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13. श्री हरिमन्दिर साहिब जी का निर्माण

श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने गुरूगद्दी प्राप्ति के पश्चात उनके अपने भाई पृथीचँद द्वारा छलकपट के बल पर कृत्रिम आर्थिक नाकेबंदी से उत्पन्न कठिनाईयों को झेलने पर भी विकास के कार्यों को ज्यों का त्यों जारी रखा। जैसे ही उनकी आर्थिक परिस्थिति सुधर गई तो उन्होंने नवनिर्माण के कार्य पुनः प्रारम्भ करवा दिए। इस बीच नगर का विकास जो पिछड़ गया था, उसे तीव्र गति प्रदान की और पिता श्री गुरू रामदास साहिब जी द्वारा तैयार किए जा रहे श्री रामदास सरोवर साहिब जी को पक्का करना प्रारम्भ कर दिया। जब सरोवर साहिब का काम चल रहा था तो कुछ मँदबुद्धि वाले मसँदों ने चिनाई में चूना इत्यादि के स्थान पर गारे आदि का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इस बात की सूचना पाते ही गुरू जी उन लोगों पर बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहाः ये लोग गुरूघर की महिमा नहीं जानते। श्री गुरू नानक देव साहिब जी के घर में किसी वस्तु की कमी नहीं आती केवल विश्वास और प्रभु पर दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिए। सरोवर के काम को समाप्त करने के पश्चात कुछ वर्षों बाद आपने निर्धारित योजना के अर्न्तगत एक भव्य भवन का मानचित्र स्वयँ अपने हाथों से तैयार किया और इस भवन को रामदास सरोवर के मध्य में निर्माण करने की घोषणा की। इस कार्य का शिलान्यास करने के लिए आप जी ने अपने पुराने मित्र लाहौर निवासी चिश्ती सम्प्रदाय के आगू साँईं मियाँ मीर जी को आमँत्रित किया।

सन 1588 की 3 जनवरी को सूफी फकीर साँईं मियाँ मीर जी ने सरोवर के मध्य भव्य भवन की आधारशिला रखी, किन्तु उनसे पहली ईंट कुछ तिरछी रखी गई। उसी समय राजमिस्त्री ने उसे उखाड़कर सीधा कर दिया। यह देखकर गुरू जी क्षुब्ध हुए और उन्होंने कहा कि हमने भवन की नींव अटल रखने के लिए विशेष रूप से महापुरूषों को आमन्त्रित किया था और तुमने उनकी रखी हुई ईंट उखाड़कर पलट दी है। यह काम अच्छा नहीं हुआ। अब इस भवन के ध्वस्त होने का भय बना रहेगा और इसका कभी न कभी पुनः निर्माण अवश्य ही होगा। कालान्तर में यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। जब भव्य भवन निर्माण का शुभारम्भ गुरू जी ने साँईं मियाँ मीर जी से करवा दिया तो संगत कारसेवा के लिए सक्रिय हुई। दूरदराज से श्रद्धालू अपना-अपना योगदान देने के लिए उमड़ पड़े। तभी गुरूदेव जी ने इस नवनिर्माण हेतु भवन का नाम श्री हरिमन्दिर साहिब जी रखा और इसका कार्य सँचालन बाबा बुडढा जी की देखरेख में होने लगा। गुरू जी ने श्ररी हरिमन्दिर साहिब जी के लिए चार प्रवेश द्वारों का निर्देश दिया।

जिसका सीधा सँकेत था कि यह पवित्र स्थान चारों वर्गों के लोगों के लिए सदैव खुला है और समस्त मानवमात्र प्रत्येक दिशा से बिना किसी भेदभाव से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रवेश कर सकता है। कुछ प्रमुख श्रद्धालू सिक्खों ने नक्शे और भवन की स्थिति पर सँशय व्यक्त करते हुए आप जी से प्रश्न किया कि सभी प्रकार के विशेष भव्य भवन बहुत ऊँचे स्थान पर निर्मित किए जाते हैं और वह नगर के सबसे ऊँचे भवनों में से होते हैं किन्तु आपने श्री हरिमन्दिर साहिब जी को बहुत नीचे स्थान पर बनाया है और भवन की ऊँचाई भी न के बराबर है। इसका क्या कारण है ? उत्तर में गुरू जी ने कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि मन्दिरों की सँख्या अनन्त है किन्तु हरिमन्दिर कोई नहीं, हरि के दर्शन तो तभी होते हैं जब मन नम्रता से झुक जाए। अतः भवन के निर्माण में विशेष ध्यान रखा गया है कि सभी जिज्ञासु श्रद्धा भावना में नम्र होकर झुककर नीचे उतरे, जिससे अभिमान जाता रहे क्योंकि अभिमान प्रभु मिलन में बाधक है। अतः भवन की ऊँचाई भी कम रखी है ताकि नम्रता का प्रतीक बन सके। इसके अतिरिक्त भवन को सरोवर के जल की सतह पर रखा गया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कमल का फूल जल के सदैव ऊपर रहता है, कभी डूबता नहीं। इसका सीधा अर्थ है कि श्रद्धालुओं को गृहस्थ में रहते हुए माया से निर्लेप रहना चाहिए। जैसे कमल पानी में रहते हुए उससे निर्लेप रहता है।

जब श्री हरिमन्दिर साहिब जी की परिक्रमा से जोड़ने के लिए दर्शनी डियोड़ी तथा पुल का निर्माण किया गया तो गुरू जी ने रहस्य को स्पष्ट किया कि यह पुल एकता का प्रतीक है। सभी सम्प्रदायों के लोग धर्म-निरपेक्षता के बल पर भवसागर को पार करके हरि में विलय हो जाएँगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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