब्रिस्तानों और मुर्ति पूजा
से हटाना है ताकि समाज में एकता आ जाए। आप कुछ ही दिनों में प्रचार करते हुए खडुर
नगर पहुँचे। वहाँ गुरू साहिब जी की अगवानी करने श्री गुरू अंगद साहिब जी के पुत्र
दातु जी व दासु जी आए और वे आपको अपने यहाँ ले गए। गुरू जी का उन्होंने भव्य स्वागत
किया। श्री दातु जी ने विनम्र भाव से आपसे विनती की कि उन्हें क्षमादान दिया जाए
क्योंकि उन्होंने बहकावे में आकर तीसरे गुरू, श्री गुरू अमरदास साहिब जी को लात मार
दी थी और उनके डेरे का सामान बाँधकर वापिस खडूर साहिब लौटते समय रास्ते में डाकूओं
द्वारा सामान छीन लेने पर, छीना झपटी में एक लटठ डाकूओं ने दातू जी को दे मारा था,
जिसकी पीड़ा उस लात पर अभी भी रूकी हुई है। गुरू जी ने उनकी पश्चाताप भरी विनती
स्वीकार करते हुए, उनकी लात की मालिश अपने हाथों से कर दी। जिससे उनके मन का बोझ
हल्का हो गया और धीरे-धीरे पीड़ा हट गई। श्री गुरू अरजन देव साहिब जी दातू व दासू से
विदा लेकर श्री गोइँदवाल साहिब जी पहुँचे। वहाँ पर आपका ननिहाल था और आपका बाल्यकाल
यहीं मामा मोहन जी तथा मोहरी जी की छत्रछाया में व्यतीत हुआ था। वे आपसे बहुत स्नेह
करते थे। अतः आप जी कुछ दिन उनके प्यार में बँधे वहीं ठहरे रहे। तदपश्चात आप आगे
बढ़ते हुए गाँव सरहाली पहुँचे। उस समय मध्यान्तर का समय था। भोजन की व्यवस्था के लिए
स्थानीय निवासियों ने ताजे उबले हुए चावलों पर घी-शक्कर डालकर आपके समक्ष प्रस्तुत
किए। आपने प्रेम से प्रस्तुत भोजन की बहुत प्रशँसा की, जिस कारण उस ग्राम का नाम
चोला साहिब पड़ गया। आप जी ने श्रद्धालूओं को केवल एक प्रभु निराकार पर आस्था रखने
पर बल दिया और शबद उच्चारण कियाः
हरि धनि संचन हरि नाम भोजन एह नानक कीनो चोला ।।
गुरू जी आगे बढ़ते हुए खानपुर क्षेत्र में पहुँचे। यहाँ की अधिकाँश जनता सखी सरवरों
की अनुयायी थी। उन्होंने गुरू जी का कड़ा विरोध किया। कुछ समृद्ध किसानों ने गुरू जी
को अपमान भरे शब्द भी कहे, किन्तु गुरू जी शान्तचित व अडोल रहे। इस पर सिक्खों ने
कहा कि गुरू जी ! हमें लौट जाना चाहिए, जहाँ सँस्कार न मिलें, वहाँ उनके भले के लिए
जाने के लिए आपको क्या पडी है ? उत्तर में गुरू जी ने सभी को साँत्वना दी और कहा कि
वास्तव में हमारा कार्यक्षेत्र यही है, यहीं सबसे अधिक गुरमति के प्रचार प्रसार की
आवश्यकता है। आपका निर्णय सुनकर सभी स्तब्ध रह गए। इन कठिन परिस्थितियों में एक
स्थानीय खेतीहर मजदूर हेमा आपके सम्मुख उपस्थित हुआ और प्रार्थना करने लगा कि हे
गुरूदेव ! कृप्या आप मेरे यहाँ विश्राम के लिए चलें। गुरू जी ने उसका अनुरोध
स्वीकार किया और उसकी झोंपड़ी में चले गए। उस श्रद्धालू सिक्ख ने गुरू जी और संगत की
यथाशक्ति खूब सेवा की। गुरू जी उस गरीब हेमा जी की सेवा देखकर प्रसन्न हो उठे और
स्नेहवश बाणघ उच्चारण करने लगेः
भली सुहावी छापरी जा महि गुन गाए ।।
कित ही कामि न धउल हरि जित हरि विसराए ।। रहाउ ।।
अनद गरीबी साध संगि जित प्रभ चिति आए ।।
जलि जाउ एहु बडपना माइआ लपटाए ।।
गाँव खानुपर का पड़ौसी खारा गाँव था। वह गाँव प्राकृतिक सौन्दर्य
से भरपूर दृश्य प्रस्तुत करता देखकर गुरू जी यहीं रूक गए। आपको इस रमणीक स्थल ने ऐसा
आकर्षित किया कि आपने यहाँ एक विशाल प्रचार केन्द्र बनाने की योजना बना डाली। मुख्य
कारण, यहाँ के स्थानीय किसानों को कब्रों की पूजा से हटाकर दिव्य ज्योति यानि
परमात्मा से जोड़ना था। आप अनुभव कर रहे थे कि गुरमति के प्रचार के लिए स्थानीय लोगों
के निकट जाना अति आवश्यक है। आपने एक तालाब को केन्द्र मानकर आसपास की भूमि किसानों
से मूल्य देकर खरीद ली और तालाब को एक विशाल पक्के सरोवर का स्वरूप देना प्रारम्भ
कर दिया। साथ ही इस सरोवर के एक किनारे एक भव्य भवन का निर्माण भी करवाने लगे, जिसमें
स्थानीय लोगों को एकत्रित करके प्रतिदिन सतसंग किया जा सके। निर्माण के कार्य में
श्रमदान करने के लिए दूर-दराज से संगत आने लगी। संगत की भारी भीड़ को सभी प्रकार की
सूविधाएँ प्रदान करने के लिए एक छोटे से नगर की आधारशिला भी रखी जिसका नाम श्री
तरनतारन साहिब जी रखा। देखते ही देखते गुरू जी के आदेश पर उनके अनुयाइयों ने वर्ष
का कार्य महीनों में ही समाप्त कर दिया। इस बीच स्थानीय जाट किसानों ने भी गुरू जी
महिमा आखों से देखी, वे भी गुरू जी से घीरे-धीरे निकटता उत्पन्न करने लगे। गुरू जी
जब भी दरबार सजाते, उसमें केवल एक हरि नाम की ही चर्चा करते और वह अपने प्रवचनों
में प्रायः एक बात पर बल देतेः हे सत्य प्ररूषों ! हमें अपने श्वासों की पूँजी
व्यर्थ नही खोनी चाहिए, यही वह समय है, जिसके सदुपयोग से हम यह मानव जन्म सफल कर
सकते हैः
भई परापति मानुख देहुरीआ ।।
गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ।।
अवरि काज तैरे कितै न काम ।।
मिलु साधु संगति भजु केवल नाम ।।
सरंजामि लागु भवजल तरन कै ।।
जनमु बिरथा जात रंगि माइआ कै ।। रहाउ ।।
(राग आसा महला 5, अंग 378)
गुरू जी की युक्ति सफल सिद्ध हुई। बहुत से बड़े किसान जो कब्रों की पूजा करते थे, वह
धीरे-धीरे गुरू जी के प्रवचनों के माध्यम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सभी
प्रकार के व्यर्थ कर्म त्याग दिए और केवल हरि नाम का यश करने लगे।