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14. अहमदशाह अब्दाली और सिक्ख-14

अहमदशाह अब्दाली का आठवाँ आक्रमण
13 अप्रैल, 1766 को अमृतसर में वैशाखी का उत्सव खालसा पँथ ने बड़ी धूमधाम से मानाया परन्तु दल खालसा के अध्यक्ष जस्सा सिंघ आहलूवालिया को विश्वास था कि अभी अब्दाली द्वारा फिर से आक्रमण करने की सम्भावना बनी हुई है। उन्होंने समस्त खालसा जी को उसके लिए तैयार रहने का आह्वान किया तथा उन्होंने समस्त जत्थेदारों और पँथ के सरदारों से आग्रह किया कि वे अपने अधिकृत क्षेत्रों की शासन व्यवस्था निर्पेक्ष तथा न्यायसंगत रूप में करें, जिससे अपनी अपनी प्रजा का मन जीतने में सफल हो सकें। उस समय तक सिक्ख मिसलों के सरदारों ने नक्के और मुलतान के क्षेत्रों पर पूर्ण अधिकार स्थापित नहीं किया था परन्तु वे उसके प्रयास में जुटे हुए थे। जैसे ही अब्दाली को सूचनाएँ मिली कि सिक्खों की शक्ति इतनी बढ़ गई है कि वे अफगानिस्तान के निकट के क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेने का प्रयास कर रहे हैं तो उसने फिर से एक बार किस्मत आजमाने के लिए भारत पर सम्पूर्ण शक्ति से आक्रमण कर दिया। इस बार आक्रमण करने का मुख्य कारण दिल्ली स्थित अपने विश्वासपात्र नजीबुद्दौला से तालमेल स्थापित करना था ताकि उसका भारत से बचा-खुचा प्रभाव भी लुप्त न हो जाए। जिसका लाभ उठाकर सिक्ख उसके निकट के क्षेत्रों पर अधिकार न कर लें।

 

वास्तव में सिक्खों के लाहौर पर नियन्त्रण से पँजाब तो उसके हाथों से निकल ही चुका था। इस बार उसकी अन्तिम कोशिश थी कि किसी प्रकार सिंधु पार के क्षेत्रों पर उसका स्थाई अधिकार बना रहे, कहीं उस पर भी सिक्ख हाथ साफ न कर दें। जैसे ही अब्दाली पँजाब पहुँचा, वैसे ही सिक्खों ने अपनी निर्धारित नीति अनुसार लाहौर खाली कर दिया और वे सभी श्री अमृतसर साहिब जी एकत्रित होने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसने बड़ी आसानी से लाहौर पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अब्दाली सिक्खों की इस नीति से बहुत आश्चर्य में पड़ गया। उसे विश्वास था कि सिक्ख जल्दी ही उस पर धावा बोलेंगे परन्तु सिक्खों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इस पर लाहौर नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने उसे बताया कि लाहौर नगर का सिक्ख शासक बड़ा अद्वितीय व्यक्ति है, जो प्रजा का शुभचिन्तक है। इस तथ्य को जानकर अब्दाली को आभास हो गया कि लाहौर की जनता अब सिक्ख राज्य के स्थान पर दुर्रानी का शासन स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगी। वास्तव में सिक्ख लाहौर नगर को युद्ध की विभीषिका से सुरक्षित रखना चाहते थे। अतः उन्होंने अब्दाली के आगे बढ़ने की प्रतीक्षा प्रारम्भ कर दी थी ताकि उसे जरनैली सड़क पर घेरकर खुले में नाकों चने चबवाएँ जाएँ। वैसे तो अब्दाली कई बार सिक्खों की युद्ध नीतियाँ देख चुका था परन्तु उसे इस बार कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि उसका अगला कार्यक्रम क्या हो ? वह स्वयँ सिक्खों से उलझना नहीं चाहता था।

अतः उसने बहुत सोच समझकर अपने प्रतिनिधिमण्डल को श्री अमृतसर साहिब जी भेजा और चाणक्य नीति अनुसार सर्वप्रथम लहणा सिंघ को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। इस कार्य सिद्धि के लिए उसने इस सरदार को उपहार सहित एक पत्र भेजा। जिसमें उसने लिखा था कि तुम निश्चिंत होकर मुझ से मिलो ताकि मैं तुम्हें लाहौर की सूबेदारी सौंप दूँ। लहणा सिंघ ने पत्र पढ़ा और फलों की टोकरी उसी तरह लौटा दी। इतना ही नहीं उसने उन फलों के टोकरों में गेहूँ और चने के दाने भी मिला दिए। जिसका रहस्य था कि फल तो तुम्हारे जैसे सम्राटों को ही शोभा देते हैं। मेरे जैसे निर्धन के लिए तो अनाज के दाने ही सैंकड़ों वरदानों के समान हैं। जब इस घटना का सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया जी को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा कि आपने बिल्कुल उचित समय पर सही उत्तर दिया है। वह व्यक्ति जिसने जानबूझ कर बड़े घल्लूघारे में हमारे परिवारों, महिलाएँ व बच्चों की हत्याएँ की हैं, तत्पश्चात हमारे पूज्यनीय गुरूधामों का अपमान किया और उन्हें धवस्त किया है। उससे किसी प्रकार की संधि अथवा मधुर सम्बन्ध स्थापित नहीं किए जा सकते। अब्दाली सिक्खों के ऊँचे आचरण कई बार देख चुका था। अतः उसने अपने सेनापति नसीर खान व जहान खान को श्री अमृतसर साहिब जी पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। दल खालसा के सरदार पहले से ही इस युद्ध के लिए तैयार थे। इस युद्ध में सरदार जस्सा सिंह, हीरा सिंह, लहणा सिंह, गुलजार सिंह इत्यादि जत्थेदारों ने बख्शी जहान को लगभग 4 घण्टे के युद्ध में ही बुरी तरह परास्त कर दिया। यहाँ पाँच से छः हजार दुर्रानी मारे गए जिसके परिणामस्वरूप जहान खान पीछे हटने को विवश हो गया। जब अब्दाली को अपनी पराजय का समाचार मिला तो वह तुरन्त श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचा परन्तु सिक्खों ने नई रणनीति के अन्तर्गत अपनी सेना को वहाँ से तुरन्त हटा लिया। शायद उस समय सरदार जस्सा सिंघ जी घायल अवस्था में थे, उनको उपचार हेतु लक्खी जँगल भेज दिया गया था। मैदान खाली पाकर अब्दाली ने फिर से श्री अमृतसर नगर तथा धार्मिक स्थानों को जो पुनः निर्माण किये जा रहे थे, को भारी क्षति पहुँचाई। सन् 1767 मार्च के प्रारम्भ में अब्दाली ने सतलुज नदी को पार करके दिल्ली की ओर कूच किया। तभी सिक्खों ने उसके द्वारा नियुक्त हाकिम दादन खान को पराजित करके लाहौर पर पुनः नियन्त्रण कर लिया। इसके साथ ही वे सभी स्थल फिर से अपने अधिकार में ले लिए जिन पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। अहमदशाह का प्रभाव केवल उन स्थानों तक सीमित था, जिधर से उसकी सेना प्रस्थान कर रही थी। गाँवों के जमींदार सिक्खों के प्रायः इतने समर्थक प्रतीत होते थे कि सिक्खों को उनके गाँवों में आसानी से आश्रय और अन्न-पानी मिल जाता।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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