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5. अहमदशाह अब्दाली और सिक्ख- 5

राजकुमार तैमूर और सिक्ख
अहमदशाह ने काबुल की ओर कूच करने से पूर्व अपने पुत्र तैमूर शाह को लाहौर का हाकिम और बख्शी जहान खान को उसका नायब नियुक्त कर गया। उसने जम्मू के रणजीत देव को स्यालकोट जिले के कुछ परगने भी इस विचार से दिये कि वह समय-असमय तैमूर शाह की सहायता करेगा। ग्यारह वर्षीय राजकुमार तैमूर और उसके नवाब जहान खान के सामने जो सबसे बड़ा और कठिन काम था, वह पँजाब में शान्ति स्थापित करना था। पहले तो उन्हें मुगलानी बेगम का सामना करना पड़ा। पँजाब में मुगलानी बेगम का राज्य सन्तोषजनक सिद्ध न हुआ था। अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली में छिपे खजानों का ज्ञान तो मुगलानी बेगम से प्राप्ति कर लिया परन्तु जैसी कि बेगम को आशा थी, अब्दाली ने बदले में उसे पँजाब का राज्यपाल नियुक्त नहीं किया। इस बात से वह रूष्ट थी। दूसरा भय तैमूर को सिक्खों की ओर से था, जिन्होंने मीर मन्नू की मृत्यु के बाद अपनी शक्ति काफी सँगठित कर ली थी और अपनी छोटी छोटी रियासतें भी स्थापित कर ली थीं। तीसरा भय भारत की अन्य जातियों से था, जैसे अलावलपुर के अफगान, कसूर के पठान, कपूरथला और फगवाड़ा के राजपूत आदि। जिन्होंने मुगलानी बेगम के शासनकाल में काफी शक्ति अर्जित कर ली थी। कहने को तो सारा पँजाब अहमदशाह ने अफगान राज्य का अंग बना लिया था परन्तु उसकी वास्तविक सत्ता लाहौर नगर और उसके आसपास के गाँव के अतिरिक्त और कहीं नहीं चल रही थी। बाकी के पँजाब में केवल सिक्खों का आदेश ही चलता था।

 

सन् 1757 ईस्वी में जब तैमूरशाह ने पँजाब की सत्ता सँभालते ही सिक्खों की ओर से होने वाले खतरे को समाप्त करने के लिए उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को रोकने, उनके स्वाभिमान को गहरी चोट पहुँचाने के लिए, वैशाखी पर्व पर श्री दरबार साहब जी (श्री अमृतसर साहिब जी) पर विशाल पैमाने पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में उसके पास तीन हजार सैनिक थे। इस समय सिक्ख इस विशाल आक्रमण का सामना नहीं कर पाए वे जल्दी ही बिखर गए और कुछ रामरोहणी किले में शरण लेकर बैठ गए। शत्रु ने पवित्र धार्मिक स्थल का बहुत अपमान किया। फिर उन्होंने रामरोहणी किले को घेरे में लिया। जब सिक्खों ने देखा कि हमारे पास प्रर्याप्त रसद तथा गोला बारूद नहीं है, वह अपनी स्थिति अच्छी न देखकर एक रात अकस्मात किला खाली कर गए। इस किले का पुर्ननिर्माण सरदार जस्सा सिंह इचोगिल रामगढ़िये ने किया था परन्तु जैसे ही शत्रु के हाथ यह दोबारा आ गया तो उन्होंने इसे फिर से धवस्त कर दिया। तैमूर और उसके सेनापति द्वारा दरबार साहिब के अपमान की सूचना जँगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई। इसमें सिक्खों के स्वाभिमान को भी गहरी ठेस पहुँची। जब इस अपमान की सूचना बाबा दीप सिंघ जी को मिली तो वह इस कुकृत्य काण्ड को सुनकर आक्रोश में आ गए। भावुकता में उन्होंने नगाड़े पर चोट लगाकर युद्ध के लिए तैयार होने का आदेश दे दिया तुरन्त समस्त ?साबों की तलवंडी? नगर के श्रद्धालु नागरिक इक्ट्ठे हो गए। सभी सिंघों को सम्बोधित करते हुए बाबा दीप सिंह जी ने धर्म युद्ध का आह्वान करते हुए कहा कि सिंघों, हमने आताताई से पवित्र हरिमन्दिर साहिब दरबार साहिब के अपमान का बदला अवश्य ही लेना है। मौत को चाहने के लिए शहीदों की बरात चढ़नी है। जिन्होंने गुरू की खुशियाँ प्राप्त करनी हैं तो केसरी बाणा वस्त्र पहनकर शहीदी जाम पीने के लिए तैयार हो जाएँ। बस फिर क्या था, सिंघों ने शमाँ पर मर मिटने वाले परवानों की तरह ऊँचे स्वर में जैकारे लगाकर परवानगी दे दी। बाबा जी का आदेश गाँव गाँव पहुँचाया गया। जिससे चारों दिशाओं से सिंघ अस्त्र-शस्त्र लेकर एकत्रित हो गए।

चलने से पहले बाबा दीप सिंघ जी ने समस्त मरजीवड़ों (आत्म बलिदानियों) के समक्ष अपने खण्डे (दोधारी तलवार) से एक भूमि पर रेखा खींची और ललकार कर कहने लगे कि हमारे साथ केवल वही चलें जो मृत्यु अथवा विजय में से किसी एक की कामना करते हैं, यदि हम अपने गुरूधाम को आजाद न करवा पाए तो वही रणक्षेत्र में काम आएँगे और गुरू चरणों में न्यौछावर हो जाएँगे। उन्होंने कहा कि मैं शपथ लेता हूँ कि मैं अपना सिर श्री दरबार साहिब जी में गुरू चरणों में भेंट करूँगा। उन्होंने आगे कहा कि इसके विपरीत जो व्यक्ति अपनी घर-गृहस्थी के सुख आराम भोगना चाहता था, वह अभी वापिस लौट जाएँ और जो मृत्यु दुल्हन को ब्याहना चाहते हैं तो वह खण्डे द्वारा खींची रेखा को पार करें और हमारे साथ चलें। इधर या उधर की ललकार सुनकर लगभग 500 सिंघ खण्डे द्वारा खींची रेखा पार करके बाबा जी के नेतृत्त्व में श्री अमृतसर साहिब जी की ओर चल पड़े। रास्ते में विभिन्न गाँवों के नौजवान भी इन शहीदों की बारात में शामिल होते गए। तरनतारन पहुँचने तक सिंघों की संख्या 5,000 तक पहुँच गई। लाहौर दरबार में सिक्खों की इन तैयारियों की सूचना जैसे ही पहुँची, जहान खान ने घबराकर इस युद्ध को इस्लाम खतरे में है, का नाम लेकर जहादिया को आमन्त्रित कर लिया। हैदरी झण्डा लेकर गाज़ी बनकर अमृतसर की ओर चल पड़े। इस प्रकार उनकी सँख्या सरकारी सैनिकों को मिलाकर बीस हजार हो गई। अफगान सेनापति जहानखान अपनी सेना लेकर अमृतसर नगर के बाहर गरोवाल नामक स्थान पर सिक्खों से टकराया, सिंघ इस समय श्री दरबार साहिब जी के अपमान का बदला लेने के लिए मरने-मारने पर तुले हुए थे। ऐसे में उनके सामने केवल लूटमार के माल का आश्वासन लेकर लड़ने वाले जेहादी कहाँ टिक पाते। वे तो केवल बचाव की लड़ाई लड़कर कुछ प्राप्त करना चाहते थे किन्तु यहाँ तो केवल सामने मृत्यु ही मँडराती दिखाई देती थी। अतः वे धीरे धीरे भागने में ही अपना भला देखने लगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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