अतः उसने सैयद वली खान को विशेष सैनिक टुकड़ी दी और उसको सिक्ख सैनिकों के घेरे को
तोड़कर परिवारों को कुचल डालने का आदेश दिया, परन्तु यह इस कार्य में सफलता प्राप्त
न कर सका और बहुत से सैनिक मरवाकर लौट आया। तदनन्तर उसने जहान खान को आठ हजार सैनिक
देकर सिक्खों की दीवार तोड़कर परिवारों पर धावा बोलने को कहा। इस पर घमासान यद्ध हुआ।
सिक्ख तो लड़ते हुए आगे बढ़ते ही चले जा रहे थे। ऐसे में अब्दाली ने जैन खान को सँदेश
भेजा कि वह सिक्खों को किसी न किसी तरह आगे बढ़ने से रोके। जैन खान ने अपना पूरा बल
लगा दिया कि किसी न किसी स्थान पर सिक्खों को रूकने पर विवश कर दिया जाए परन्तु
सिक्खों के आगामी दस्ते जीवन मृत्यु का खेल खेलने पर तुले हुए थे, वे आत्मसमर्पण
करके लड़ रहे थे, जिससे शत्रु उनके आगे रूक नहीं सकता था। अतः जैन खान ने अब्दाली को
उतर भेज दिया कि ऐसा करना सम्भव ही नहीं क्योंकि सिक्ख सामने आने वाले को जीवित ही
नहीं छोड़ते। भले ही सिक्खों के सामने आकर शत्रु सेना उन्हें रोकने में असमर्थ रही,
फिर भी अहमदशाह अब्दाली सिक्ख योद्धाओं की उस दीवार को अन्त में तोड़ने में सफल हो
गया जो उन्होंने अपने परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई हुई थी। फलतः सिक्खों
के परिवारों को भारी क्षति उठानी पड़ी। शत्रुओं ने वृद्धों, बच्चों व महिलाओं को
मृत्यु शैया पर सुला दिया क्योंकि उनमें अधिकाँश निसहाय, थके हुए और बीमार अवस्था
में थे। सूर्य अस्त होने से पूर्व सिक्खों का कारवाँ धीरे धीरे कुतबा और बाहमणी
गाँवों के समीप पहुँच गया।
बहुत से बीमार अथवा लाचार सिक्ख आसरा ढूँढने के लिए इन गाँवों
की ओर बढ़े किन्तु इन गाँवों की अधिकतर आबादी मालेरकोटला के अफगानों की थी, जो उस
समय शत्रु का साथ दे रहे थे और सिक्खों के खून के प्यासे बने हुए थे। इन गाँवों के
मुस्लिम राजपूत रंघड़ ढोल बजाकर इक्ट्ठे हो गए और उन्होंने सिक्खों को सहारा देने की
अपेक्षा ललकारना शुरू कर दिया। इसी प्रकार उनकी कई स्थानों पर झड़पें भी हो गई। इस
कठिन समय में सरदार चढ़त सिंह शुकरचकिया अपना जत्था लेकर सहायता के लिए समय पर पहुँच
गया, उन्होंने मैदान में शत्रुओं को तलवार के खूब जौहर दिखाए और उन्हें पीछे धकेल
दिया। अनेक यातनाएँ झेलकर भी सिक्ख निरूत्साहित नहीं हुए। वे शत्रुओं को काटते-पीटते
और स्वयँ को शत्रुओं के वारों से बचाते हुए आगे बढ़ते चले गये। कुतबा और बाहमणी गाँवों
के निकट एक स्वच्छ पानी की झील (डाब) थी। अफगान और सिक्ख सैनिक अपनी प्यास बुझाने
के लिए झील की ओर बढ़े। वे सभी सुबह से भूखे-प्यासे थे। इस झील पर दोनों विरोधी पक्षों
ने एक साथ पानी पीया। युद्ध स्वतः ही बन्द हो गया और फिर दोबारा जारी न हो सका
क्योंकि अब्दाली की सेना भी बुरी तरह थक चुकी थी। पिछले छत्तीस घण्टों में उन्होंने
डेढ़ सौ मील की मँजिल पार की थी और दस घण्टे से निरन्तर लड़ाई में व्यस्त थे। इसके
अतिरिक्त वे सिक्खों के क्षेत्र की ओर बढ़ने का जोखिम भी मोल नहीं लेना चाहते थे। अतः
अहमदशाह ने युद्ध रोक दिया क्योंकि अब रात होने लगी थी और उसने अपने घायलों और मृतकों
को सँभालना था। इस युद्ध में सिक्खों ने भी जोरदार तलवारें चलाई और शत्रुओं के बहुत
से सैनिक मार डाले परन्तु उनको आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी बिना पड़ाव किए अहमदशाह उन
तक पहुँच जाएगा। अनुमान किया जाता है कि इस युद्ध में लगभग बीस से पच्चीस हजार
सिक्ख सैनिक अथवा स्त्रियां और बच्चे, बूढ़े मारे गए, इसलिए सिक्ख इतिहास में इस
दुखान्त घटना को दूसरा घल्लूघारा (महाविनाश) के नाम से याद किया जाता है। कहा जाता
है कि एक ही दिन में सिक्खों का जानी नुक्सान इससे पहले कभी भी नहीं हुआ था। इस
युद्ध में बहुत से सरदार मारे गए। जीवित सरदारों में से शायद ही कोई ऐसा बचा हो
जिसके शरीर पर पाँच दस घाव न लगे हों। ?प्राचीन पँथ प्रकाश? के लेखक रतन सिंघ भँगू
के पिता और चाचा उस समय इस युद्ध के मुख्य सुरक्षा दस्ते में कार्यरत थे। उनके
प्रत्यक्ष साक्षी होने के आधार पर उन्होंने लिखा है कि सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया
जी ने अद्वितीय दृढ़ता और साहस का प्रदर्शन किया था और उनको बाईस घाव हुए थे। भले ही
अहमदशाह अब्दाली ने अपनी तरफ से सिक्खों को महान हानि पहुँचाई परन्तु सिक्खों का
धैर्य देखते ही बनता था। उसी दिन साँयकाल में लँगर बाँटते समय एक निहँग सिंघ बड़ी
ऊँची आवाज लगाकर कह रहा थाः जत्थेदार जी ! खालसा, उस तरह अडिग है, तत्त्व खालसा सो
रहियो, गयो सु खोट गवाय अर्थात सिक्खों का सत्त्व शेष है और उसकी बुराइयाँ लुप्त हो
गई हैं।
अहमदशाह अब्दाली और आला सिंघ जी
कुप्प गाँव के युद्ध में अहमदशाह ने सिक्खों की वीरता के जौहर अपनी आँखों के सामने
देखे। उसे अहसास हो गया कि सिक्ख केवल छापामार युद्ध ही नहीं लड़ते बल्कि आमने सामने
युद्ध लड़ने में भी इनका कोई सानी नहीं। वह दोबारा अपनी नई नीतियाँ बनाने में विवश
हो गया। उसे महसूस हुआ कि यदि सिक्खों को शत्रु के स्थान पर मित्र बना लिया जाए तो
शायद वह काबू में आ जाएँ, जिससे लाहौर नगर पर सिक्खों का मँडराता हुआ खतरा सदा के
लिए टल जाए और वहाँ अफगानिस्तान की ओर से राज्यपाल की नियुक्ति चिरस्थाई सम्भव हो
सके। अतः उसने बाबा आला सिंह जी से सम्पर्क किया और डन्हें सँदेश भेजा कि वह ?खालसा
दल? के साथ उसका समझौता करवा दे, यदि वे मेरे विरूद्ध उपद्रव न करें तो उसके बदले
में जहाँ कहीं भी उनका क्षेत्र होगा, मैं उनका अधिकार स्वीकार कर लेता हूँ, इस विषय
में मुझसे भले ही लिखवा लिया जाए। बाबा आला सिंह जी ने अपने वकील नानू सिंघ ग्रेवाल
के हाथों अब्दाली का यह सँदेश ?दल खालसा? को भिजवा दिया। ?दल खालसा? के सरदारों ने,
जिसमें सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया शिरोमणि थे, ने वकील को उत्तर दिया कि क्या कभी
माँगने से कोई राज्य किसी को देता है ? उन्होंने आगे कहा कि तुरकों और सिक्खों का
मेल मिलाप होना उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार बारूद और आग का। यह स्पष्ट उत्तर
सुनकर अहमदशाह बौखला गया। तभी सरहिन्द के फौजदार ने उसे भड़काया और कहा कि आला सिंघ
को तो आपने ही राज्य दिया है, अतः पहले इसी की खबर लेनी चाहिए। बस फिर क्या था,
अब्दाली ने बिना सोचे बाबा आला सिंह जी के क्षेत्र बरनाला नगर पर आक्रमण कर दिया।
बाबा आला सिंह जी तो तटस्थ नीति पर चल रहे थे, वह युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार न थे,
मरता क्या न करता की लोक कहावत अनुसार उन्होंने अब्दाली की सेना का सामना किया
परन्तु पराजित हो गया और भागकर भवानीगढ़ के किले में शरण ली। अहमदशाह ने बरनाला और
भवानीगढ़ को घेर लिया। अन्त में बाबा आला सिंह ने मध्यस्थतों के माध्यम से अब्दाली
से एक समझौते के अन्तर्गत उसे पाँच लाख रूपये कर अथवा नज़राना के रूप में और सवा लाख
रूपये सिक्खी स्वरूप में बने रहने के लिए दिए। अहमदशाह ने यह विचार करके कि आला
सिंह ही सिक्खों में मिलवर्तनशील है और यही कुछ नर्म तबीयत अर्थात कट्टरपँथी नहीं
है, इसे ही इस प्रदेश में बना रहने दिया जाए ताकि शान्ति बनी रह सके। उससे प्रति
वर्ष निर्धारित राशि कर लगान के रूप में लेना निश्चित किया गया। अब्दाली ने पँजाब
प्रान्त को अपने साम्राज्य का भाग बनाए रखने के लिए सिक्खों के डर के मारे मराठों
के साथ संधि करने के लिए भी लिखपढ़ प्रारम्भ कर दी ताकि वे सिक्खों के साथ मिलकर उससे
बदला लेने का प्रयत्न न करें अथवा कम से कम वे पँजाब में सिक्खों की सहायता न करें।