दिन में वे फिर वहाँ से निकलकर अब्दाली की सेना की नाक में दम कर देते। इसी बीच
अहमदशाह अब्दाली की शक्ति को क्षीण करने के कारण सिक्खों की धूम मच गई। दूसरी ओर
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाहआलम, शुजा-उद्दौला, रूहेलों तथा मराठों को लिखा कि वे
अहमदशाह अब्दाली को बिल्कुल न मिलें। अँग्रेजों की इस कार्यवाही के कारण नजीबुद्दौला
भी अहमदशाह अब्दाली के साथ साँझा मुहाज बनाने से झिझकने लगा। फलतः अहमदशाह को
इस्मायलाबाद से वापिस लौटना पड़ा। वह अम्बाला होता हुआ सरहिन्द पहुँच गया। सरहिन्द
में नजीबुद्दौला ने अब्दाली को बहुत भारी रकम नजराने के रूप में भेंट की, इसलिए
अहमदशाह ने उसके पुत्र जाबिता खान को सरहिन्द का फौजदार नियुक्त कर दिया। वास्तव
में सरहिन्द पटियाला के महाराजा आला सिंह के अधिकार क्षेत्र में था। अब्दाली ने बाबा
आला सिंह के कार्यकाल की नौ लाख रूपये की राशि उसके पोते अमर सिंघ को चुकाने का
आग्रह किया। यह राशि न चुकाने पर बन्दी बना लिए जाने के भय से तथा सरहिन्द से
अधिकार समाप्त होने के भय के कारण अमर सिंह ने तुरन्त वजीर शाहवली खान से भेंट की
और उसके द्वारा अहमदशाह को खुश किया और स्थायी मित्रता गाँठने के लिए उसकी शर्तें
स्वीकार कर लीं। इस पर अब्दाली ने उसे राज-ए-राजगान की उपाधि प्रदान की तथा उसे अपने
नाम अब्दाली पर सिक्का जारी करने की आज्ञा भी दे दी। इस प्राप्ति से उत्साहित होकर
अहमदशाह अब्दाली ने फिर एक बार योजनाबद्ध विधि से सिक्खों से संधि करने की चेष्टाएँ
कीं। इस कार्य के लिए उसने अदीना बेग के एक वँशज सआदत खान के माध्यम से यह सँदेश
भिजवाया कि यदि वे शाही सेना के इच्छुक हो तो आकर उसे निःसंकोच मिले। शाह तुम्हारे
क्षेत्रों को छीनना नहीं चाहता। वह तो आपसे संधि का इच्छुक है। जब यह सँदेश दल खालसा
के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंघ को मिला तो वह कह उठे?
कोई किसी कोई राज न दे है, जो ले है निज बल से ले हैं
तभी उन्होंने अब्दाली का सँदेश सरबत खालसा के समक्ष रख दिया।
समस्त खालसे का एक ही मत था कि हमें गुरू जी ने पातशाही पहले से ही दी हुई है। हम
एक विदेशी शत्रु के समक्ष कैसे झुक सकते हैं ? इस पर सभी कह उठे:
हथा बाज करारेया, बैरी मित न होए
इस बार वैशाखी पर्व पर सन् 1767 ईस्वी में 13 अप्रैल को सवा लाख
के करीब सिंघ श्री अमृतसर साहिब जी में एकत्रित हुए थे। जैसे ही अब्दाली को सिक्खों
के एकत्रित होने की सूचना मिली, वह काबुल वापस जाना भूल गया। उसे सातवें आक्रमण के
समय सिंघों द्वारा बोले गए धावों के कड़वे अनुभव याद हो आए। अतः वह भयभीत होकर दो
महीने वहीं सतलुज नदी के किनारे समय व्यतीत करता रहा। इस बीच उसके लिए 300 ऊँटों पर
लदी हुई काबुल से कुमक आ रही थी। जब वह कारवाँ लाहौर के निकट पहुँचा तो सिक्खों ने
उस पर कब्जा कर लिया। इस बार अहमदशाह दुर्रानी ने वापस लौटने के लिए बहुत सावधानी
से नया मार्ग चुना, वह सिक्खों के छापामार युद्धों से बहुत आतँकित था, वह नहीं चाहता
था कि उसकी फिर कभी सिक्खों से मुठभेड़ हो। उसे ज्ञात था कि सिक्ख गोरिला युद्ध में
बहुत निपुण हैं। अतः वह उनसे लोहा लेना नहीं चाहता था, इसलिए उसने लाहौर न जाकर
कसूर नगर से होते हुए अफगानिस्तान जाने का मार्ग अपना लिया। दल खालसा और उसके
ज्त्थेदारों के अदम्य साहस और दृढ़ विचारों ने पँजाब को अफगानों के चँगुल से निकाल
लिया। इस प्रकार निरन्तर बलिदानों से उन्होंने पँजाब को स्वतन्त्र करा लिया और वहाँ
पर अपना राज्य स्थापित कर लिया।
अहमदशाह अब्दाली का निधन
: आठवें आक्रमण की असफलता के पश्चात् भी अहमदशाह अब्दाली ने पँजाब में अपने भाग्य की
परीक्षा के लिए दो बार प्रयास किए। किन्तु उसे नौंवे आक्रमण में 1769 ईस्वी के
आरम्भ में पँजाब के गुजरात जिले के निकट आने का अवसर भी न मिल पाया। ठीक इस प्रकार
सन् 1771 ईस्वी में उसका आक्रमण केवल पत्र व्यवहार से आगे नहीं बढ़ सका। अन्त में
अहमदशाह वृद्धावस्था तथा बीमारी के कारण सन् 1772 ईस्वी की 14 अप्रैल को इस सँसार
से सदा के लिए कूच कर गया। बताया जाता है कि उसका निधन नाक पर हुए असाध्य घाव के
कारण हुआ जो उसे श्री दरबार साहब जी के भवन को ध्वस्त करते समय, उसकी एक ईंट के
टुकड़े की चोट के कारण हुआ था।