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18. भाई कटारू जी

श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में अफगानिस्तान से सिक्खों का एक काफिला दर्शनों के लिए उपस्थित हुआ। इस काफिले के एक सिक्ख भाई कटारू जी ने गुरू चरणों में प्रार्थना की कि हे गुरूदेव ! मुझे जीवन युक्ति बताएँ, जिससे पुर्नजन्म का चक्र समाप्त हो जाये। उत्तर में गुरू जी ने कहा, शुभ कर्म ही आवागमन के चक्र से छुटकारा दिलवा सकता है। अतः धर्म की कीरत (छलकपट रहित परिश्रम) करना चाहिए यानि जीविका अर्जित करते समय धोखा फरेब नहीं करना चाहिए। भाई कटारू जी ने गुरू उपदेश को गाँठ में बाँध लिया और इस पर दृढ़ निश्चय से जीवनयापन की शपथ ली। वह अपने देश लौटकर अपने कार्यक्षेत्र में बहुत ईमानदार हो गए। उनकी नियुक्ति सरकारी भण्डार में थी, जहाँ जनता को उचित मूल्य पर रसद वितरण की जाती थी। उनके सहकर्मी उनकी इस ईमानदारी पर असन्तुष्ट हो गए क्योंकि वह न तो बेइमानी करते और न किसी को करने देते। इसलिए वह सहकर्मियों की आँखों में चुभने लगे। एक दिन सहकर्मियों ने मिलकर भाई कटारू जी के विरूद्ध षडयँत्र रचा। उनके तौल वाले बाँट इस अंदाज में बदल दिए गए कि उनको इस बात का कोई अन्देशा नही हुआ।

भाई जी के बाँट पूरे वजन के थे, किन्तु अब उसमें 25 ग्राम की कमी हो गई थी। किन्तु भाई जी इस विषय में अनजान थे। षडयँत्रकारियों ने किसी ग्राहक से स्थानीय हाकिम को शिकायत की कि आपका भण्डारी तौल में हेराफेरी करता है। उसने बाँटों में कटौती की हुई है। बस फिर क्या था, अधिकारी ने भाई कटारू जी को उनके बाँटों सहित कार्यालय में बुला लिया और उनके बाँट दूसरे बाँटों की तुलना के लिए बराबर तराजू पर पलट-पलटकर तौल कर देखे गए किन्तु वह पूरे निकले। षडयँत्रकारियों की चाल निष्फल हो गई और उन्हें झूठी शिकायत पर बहुत फटकार मिली। हुआ यूं, जैसे ही भाई कटारू जी को अहसास हुआ कि मैं फँसने जा रहा हूँ। उन्होंने गुरू चरणों में प्रार्थना कर दी कि वह सत्य पर आधारित जीवन व्याप्त कर रहे हैं। यदि मैं इस समय षडयँत्रकारियों का शिकार हो जाता हूँ तो सभी ने मुझे नहीं आपको बुरा भला कहना है क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ और लोगों ने कहना है, बड़ा गुरू वाला बनता फिरता है, करतूत तो देखो, बेइमानी ही इसका लक्ष्य है। मुझसे आपकी निन्दा सहन नहीं होगी। कृप्या आप पूर्ण पुरूष साक्षात प्रभु में अभेद हैं, अतः आप अपने बिरद की लाज रखें। दूसरी तरफ उस समय गुरू जी का दरबार सजा हुआ था, भक्तगण की सच्चे दिल की पुकार समर्थ गुरू तक पहुँची। गुरू जी सुचेत हुए और उन्होंने वह पाँच पैसे अपनी हथेली पर रखे जो कि कुछ क्षण पहले ही एक सिक्ख उनको अपनी धर्म की कीरत में से दर्शन भेंट रूप में दे गया था। कुछ क्षण पश्चात वहीं पाँच मोटे ताँबें के सिक्के दूसरी हथेली पर रखे। इस प्रकार उन्होंने दो तीन बार उलट-पलटकर पैसे हथेलियों पर तौले जैसे किसी तराजू का पसकू देख रहे हों। साधरणतः गुरू जी धन से उपराम ही रहते थे किन्तु आज संगत कुछ और ही देख रही थी। उस समय साहस बटोरकर एक सिक्ख ने पूछ ही लिया कि आज आप एक विशेष शिष्य की भेंट से इतना लगाव क्यों कर रहे हैं जबकि आप माया को कभी स्पर्श भी नहीं करते। उत्तर में गुरू जी ने कहा कि समय आएगा तब इस बात का रहस्य प्रकट करने वाला स्वयँ ही यहाँ आएगा। लगभग एक महीने के पश्चात भाई कटारू जी छुटटी लेकर काबुल से श्री अमृतसर साहिब जी के दर्शनों को आए और वह गुरू चरणों में नतमस्तक होकर दण्डवत प्रणाम करने लगे। उन्होंने गुरूदेव का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि आपने मुझ तुच्छ प्राणी की लाज हाकिम के दरबार में समस्त विरोधियों के बीच में रख ली। मैं उसके लिए आपका सदैव ऋणी रहूँगा। उत्तर में गुरू जी ने कहा कि वास्तव में आपकी प्रार्थना और श्रद्धा रँग लाई थी, हमारा तो बिरद हैः भक्तों की कठिन समय में सहायता करना।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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