अहमदशाह अब्दाली का पहला आक्रमण
ईरानी सम्राट नादिरशाह के दुर्रानी सैनिकों को सेना से निष्कासित करने पर नादिरशाह
के शिविर में सैनिक विद्रोह भड़क उठा, जिसमें नादिरशाह अकस्मात् मारा गया। इस
क्रान्ति में अहमदशाह का भाग्य चमक उठा। वह नादिर शाह का उत्तराधिकारी बन बैठा। भले
ही उसे बहुत सँघर्ष करना पड़ा परन्तु वह स्वतन्त्र अफगानिस्तानी सम्राट बनने में सफल
हो गया। उसने समूह अफगान कबीलों को सँगठित किया तथा अन्य राज्य विस्तार की इच्छा से
भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। वास्तव में उसका आन्तरिक उद्देश्य यह था कि
मुगल सम्राट को पराजित करके अफगान कौम को नवीन प्रतिष्ठा प्रदान की जाए और भारत के
सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र पँजाब पर अपना अधिकार स्थापित करके अफगानिस्तान की सार्थकता
को दृढ़ किया जाए। एक ओर तो अहमदशाह अब्दाली अपनी योजना को सफल बनाने के लिए सेना
एकत्रित कर रहा था तो दूसरी ओर शाह निवाज खान मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की ओर से उसके
राज्यपाल की नियुक्ति की वैद्यता की स्वीकृति के कारण अहमदशाह के विरूद्ध लड़ने को
तैयार हो गया। जनवरी, 1748 ईस्वी में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर प्रथम आक्रमण कर
दिया। आत्म सुरक्षा के लिए शाह निवाज ने भी अपनी सेना उसका सामना करने के लिए भेजी
परन्तु तीन दिन के घमासान की लड़ाई के बाद अब्दाली विजयी रहा और उसने लाहौर पर
नियन्त्रण कर लिया। इस बीच शाह निवाज बचा हुआ खजाना लेकर दिल्ली भाग गया।
अब्दाली
ने लाहौर में लूटपाट और कत्लेआम प्रारम्भ कर दिया। एक ही दिन में नगर का नक्शा बदल
गया। इस पर नगर के कुछ धनाढ़य लोग एकत्रित हुए, जिनमें मीर मोमन शान, जमीलउलदीन,
अमीर न्यामत खान बुखारी, दीवान लखपतराय, दीवान सूरत सिंह, दीवान कौड़ा मल इत्यादि
अहमदशाह के पास उपस्थिति हुए और 30 लाख रूपये नज़राना भेंट किया। इस प्रकार लाहौर
में नरसँहार बन्द हुआ। लाहौर पर नियन्त्रण के उल्लास में अब्दाली ने अपने नाम का
सिक्का प्रसारित किया और मस्जिदों में अब्दाली के नाम पर खुतबा कृपा दृष्टि की
प्रार्थनाएँ पढ़ी गईं। विजय के पश्चात् अहमदशाह सवा महीना लाहौर में प्रशासनिक
व्यवस्था के लिए ठहरा रहा। उसने जन्हें खान कसूरी पठान को लाहौर का राज्यपाल
नियुक्त किया और मीर मोमन खान को नाइब उप-प्रशासक तथा लखपतराय को उसका दीवान बनाया
गया। तदुपरान्त अब्दाली 17 फरवरी, 1748 को दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गया। इस बीच
सरहिन्द का फौजदार नवाब अल्ली मुहम्मद खान रूहेला ने सरहिन्द को खाली कर दिया जिससे
बिना युद्ध के सरहिन्द दुर्रानी सेना के नियन्त्रण में चला गया। परन्तु मुगल बादशाह
की तरफ से वजीर कमरूद्दीन के नेतृत्त्व में सत्तर हजार सेना के साथ सरहिन्द से लगभग
पाँच मील की दूरी पर मनुपुर नामक स्थान पर अहमद शाह को चुनौती दी। घमासान युद्ध हुआ।
जिसमें गोली लगने से वजीर कमरूद्दीन का निधन हो गया। जिससे वजीर कमरूद्दीन की सेना
का हौसला पस्त हो गया परन्तु उसके बेटे मीर मन्नू ने सेना की कमान स्वयँ सम्भाल ली
और दुर्रानी सेना पर पुनः आक्रमण कर दिया। फलतः अब्दाली की सेना के पैर उखड़ गए। इसी
दौरान अब्दाली के शस्त्रागार को भी आग लगा दी गई। जिससे बहुत से सैनिक बेमौत मारे
गए। ऐसी स्थिति में अब्दाली की सेना में भगदड़ मच गई। इस प्रकार अहमदशाह ने वापिस
जाना ही उचित समझा, 17 मार्च 1748 को अहमद शाह पराजित होकर सरहिन्द से लाहौर चला गया
और वहाँ थोड़ी देर विश्राम करके कँधार पहुँचकर सुख की साँस ली। मुगलों और अफगानों के
युद्ध में सिक्खों ने तटस्थ रहने की नीति अपनाई। वे अफगानों को भी भले आदमी नहीं
समझते थे क्योंकि उनके हृदय में पँजाब पर सम्पूर्ण सत्तारूढ़ होने का विचार पनप रहा
था। अतः वे अहमदशाह को खालसा राज्य की स्थापना में एक नई बड़ी अड़चन मानते थे। इस
सँदर्भ में सिक्खों की मनोकामना यह थी कि मुगल और अफगान शक्तियाँ आपस में लड़कर
कमजोर हो जाएँ, जिससे उन्हें शुभ अवसर मिल सके। भले ही मुगलों और अफगानों के आपसी
युद्ध में सिक्ख तटस्थ थे परन्तु लौटते हुए अहमदशाह अब्दाली पर कुछ छापामार युद्ध
किए, जिसमें वे शत्रु से कुछ रण सामग्री प्राप्त कर सकें। इस कार्य में सरदार चढ़त
सिंघ शुकरचकिया ने सबसे बढ़कर योगदान किया।