अमृतसर साहिब के सिक्ख अफगान युद्ध में अब्दाली की भारी पराजय
सन् 1762 ईस्वी के सितम्बर माह में दल खालसा के जत्थेदारों ने विचार किया कि अब
उचित समय है, अब्दाली से श्री दरबार साहब जी के अपमान का बदला लिया जाए। उन्होंने
समस्त पँथ के लिए घोषणा करवा दी कि इस दीवाली पर्व पर अमृतसर सरबत खालसा सम्मेलन
होगा। अतः सभी ?नानक नाम लेवा? सिक्ख धर्म पर विश्वास करने वाले श्री अमृतसर नगर
में ?तैयार बर तैयार? रण सामग्री से सुसज्जित होकर पहुँचे। समस्त सिक्ख जगत इस अवसर
पर श्री दरबार साहिब जी के ध्वस्त भवन को देखकर अब्दाली की करतूतों का उससे
प्रतिशोध, बदला लेने के लिए परामर्श करने के लिए अमृतसर उमड़ पड़ा। दूरदराज के सिक्ख
तो श्री हरि मन्दिर साहिब के दर्शनों के लिए बेचैन थे। अतः अनुमानतः साठ हजार के
लगभग अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सिक्ख श्री दरबार साहब के अपमान का बदला लेने और
अपना बलिदान देने के लिए एकत्रित हुए। उस समय तक अहमदशाह अब्दाली भी कलानौर में
पहुँच चुका था। वह यह सुनकर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ कि ?बड़े घल्लूघारे? के बावजूद भी
सिक्ख इतनी जल्दी कैसे सम्भल गए हैं। वह अब पुनः सिक्खों से नहीं उलझना चाहता था
क्योंकि उसे ज्ञात हो गया कि था कि यह किसी का भी भय नहीं मानते और इन्हें मौत का
तो डर होता ही नहीं, यह तो सिर पर कफन बाँधकर शहीदों की मृत्यु मरने का चाव लेकर
रणक्षेत्र में जूझते हैं।
उसे अपनी करतूत, भयँकर की गई भूल का अहसास था, वह अब नये
सिरे से सिक्खों के साथ पंगा लेने से बचने के लिए कूटनीति का मार्ग ढूँढने लगा। उसने
सिक्ख जत्थेदारों के पास अपना एक प्रतिनिधिमंडल भेजा और सँदेश में कहा कि युद्ध करना
व्यर्थ है, रक्तपात के स्थान पर समस्या का समाधान वार्तालाप से ढूँढकर कोई नई संधि
कर ली जाए। सिक्ख तो दरबार साहिब जी के अपमान के विष का घूँट पीये हुए थे और
मरने-मारने के लिए दाँत पीस रहे थे। अतः आवेश में कुछ सिक्खों ने अब्दाली के दूत और
उसके साथियों का माल-असवाब लूटकर उन्हें भगा दिया। इस अपमान के कारण अहमदशाह का चुप
बैठे रहना एक कठिन सी बात थी। अतः वह दीवाली के एक दिन पूर्व साँयकाल को अमृतसर में
प्रवेश कर गया। साठ हजार सिक्खों ने अकालतख्त के सम्मुख होकर अपने जत्थेदार के
नेतृत्त्व में शपथ ली कि जब तक वे अहमदशाह अब्दाली से उसके सारे अयाचारों का
प्रतिशोध न ले लेंगे तब तक शान्ति से न बैठेंगे क्योंकि वे अपने पूज्य गुरूधामों का
अपमान कभी भी सहन नहीं कर सकते थे। सिक्खों ने 17 अक्तूबर, 1762 को तड़के ही अकाल
तख्त के सामने ?अरदास सोधकर? प्रार्थना के बाद अब्दाली की सेना पर धावा बोल दिया।
सारा दिन घमासान युद्ध होता रहा। सिक्खों के हृदय में दुर्रानियों के विरूद्ध दोहरा
रोष था। एक तो ?घल्लूघारे? में मारे गए परिवारों के कारण और दूसरा श्री दरबार साहिब
जी के भवन को ध्वस्त करने और सरोवर का अपमान करने के कारण, इसलिए वे जान हथेली पर
रखकर बदले की भावना से विजय अथवा मृत्यु में से एक को प्राप्त करना चाहते थे।
अमावस्या का दिन था, अतः इतिफाक से दोपहर 3 बजे के लगभग सम्पूर्ण सूर्यग्रहण लग गया,
जिसके कारण घोर अन्धेरा छा गया, इस प्रकार दिन में तारे दिखाई पड़ने लगे। अब्दाली की
सेना सिक्खों की मार झेल न सकी। वह तो अपनी सुरक्षा का ध्यान रखकर लड़ रहे थे परन्तु
सिक्ख शहीद होना चाहते थे। अतः वे अभय होकर शत्रु पर धावा बोल रहे थे। इसी कारण
अब्दाली के सैनिकों के पैर उखड़ गए और वे पीछे हटने लगे। प्रकृति ने भी उन्हें भागने
का पूरा अवसर प्रदान किया, पूर्ण सूर्यग्रहण के कारण समय से पहले ही अंधेरा हो गया,
अतः वे अंधेरे का लाभ उठाते हुए वापिस लाहौर नगर की ओर भागने लगे परन्तु सिक्खों ने
उनका पीछा किया। भागते हुए अफगान सैनिकों से बहुत सी रण सामग्री छीन ली गई। इस
युद्ध में अहमदशाह को बुरी तरह पराजय का मुँह देखना पड़ा और वह रात के समय लाहौर भाग
गया। इस प्रकार उसकी जान बच गई। अब्दाली ने भारत की उस समय की सबसे बड़ी शक्ति मराठों
को तो परास्त किया था परन्तु वह सिक्खों के सामने बेबस और लाचार होकर रह गया।