14. व्यापारी गँगाराम जी
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी, रामदास सरोवर साहिब के केन्द्र में श्री हरिमन्दिर
साहिब जी की इमारत का निर्माण करवा रहे थे, उन्हीं दिनों देश में वर्षा न होने के
कारण कई क्षेत्र खूखाग्रस्त थे। जिससे जनसाधारण के लिए अनाज का अभाव उनकी कठिनाईयों
का कारण बना हुआ था। ऐसे में जिला भटिण्डा नगर से एक व्यापारी अपना बाजरे का
सुरक्षित भण्डार ऊँटों पर लादकर श्री अमृतसर साहिब जी की और चला आया। इस विचार से
कि वहाँ नवनिर्माण का कार्य चल रहा है अतः यहाँ अनाज के मुझे अच्छे दाम मिल जाएँगे
क्योंकि सूखे के कारण गेहूँ इत्यादि अनाज का अभाव होगा। व्यापारी का अनुमान ठीक था।
गुरूघर में प्रतिदिन लँगर में असँख्य लोग भोजन ग्रहण करते थे। कारसेवा का कार्य जोरों
पर था किन्तु अनाज आवश्यकता अनुसार प्राप्त नहीं हो रहा था। गुरू जी ने आवश्यकता को
ध्यान में रखते हुए उसके साथ एक अनुबन्ध किया। अनाज का मूल्य कुछ दिनों पश्चात
वैसाखी पर अदा किया जायेगा। दोनों पक्षों में सहमति हो गई और घीरे-घीरे प्रतिदिन की
आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए समस्त अनाज गँगाराम से खरीद लिया गया। गँगाराम का
लक्ष्य पूरा हुआ। उसने अपने कर्मचारी और ऊँट वापिस भेज दिए ओर स्वयँ दाम वसूली के
विचार से वहीं रूक गया। गँगाराम व्यापारी ने संगत के उत्साह को देखा। उसके दिल में
भी इच्छा हुई कि वह भी संगत में सम्मिलित होकर कारसेवा अथवा श्रम दान में भाग ले।
वह अवकाश के समय गुरू दरबार में उपस्थित होकर, कीर्तन कथा और गुरू के प्रवचन सुनता।
घीरे-धीरे गुरू के प्रवचनों का उसके मन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि वह गुरू का शिष्य बन
गया। उसके दिल में हुए इस परिवर्तन ने उसे निष्काम सेवक के स्प में विकसित कर दिया।
वैसाखी पर्व पर नई फसल के आने पर अनाज का अभाव समाप्त हो गया और दूर-दराज से संगत
के आगमन से धन की कमी समाप्त हो गई। गुरूदेव ने एक दिन गँगाराम व्यापारी को कहा कि
वह अपने बाजरे के दाम, कोष से प्राप्त कर ले किन्तु गँगाराम ने ऐसा नहीं किया, वह
वहीं पर सेवारत रहने लगा। कुछ दिन पश्चात गुरू जी ने उसे फिर बुलाया और कहा, आप
व्यापारी हैं। अतः कोषाघ्यक्ष से अपना हिसाब ले लें। इस पर गँगाराम जी कहने लगे कि
मैं कभी व्यापारी था किन्तु अब नहीं रहा। वास्तव में मैंने पहले कच्चा धन संचित किया
है जो कभी स्थिर नहीं रहता, किन्तु मैं अब पक्का धन संचित करना चाहता हूँ जो
लोक-परलोक में मेरा आश्रय बने। गुरू जी ने उसे फिर कहा, व्यापार अपने स्थान पर है
क्योंकि वह आपकी जीविका है और गुरू भक्ति अपने स्थान पर है क्योंकि यह आध्यात्मिक
दुनियाँ है। अतः आप अपने अनाज के दाम ले लें। किन्तु गँगाराम जी ने उत्तर दिया कि
मेरे पास धन का अभाव नहीं है। मेरी अनाज के रूप में भी सेवा स्वीकार की जाए। जिससे
मुझे परम आनन्द मिलेगा। गुरू जी ने उसके दिल में आए परिवर्तन को अनुभव किया और उसकी
निष्काम सेवा के लिए स्वीकृति प्रदान की और उसे आशीष दी और कहा कि प्रभु ! आपकी मँशा
पूरी करेगा।