12. मूर्ति उपासक ब्राहम्ण
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी एक दिन रामदास सरोवर जी की परिक्रमा कर रहे थे तो उनकी
दृष्टि एक ब्राहम्ण पर पड़ी जो अपने समक्ष एक मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा अर्चना
में व्यस्त था। उसने सभी प्रकार की सामाग्री का प्रदर्शन इस प्रकार किया हुआ था कि
बरबस वहाँ से गुजरने वाले उसकी और आकर्षित हो रहे थे। गुरू जी ने देखा कि ब्राहम्ण
उस समय हाथ जोड़कर व आँखें बन्द करके मुर्ति के सम्मुख कुछ बुद-बुदा रहा था। एक नजर
देखकर गुरू जी आगे बढ़ गए। जैसे जी गुरू जी कुछ कदम आगे पहुँचे, ब्राहम्ण ने आँखें
खोली और ऊँचे स्वर में कुछ गिले-शिकवे भरे अन्दाज में कहना शुरू कियाः स्वयँ को गुरू
कहलवाते हैं, और भगवान की प्रतिभा का अभिनन्दन भी नहीं करते। यह शब्द सुनकर गुरू जी
रूक गए और उन्होंने ब्राहम्ण को सम्बोधन करके कहाः आपका मन कहीं और है, किन्तु केवल
आँखें बन्द करके भक्ति करने का नाटक कर रहे हो जो कि बिलकुल निष्फल है। भक्ति तो मन
की होती है न की शरीर की। यदि वास्तव में दिल से प्रभु भक्ति में लीन हो तो हमारे
आने का तुम्हें बोध होना ही नहीं चाहिए था ? इस व्यँग्य पर ब्राहम्ण बहुत छटपटाया
किन्तु गुरूदेव के कथन में सत्य था। इस पर उसने कहा कि माना मैं भक्ति करने का
अभिनय कर रहा था किन्तु आपने तो भगवान की मूर्ति को ना ही नमस्कार किया और ना ही
सम्मान ?
यह सुनते ही उन सभी सिक्खों की बरबस हंसी छूट गई, जो अब ब्राहम्ण के उलझने के कारण
गुरूदेव जी के संग वहीं खड़े हो गए थे। उत्तर में गुरूदेव ने बड़े शान्त भाव से कहा
कि हे ब्राहम्ण ! हम तो उस दिव्य ज्योति को कण-कण में समाया हुआ अनुभव कर रहे हैं,
हमारा हर क्षण उस परम पिता परमेश्वर को प्रणाम में व्यतीत होता है, बस अन्तर इतना
है कि हम धर्मी होने का प्रदर्शन नहीं करते। हमारी मानों, आप भी इस झूठे प्रदर्शन
को त्यागकर अपने दिल रूपी मन्दिर में उस परमात्मा को खोजो, जिससे तुम्हारा कल्याण
हो सके। ब्राहम्ण को जब उसकी आशा के विरूद्ध खरी-खरी सुनने को मिली तो वह बहुत
छटपटाया और कहने लगाः हमारे पूर्वज वर्षों से इस विधि से अराधना करते आ रहे हैं और
शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है। गुरू जी ने उसे पुनः समझाने का प्रयत्न करते हुए
कहाः आपने शास्त्रों में सर्वत्र विद्यमान होना भी पढ़ा होगा ? यदि वह सर्वत्र
विद्यमान है तो आपको इस प्रतिमा की क्या आवश्यकता पड़ गई थी। वास्तव में आप अपनी
जीविका अर्जित करने के लिए ढोंग रचते रहते हैं, न कि प्रभु की उपासना। आपको अपने
भीतर प्रभु दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ऐसे में वह पत्थर के ठीकरों में से कहाँ मिलेगा जो
आपने स्वयँ तैयार किए हैः
घर महि ठाकुरु नदरि न आवै ॥
गल महि पाहणु लै लटकावै ॥१॥
भरमे भूला साकतु फिरता ॥
नीरु बिरोलै खपि खपि मरता ॥१॥ रहाउ ॥
जिसु पाहण कउ ठाकुरु कहता ॥
ओहु पाहणु लै उस कउ डुबता ॥२॥
गुनहगार लूण हरामी ॥
पाहण नाव न पारगिरामी ॥३॥
गुर मिलि नानक ठाकुरु जाता ॥
जलि थलि महीअलि पूरन बिधाता ॥४॥ सुही, महला 5 अंग 739
गुरू जी ने उस ब्राहम्ण को वहीं अपने प्रवचनों में कहा कि जो व्यक्ति सत्य की खोज न
करके केवल कर्मकाण्डों तक सीमित रहता है, तो उसका कार्य उसी प्रकार है जैसे कोई
मक्खन प्राप्त करने की आशा से पानी को मथना शुरू कर दे।